Wednesday 28 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 28 March 2012
(चैत्र शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०६९, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 4

        यद्यपि प्रेम अपवित्र नहीं है, स्वरूप से पवित्र ही है, किन्तु इसका अर्थ यह है कि प्रेम का वह भाव जिसमें प्रेमी प्रेम-पात्र को ही रस देने की सोचता है, वह पवित्र प्रेम है । आप कहेंगे कि यह रहस्य हमारी समझ में नहीं आया । तो भाई इस रहस्य को समझने के लिए कुछ प्रेमियों के चरित्र पर दृष्टि डालनी होगी ।

        आप भले ही उसे कहानी मानें, इतिहास मानें, चरित्र मानें, यह आपकी रूचि । अपना तात्पर्य तो केवल पवित्र प्रेम को समझाने के सम्बन्ध में है । तात्पर्य तो यह है, कि जो घटना आपके सामने निवेदन किया जाए, आप उस घटना पर विचार न करें आप उसे मान लें, यह तात्पर्य नहीं है । तात्पर्य केवल इतना है, कि घटना के द्वारा आप पवित्र प्रेम के वास्तविक रहस्य को जान लें ।

        एक बार की बात है कि जब हमारे श्री नन्दजी श्यामसुन्दर को मथुरा छोड़ कर वापस लौटे और माता यशोदा ने यह देखा कि नन्दजी तो आ गए पर कन्हैया नहीं है । तो यशोदाजी को कन्हैया के बिना नन्दजी को देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ । आश्चर्य यह हुआ कि लाला नहीं आए और नन्दजी प्राण-सहित आ गए । 

        इस आश्चर्य से चकित होकर माता यशोदा ने कहा कि हे नन्दजी, लाला जब रामावतार में वन को गए थे, तो महाराजा दशरथ ने लाला के वियोग में अपने प्राणों को नहीं रखा था । और आप लाला के बिना आ गए और प्राण-सहित आ गए ।

        नन्दजी ने कहा - हे यशोदे, तुम ठीक कहती हो, कि रामावतार में राजा दशरथ ने लाला के वियोग में प्राणों को नहीं रखा, किन्तु यशोदे, तुम्हें मालूम है कि जब राम वन से लौटे थे, तो उन्होंने महाराजा दशरथ के न होने का दुःख अनुभव किया था।

        ये अभागे प्राण केवल इसलिए हैं कि लाला कभी ब्रज में आए और मेरे न होने का दुःख अनुभव करे, तो यह मुझसे सहन नहीं होगा । यद्यपि लाला के वियोग की असह्य वेदना है, पर मैं यह सह सकता हूँ, किन्तु लाला को मेरे बिना दुःख हो, यह में नहीं सह सकता । यह क्या है ? यह है पवित्र प्रेम

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 51-52) । 

Saturday 24 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 24 March 2012
(चैत्र शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०६९, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका) 
प्रवचन - 4

        अब आप देखेंगे कि जिससे हम प्रार्थना कर रहे हैं, जो हमारे अपने हैं, जिससे हमारा नित्य सम्बन्ध है, उससे ही पवित्र प्रेम की प्रार्थना हम करते हैं । अब आप सोचिए, जिससे हम प्रार्थना करने जाएँ और उससे कहें कि हम आपके पवित्र प्रेम को चाहते हैं, तो क्या अपना प्रेम किसी को अच्छा नहीं लगेगा । क्या अपना प्रेम देने में किसी को कठिनाई होगी । तो आपको मानना ही पड़ेगा कि प्रेम एक ऐसा अलौलिक तत्व है, जिसका आदान-प्रदान रसरूप है । प्रेम देने में भी रस है और प्रेम पाने में भी रस है ।

        अब आप कहेंगे कि जब प्रेम का आदान-प्रदान रसरूप है तो फिर भाई, प्रेम तो कोई अपवित्रता नहीं होती । तो आपने पवित्र प्रेम का विशेषण क्यों लगाया ?

        इस सम्बन्ध में विचार करने से आपको एक बात पर ध्यान देना होगा । प्रेम अपवित्र तो नहीं है, परन्तु प्रेम का पवित्र विशेषण लगाया क्योंकि प्रेम के दो भाव होते हैं । प्रेम का एक भाव यह है, जिसमें कोई प्रेम-पात्र की समीपता स्वीकार करके अपने रस को सुरक्षित रखता है, किन्तु प्रेम का एक दूसरा भाव यह भी है कि प्रेमी प्रेम-पात्र के रस की बात सोचता है, अपने सुख की बात नहीं सोचता । तो जहाँ प्रेमी प्रेमास्पद के रस की बात सोचता है, वहाँ प्रेम के साथ 'पवित्र' विशेषण लगाया जाता है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 51) । 

Friday 23 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥


॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 23 March 2012
(चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, नव-वर्ष, वि.सं.-२०६९, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका) 
प्रवचन - 4

        सेवा और त्याग का फल क्या है? सुख की दासता और दुःख के भय का नाश । जब सुख की दासता और दुःख के भय का नाश हुआ, तब क्या होगा ? स्वाधीनता, चिन्मयता, चिर-शान्ति, अमरत्व । यह क्या है? अध्यात्म जीवन । तो फिर भौतिकवाद की जो साधना है, उससे क्या हुआ ? अध्यात्म जीवन में प्रवेश हुआ ।

        इस दृष्टि से भौतिकवाद और अध्यात्मवाद अलग-अलग नहीं हैं । एक ही जीवन के दो पहलू हैं । भौतिकवाद ने कर्तव्यपरायणता का पाठ पढाया, तो अध्यात्मवाद ने अमर बनाया क्योंकि हमको-आपको अमरत्व की भी आवश्यकता है और भाई कर्तव्य की भी आवश्यकता है । इसलिए भौतिकवाद भी जीवन का एक अंग है और अध्यात्मवाद भी जीवन का एक अंग है ।

        पर यहीं उद्देश्य की पूर्ति नहीं हो जाती । इसके बाद प्रार्थना में यह बताया कि हम सेवा और त्याग का बल किस लिए माँगते हैं ? इसलिए माँगते हैं जिससे यह अर्थात् सारा विश्व सुख की दासता और दुःख के भय से मुक्त हो जाय । अब सुख की दासता और दुःख के भय से किस लिए मुक्त होना है ? तब यह प्रार्थना की गई कि आपके पवित्र प्रेम का आस्वादन करने के लिए ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 50-51) । 

Thursday 22 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 22 March 2012
(चैत्र कृष्ण अमावस्या, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका) 
प्रवचन - 4

आप सोचिए, जब सुख की दासता हमारे आपके जीवन में नहीं होगी, दुःख का भय हमारे अपने जीवन में नहीं होगा, तब क्या होगा ? कि जो सुख की दासता और दुःख के भय से मुक्त है, उसमें अहं भाव नहीं रह सकता और जहाँ अहं भाव नहीं रह सकता वहाँ भेद नहीं रह सकता, और जहाँ भेद नहीं रह सकता, वहाँ योग और बोध अपने आप ही आ जाएगा । क्यों? क्योंकि सुख की दासता और दुःख के भय का नाश होते ही सीमित अहं-भाव का नाश हो जाएगा । यही अध्यात्म जीवन है ।

इससे सिद्ध हुआ कि प्रार्थना का जो दूसरा भाग है उसमें सुख की दासता और दुःख के भय से मुक्त होनेवाली बात है । वह अध्यात्म जीवन की पूर्णता है । और सेवा और त्याग के बल की जो बात है, वह भौतिक जीवन की पूर्णता है ।

भौतिक जीवन क्या है ? समस्त विश्व एक है और दूसरों का दुःख हमारा अपना ही दुःख है और दूसरों का सुख हमारा अपना ही सुख है । इससे बढ़कर तो कोई और भौतिकता है नहीं । तो भाई, भौतिकवाद कोई बुरी वस्तु नहीं है । भौतिकवादी का कर्तव्य क्या है ? भौतिकवादी का कर्तव्य है - सेवा और त्याग । भौतिकवाद की पराकाष्ठा क्या है ? सेवा और त्याग ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 49-50) । 

Wednesday 21 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 21 March 2012
(चैत्र कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)
      
(गत ब्लागसे आगेका) 
प्रवचन - 4

सेवा बड़े ही महत्व की वस्तु है। किन्तु सेवा उसी अंश में कर सकते हैं, जिस अंश में हम सुखी हैं अर्थात् सुखी का साधन सेवा है । इसका अर्थ कोई यह न समझे कि जो सुखी नहीं है, वह साधक नहीं हो सकता । साधक तो वह भी हो सकता है, लेकिन दुखी होनेपर उसका साधन है त्याग और सुखी होनेपर उसका साधन है सेवा ।

इससे यह सिद्ध हुआ कि सेवा और त्याग के द्वारा हम सुख की दासता और दुःख के भय से मुक्त हो सकते हैं । अब आप विचार करें, बहुत गम्भीरता से विचार करें कि सुख की दासता और दुःख के भय का नाश होना ही क्या सद्गति नहीं है ? क्या स्वाधीनता नहीं है ? क्या मुक्ति नहीं है ? क्या अध्यात्म जीवन नहीं है? अध्यात्म जीवन और क्या है ? आध्यात्मिक जीवन तो वही है न, जिसमें सुख की दासता न हो और दुःख का भय न हो । 

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 49) । 

Tuesday 20 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 20 March 2012
(चैत्र कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका) 
प्रवचन - 4

        देखिए सेवा का अर्थ यह भी नहीं है कि जिसकी हम सेवा करते हैं वह हमारा नहीं है अथवा जिन साधनों से सेवा करते हैं, वे उसके नहीं हैं, जिसकी हम सेवा करते हैं। अगर किसी वस्तु को हम अपनी मानकर सेवा करते हैं तो उसका अर्थ सेवा नहीं है; उसका अर्थ है पुण्यकर्म ।

        पुण्यकर्म और सेवा में एक बड़ा अन्तर यह है कि पुण्यकर्म जो है, उसका आरम्भ होता है कामना से और जिसका आरम्भ कामना से होता है, उसका परिणाम भोग होता है । उसका परिणाम करुणा नहीं होती, उसका परिणाम प्रसन्नता नहीं होती। और भोग का परिणाम सदैव रोग होता है । ऐसा कोई भोग है ही नहीं, जिसका परिणाम रोग न हो । ऐसा कोई भोग है ही नहीं जिसका परिणाम जड़ता न हो । ऐसा कोई भोग है ही नहीं, जो हमें पराधीन न बना दे । 

        भोग प्राणी को पराधीनता में, जड़ता में आबद्ध करता है किन्तु सेवा पराधीन नहीं बनाती, जड़ता में आबद्ध नहीं करती, अपितु एक चेतना प्रदान करती है । सेवा जो है, वह हमें स्वाधीन बनाती है, पराधीन नहीं बनाती । सेवा जो है, वह हमें जड़ता से चेतना की ओर ले जाती है, अशान्ति से शान्ति की ओर ले जाती है, पराधीनता से स्वाधीनता की ओर ले जाती है और असत्य से सत्य की ओर ले जाती है । इस दृष्टि से सेवा बड़े ही महत्व की वस्तु है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 48-49) । 

Monday 19 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 19 March 2012
(चैत्र कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

प्रवचन - 4

        सुख-भोग की रूचि का नाश होते ही सुख के सदुपयोग करने की सामर्थ्य आ जाती है। सुख का सदुपयोग करते ही सुख की दासता मिट जाती है और सुख की दासता मिटते ही दूसरों का जो सुख है, वह हमारा सुख बन जाता है और दूसरों का जो दुःख है, वह हमारा दुःख बन जाता है । अर्थात् सेवक के हृदय में करुणा और प्रसन्नता निवास करती है । 

        आप देखिए और गम्भीरता से विचार कीजिए इस बात पर, की जब आपका हृदय किसी के दुःख से भर जाता है तब आपके हृदय में करुणा का रस बहने लगता है और जब आप किसी सुखी को देखकर प्रसन्न हो जाते हैं तब आपके जीवन में प्रसन्नता छा जाती है । सच्ची प्रसन्नता सुखियों को देखकर ही मिल सकती है, जो सुख भोगने से नहीं मिलती ।

        सुख भोगने से तो भोगने की शक्ति का ह्रास और भाई, भोग्य वस्तु का विनाश होता है । भोग्य वस्तु का विनाश और भोगने की शक्ति का ह्रास यह सुख-भोग की बात है । जब हम सुखियों को देखकर प्रसन्न होते हैं तो न तो भोगने की शक्ति का ही ह्रास होता है और न भोग्य वस्तु का ही विनाश होता है अपितु बिना ही भोगे भोग से भी अधिक प्रसन्नता प्राप्त होती है । 

        इस दृष्टि से यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि भाई, सुखी का कर्तव्य है सेवा । सेवा क्या ? दुखियों के दुःख में दुखी होना और सुखियों के सुख में प्रसन्न होना । करुणा और प्रसन्नता का जीवन में जो आ जाना है, उसी का नाम सच्ची सेवा है । 

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 47-48) । 

Thursday 15 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 15 March 2012
(चैत्र कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त उद्बोधन

45.    जो अपने में नहीं है, वह कभी भी अपने को नहीं चाहिए - यही वास्तविक त्याग है। इसको अपनाये बिना चिर-शान्ति, जीवन-मुक्ति तथा परम प्रेम की प्राप्ति नहीं हो सकती ।

46.    निर्लोभता के बिना दरिद्रता का, निर्मोहता के बिना भय का, निष्कामता के बिना अशान्ति का और असंगता के बिना पराधीनता का नाश नहीं होता । यह दैवी विधान है ।

47.    देहाभिमान रहते हुए कभी भी कोई भी पराधीनता आदि विकारों से रहित नहीं हो सकता । इस दृष्टि से सुख, सुविधा, सम्मान की वासना का अन्त करना अनिवार्य है, जो एकमात्र सत्य को स्वीकार करने पर ही सम्भव है ।

48.    आंशिक साधना के आधार पर अपने को सन्तुष्ट करना बड़ी ही भयंकर असाधना है । इससे सजग साधक को बड़ी ही सावधानीपूर्वक अपने को बचाना चाहिए । यह तभी सम्भव होगा जब साधक को आंशिक असाधना भी असह्य हो जाय । उसके लिए आंशिक साधना को साधना नहीं मानना चाहिए ।

49.    असाधन प्राकृतिक नहीं है । मानव अपनी ही भूल से असत् के संग को अपनाकर असाधन को जन्म देता है । जिसे मानव ने अपनी भूल से उत्पन्न किया है, उसका नाश भूल-रहित होने पर ही होगा । इस दृष्टि से भूल-रहित होने में ही मानव का पुरुषार्थ है। भूल-रहित होने के लिए अपनी भूल का अनुभव करना अत्यन्त आवश्यक है । अपनी भूल का अनुभव तभी होगा, जब आंशिक साधना को अपनी साधना स्वीकार न किया जाय, अपितु आंशिक असाधन को भूल मान लिया जाय । 

- ‘सन्त उद्बोधन’ पुस्तक से (Page No. 24-26) [For details, please read the book]

Wednesday 14 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 14 March 2012
(चैत्र कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त उद्बोधन

39.    मेरा कुछ नहीं है, यह जानने की बात है और बुराई रहित होना, यह धर्म है, धारण करने की बात है । तो धर्म को धारण करो, भूल रहित हो जाओ और परमात्मा को मान लो। आपका जीवन कल्याणमय हो जाएगा ।

40.    भगवान् की दृष्टि से हम कभी ओझल नहीं हैं, उनकी सत्ता से हम कभी बाहर नहीं हैं । हम भगवान् की महिमा स्वीकार नहीं करते, उनके अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते, तो उससे भगवान् हमको दूर मालूम होते हैं ।

41.    भगवान् के अस्तित्व को स्वीकार करना ही तो आस्तिकता है और महत्व को स्वीकार करना ही भगवान् की स्तुति है और भगवान् के सम्बन्ध को स्वीकार करना ही उपासना है।

42.    भगवान् के अस्तित्व को, महत्व को और सम्बन्ध को स्वीकार करना अपना काम है और उस स्वीकृति को सजीव कर देना, यह प्रभु का काम है । जब हम अपना काम ठीक कर देते हैं तो प्रभु का काम ठीक होता रहता है, इसमें कमी होती नहीं है।

43.     साधक के जीवन में असफलता के लिए कोई स्थान ही नहीं है - इस महावाक्य में अविचल आस्था करते ही सफलता की उत्कृष्ट लालसा तीव्र होती है, जो समस्त कामनाओं को भस्मीभूत कर साधक को साध्य से अभिन्न कर देती है । यह सजग साधकों का अनुभव है ।

44.    अपने परम प्रेमास्पद सदैव अपने ही में हैं । उनमें अपनी अविचल आस्था रहनी चाहिए । प्रेमास्पद के अस्तित्व तथा महत्व को स्वीकार कर उनसे आत्मीय सम्बन्ध अत्यन्त आवश्यक है । आत्मीय सम्बन्ध से ही साधक में अखण्ड स्मृति तथा अगाध प्रियता की अभिव्यक्ति होती है ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - ‘सन्त उद्बोधन’ पुस्तक से (Page No. 19-24) [For details, please read the book]

Tuesday 13 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 13 March 2012
(चैत्र कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त उद्बोधन

31.    जगत् की उदारता, प्रभु की कृपालुता और सत्पुरुषों की सद्भावना - ये प्रत्येक साधक के साथ सदैव रहती हैं ।

32.    एकान्त का पूरा लाभ तब होता है जब हमारा सम्बन्ध एक ही से रह जाये । अनेक सम्बन्ध लेकर एकान्त में जाते हैं तो उतना लाभ नहीं होता, जितना होना चाहिए । हमारे सम्बन्ध पहले बदलने चाहिए । एक से रहे, अनेक से नहीं ।

33.    संसार परमात्मा की प्राप्ति में बाधक नहीं है, बल्कि सहायक है । उसका जो हम सम्बन्ध स्वीकार करते हैं वही बाधक है।

34.    परमात्मा कहाँ है, कैसा है, क्या है - इसके पीछे न पड़ते हुए 'परमात्मा' है, यह मान लेना चाहिए । इससे बहुत लाभ होता है ।

35.    अपनी भूल को जान लेने से भी बड़ा लाभ होता है । क्योंकि भूल को जानने से वेदना होती है और वेदना से भूल नाश होती है और भूल रहित होने से अपना हित होता है ।

36.    मौन का अर्थ खाली चुप होना नहीं है, बल्कि न सोचना भी है, न देखना भी है अपनी ओर से । मुझे जो चाहिए सो तो मुझमें है, फिर इंद्रियों की क्या अपेक्षा ?

37.    मौन के पीछे एक दर्शन है कि हमको जो चाहिए वह अपने में है, अपना है और अभी है । यही सर्वश्रेष्ठ परमात्मवाद है ।

38.    भगवान की महिमा का कोई वारापार नहीं है । पसन्द भर करना हमारा काम है; बाकी तो भगवान की अहैतुकी कृपा सारा काम स्वतः कर देती है ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - ‘सन्त उद्बोधन’ पुस्तक से (Page No. 17-19) [For details, please read the book]

Monday 12 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 12 November 2012
(चैत्र कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त उद्बोधन

25.    जबतक तुम बुरे नहीं होते, बुराई नहीं पैदा होती। मन में कोई विकृति नहीं है। ........... अपनी खराबी ठीक करो, मन ठीक हो जाएगा। तुम किसी को बुरा मत समझो, मन में बुरी बात कभी नहीं आएगी । तुम किसी का बुरा मत चाहो, मन में बुरी बात कभी नहीं आएगी । तुम किसी के साथ बुराई मत करो, मन में बुरी बात कभी नहीं आएगी । हमारी भूल मन में दिखती है । भूल हम करते हैं और नाम मन का रख देते हैं। बुराई करनेवाला खुद दुःखी होता है और दूसरों को भी दुःखी करता है ।

26.    अपने को बुरा मानोगे, तो बुराई करोगे । अपने को भला मानोगे, तो भलाई करोगे । और भला-बुरा कुछ नहीं मानोगे, तो परमात्मा में रहोगे ।

27.    मनुष्य सर्वांश में बुरा नहीं हो सकता, पर सर्वांश में भला हो सकता है ।

28.    जिसके करने की सामर्थ्य प्राप्त हो, जिसमें किसी का अहित न हो, जिसके बिना करे नहीं रह सकते हो और जिसका सम्बन्ध वर्तमान से हो - ऐसा काम ही जरूरी होता है ।

29.    संसार कभी आपसे नहीं कहता कि मुझे पसन्द करो, तुम्हीं पसन्द करते हो । संसार की किसी वस्तु ने कभी कहा है कि मैं तुम्हारी हूँ ? तुम्हारे मकान ने कहा हो, तुम्हारी जेब के पैसों ने कहा हो, तुम्हारी इंद्रियों ने कहा हो । तुम्हारे शरीर से लेकर संसार की जितनी भी चीजें हैं, उनमें से किसने कहा कि मैं तुम्हारी हूँ ? तुम बिना वजह 'अपना-अपना' गीत गाते हो । कहते हो 'मेरा मन', 'मेरा हाथ' आदि ।

30.    जानी हुई बुराई करो मत और जो बुराई कर चुके हो, उसे दोहराओ मत । तो आगे बढ़ जाओगे ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - ‘सन्त उद्बोधन’ पुस्तक से (Page No. 15-17) [For details, please read the book]

Sunday 11 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 11 March 2012
(चैत्र कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०६८, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त उद्बोधन

18.    सेवा, त्याग और प्रेम तीनों इकट्ठे हो गए, भजन हो गया । भजन में सेवा भी है, त्याग भी है और प्रेम भी है।

19.    भगवान को जबतक अपना नहीं मानोगो तबतक भगवान प्यारा लगेगा नहीं और भगवान जबतक प्यारा लगेगा नहीं, तबतक उसकी याद आयेगी नहीं और जबतक याद नहीं आयेगी, तबतक भजन होगा नहीं ।

20.    प्रभु की महिमा स्वीकार करो, स्तुति हो गयी । प्रभु से सम्बन्ध स्वीकार करो, उपासना हो गयी । प्रभु के प्रेम की आवश्यकता अनुभव करो, प्रार्थना हो गयी ।

21.    मनुष्य में तीन बातें होती हैं - भोग की वृति होती है, जिज्ञासा होती है और भगवद्-प्राप्ति की लालसा होती है । तो भोग की वृति का त्याग कर दो, जिज्ञासा पूरी हो जाएगी और भगवद्-प्राप्ति की लालसा उदय हो जाएगी ।

22.    हमें देखना चाहिए कि हमारा सम्बन्ध हमारी ओर से किसके साथ है ? परमात्मा के साथ है या जगत् के साथ है; अच्छाई के साथ है या बुराई के साथ है ? हमको क्या पसन्द आता है ? अगर हमको परमात्मा का सम्बन्ध अच्छा लगता है, तो संसार का सम्बन्ध अपने आप ही टूट जाएगा । अगर संसार का सम्बन्ध हमने तोड़ दिया है, तो परमात्मा से सम्बन्ध अपने आप हो जाएगा । तो आपके और परमात्मा के बीच संसार पर्दा नहीं है, उससे सम्बन्ध पर्दा है ।

23.    प्रेम करने का तरीका आज तक संसार में कोई बतला नहीं सका, और निकला भी नहीं है । तरीके से प्रेम नहीं हुआ करता, क्योंकि प्रेम का तरीका होता, तो जो काम तरीके से हो सकता है वह मशीन से भी हो सकता है । तब तो आज के वैज्ञानिक युग में प्रेम प्राप्त करने की मशीन भी बन जातीं । तो प्रेम करने का कोई तरीका नहीं है, पर प्रेम करना सबको आता है । ......... परमात्मा अपना है, उसे अपना बनालें, तो वह प्यारा लगता है ।

24.    आप सुनना और सीखना बंद करें और जानना और मानना प्रारम्भ करें, तो काम बन जाएगा । जानने के स्थान पर - "मेरा कुछ नहीं है" - इसके सिवाय और कुछ नहीं जानना है । और मानने के स्थान पर सिवाय परमात्मा के और कोई मानने में आता नहीं है ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - ‘सन्त उद्बोधन’ पुस्तक से (Page No. 13-15) [For details, please read the book]

Saturday 10 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 10 March 2012
(चैत्र कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त उद्बोधन

9.    सही काम करने से मनुष्य काम-रहित हो जाता है । काम-रहित होने से योग की प्राप्ति होती है । योग की पूर्णता में बोध और प्रेम है ।

10.    जो नहीं कर सकते हो, उसे करने की सोचो मत और जो नहीं करना चाहिए उसे करो मत । जो कर सकते हो, उसे जमा मत रखो, कर डालो । उसके अन्त में आपको योग की प्राप्ति हो जाएगी ।

11.    भोग जब आप करते हैं, तो भोगे हुए का प्रभाव मन पर अंकित हो जाता है, उसका संस्कार जमता है और जब आप शान्त होते हैं, तब वही प्रकट होता है । वह प्रकट होता है नाश होने के लिए, वह नया कर्म नहीं है । आपके भोजन कर लेने के बाद जैसे आपका भोजन बिना जाने और बिना कुछ किए पचता है । तो एक होता है 'करना' और एक होता है 'होना' । ........ तो होने वाली बात को कर्म मत मानो, वह कर्म नहीं है । अगर उससे असहयोग कर लोगे, तो उसका प्रभाव अपने आप नाश हो जाएगा।

12.    संसार से सम्बन्ध है सेवा करने के लिए और परमात्मा से सम्बन्ध है प्रेम करने के लिए । न संसार से कुछ चाहिए, न परमात्मा से कुछ चाहिए ।

13.    संकल्प तो भुक्त इच्छाओं का प्रभाव है और जो पहले भोग कर चुके हैं, उसी के प्रभाव से उठता है ।

14.    संकल्पपूर्ति का सुख ही नवीन संकल्प को जन्म देता है । यदि हम संकल्पपूर्ति का सुख पसन्द करते रहेंगे, तो एक के बाद एक नवीन संकल्प उत्पन्न होता ही रहेगा और अभाव-ही-अभाव पल्ले पड़ेगा ।

15.    संकल्पपूर्ति का सुख मत भोगो व संकल्प-निवृति की शान्ति में रमण मत करो । बस, तब जीवन-मुक्ति प्राप्ति हो जाएगी । 

16.    ज्ञान और सामर्थ्य के अनुसार जो संकल्प उठे, उसे पूरा करके खत्म कर दो । संकल्प वह पूरा करना है जिसमें दूसरों का हित है । उसी को कर्तव्य कहते हैं ।

17.    जो संकल्प कभी पूरा न हो, बार-बार उठे वह ज्ञान विरोधी है, सामर्थ्य विरोधी है । अतः उसका त्याग कर दो । इस प्रकार आप निर्विकल्प हो जाएँगे ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - ‘सन्त उद्बोधन’ पुस्तक से (Page No. 11-13) [For details, please read the book]

Friday 9 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 09 March 2012
(चैत्र कृष्ण प्रतिपदा, होली वसंतोत्सव, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)

सन्त उद्बोधन

1.    शरणागत विश्वासी साधक अपने सभी आत्मीयजनों को समर्थ के हाथों समर्पित करके, निश्चिन्त तथा निर्भय हो जाता है ।

2.    किसी भी विश्वासी शरणागत साधक को कभी भी अधीर नहीं होना चाहिए, कारण कि वह सनाथ है, अनाथ नहीं ।

3.    कुछ नहीं चाहने से ही मोक्ष मिलता है । चाहना ही बन्धन होता है । अगर मालूम होता है कि मेरा कुछ है, मुझे कुछ चाहिए, तो बस बँध गए । अगर तुम्हें यह अनुभव हो जाय कि मेरा कुछ नहीं है, मुझे कुछ नहीं चाहिए, बस मुक्त हो गए ।

4.    जो होती है, उसको मुक्ति थोड़े ही कहते हैं, जो है, उसे मुक्ति कहते हैं । बन्धन बनाने की सामर्थ्य आप ही में है और मुक्त होने की सामर्थ्य भी आप में ही है ।

5.    परमात्मा को जानना चाहिए या मानना चाहिए?......परमात्मा माना जाता है, जाना नहीं जाता । माना हुआ वह परमात्मा माना हुआ नहीं रहता, प्राप्त हो जाता है ।

6.    श्रम और विश्राम जीवन के दो पहलू हैं । श्रम है संसार के लिए और विश्राम है अपने लिए ।

7.    जब कोई काम करने चलो, तो यह मानकर मत चलो कि मुझे क्या लाभ होगा ? बल्कि यह सोचकर चलो कि इससे परिवार को क्या लाभ होगा, संसार को क्या लाभ होगा । बल का जब उपयोग करो तो इस बात को सामने रखो कि किसी दूसरे को उससे हानि तो नहीं होती । यदि हानि है तो वह नहीं करूँगा । तो दूसरों के हित के लिए काम करो, उसको कहते हैं श्रम और अपने लिए विश्राम करो । विश्राम में अमर जीवन है, विश्राम में स्वाधीन जीवन है, विश्राम में सरस जीवन है ।

8.    विश्राम का अर्थ होता है - काम रहित होना । विश्राम सहज है, स्वाभाविक है । सभी के लिए समान रूप से सम्भव है ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - ‘सन्त उद्बोधन’ पुस्तक से (Page no. 7-11)

Thursday 8 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 8 March 2012
(फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार

89.    प्रवृति के द्वारा जिस किसी को कुछ मिलता है, वह कालान्तर में स्वतः मिट जाता है ।

90.    प्रार्थना इसलिए नहीं की जाती कि आप कहेंगे, तब परमात्मा सुनेंगे। प्रार्थना का असली रूप है - अपनी आवश्यकता ठीक-ठीक अनुभव करना।

91.    जिस प्रकार प्यास लगना ही पानी का माँगना है, उसी प्रकार अभाव की वेदना ही प्रार्थना है ।

92.    जो तुम्हारे सम्बन्ध में तुमसे भी अधिक जानते हैं, क्या उनसे भी कुछ कहना है ?

93.    जिस प्रकार माँ को शिशु की सभी आवश्कताओं का ज्ञान है एवं शिशु के बिना कहे ही माँ वह करती है, जो उसे करना चाहिए, उसी प्रकार आनन्दघन भगवान् हमारे बिना कहे ही वह अवश्य करते हैं, जो उन्हें करना चाहिए । परन्तु हम उनकी दी हुई शक्ति का सदुपयोग नहीं करते और निर्बलता मिटाने के लिए बनावटी प्रार्थना करते रहते हैं ।

94.    प्रभु की महिमा सुनकर जो ईश्वरवादी होते हैं, वे कामी हैं, प्रेमी नहीं ।

95.    योग की प्राप्ति में, बोध की प्राप्ति में, प्रेम की प्राप्ति में कुछ न चाहना ही मूल मन्त्र है ।

96.    अपने प्रियतम को अपने से भिन्न किसी और में अनुभव मत करो ।

97.    जिनके सम्बन्धमात्र में ही देहाभिमान गल जाता है, उनके प्रेम की प्राप्ति में भला देहादि की क्या अपेक्षा होगी ?

- 'सन्त हृदयोद्गार' पुस्तक से ।

Wednesday 7 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 07 March 2012
(फाल्गुन शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार

82.    आप सच मानिए, सिद्धि वर्तमान में ही होती है। भविष्य में कभी सिद्धि नहीं होती । भविष्य में तो उसकी प्राप्ति होती है, जो वर्तमान में नहीं है अर्थात् जिसकी उत्पत्ति हो । ........... जरा सोचिए, साध्य तो हो वर्तमान में, और साधक यह माने कि हमें भविष्य में मिलेगा ! जरा ध्यान दीजिए, साध्य तो है वर्तमान में, और मिलेगा भविष्य में !

83.    मानव को प्रभु दण्ड नहीं देता, विधान मानव को दण्ड नहीं देता, तो फिर क्या देता है ? जिस परिस्थिति से आपका विकास होता है, वही परिस्थिति आपको देता है ।

84.    यह दिमागी कौतूहल है कि किसी परिस्थिति-विशेष की प्राप्ति से हम वह हो जाएँगे, जो हम आज नहीं हैं । सरकार, यहीं रहेंगे, यहीं । अन्तर यही होगा कि आप तीन बटा चार न लिखकर पचहत्तर बटा सौ लिखियेगा ।

85.    प्राकृतिक नियमानुसार प्रत्येक परिस्थिति मंगलमय है, इसी ध्रुव सत्य के कारण जो हो रहा है, वही ठीक है ।

86.    प्रतिकूल परिस्थिति भोग में भले ही बाधक हो, पर योग में नहीं ।

87.    ऐसी कोई अनुकूलता है ही नहीं, जिसने प्रतिकूलता को जन्म न दिया हो और न ऐसी कोई प्रतिकूलता ही है, जिसमें प्राणी का हित न हो ।

88.    जितने आस्तिक होते हैं, वे प्रत्येक प्रतिकूलता में अपने परम प्रेमास्पद की अनुकूलता का अनुभव करते हैं कि अब हमारे प्यारे ने अपने मन की बात करना आरम्भ कर दिया । अब वे हमें जरूर अपनायेंगे ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्त हृदयोद्गार' पुस्तक से ।

Tuesday 6 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 06 March 2012
(फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार

76.    जब आप अकेले हो जाएँगे, तब भगवान् की कृपा से ही भगवान् को जान लेंगे। प्यारे, कोई भी प्रेमी अपने प्रेमपात्र से किसी के सामने नहीं मिलता, तो फिर जबतक आप शरीर आदि अनेक सम्बन्धियों को साथ लिए हुए हैं, आपका प्रेमपात्र आपसे कैसे मिल सकता है ? भगवान् कैसे हैं ? यदि यह जानना चाहते हो तो अकेले हो जाओ ।

77.    किसी को बुलाओ मत; क्योंकि जो आपका है, वह आपके बिना रह नहीं सकता अर्थात् अपने प्रेमपात्र को निरन्तर अपने में ही अनुभव करो । .......... अपने सिवाय अपने लिए अपने से भिन्न की आवश्यकता नहीं है ।

78.    ईश्वर-प्राप्ति के लिए वनमें जाने की जरूरत नहीं है । जो घर में आराम से रहकर भजन नहीं कर सकता, वह वनमें कष्ट सहकर कैसे कर सकता है ? वनमें रहना तो तप के लिए आवश्यक होता है ।

79.    जिसके मन में शरीर को बनाये रखने की रूचि है, जो शरीर को ही अपना स्वरूप मानता है, वह ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता ।

80.    परमात्मा है तो, पर न जाने कब मिलेगा ? अरे भले आदमी, जब तुम कहते हो कि सदैव है, सर्वत्र है, सभी का है; तो कब मिलेगा कि अभी मिला है ? कितने आश्चर्य की बात है! इससे बड़ा और कोई पागलपन हो सकता है क्या, यह सोचना कि न जाने परमात्मा कब मिलेगा ? जबकि परमात्मा से आप कभी अलग हो सकते नहीं, हैं नहीं ।

81.    जिसको तुम प्राप्त करना चाहते हो, उसकी आवश्यकता अनुभव करो । उसको बलपूर्वक पकड़ने की कोशिश मत करो, केवल आवश्कता अनुभव करो । 

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्त हृदयोद्गार' पुस्तक से ।

Monday 5 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 05 March 2012
(फल्गुन शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार

69.    हमें उसको प्राप्त करना है कि जिसका हम त्याग कर ही नहीं सकते ।

70.    संसार परमात्मा की प्राप्ति में बाधक नहीं है, बल्कि सहायक है । उसका जो हम सम्बन्ध स्वीकार करते हैं, वही बाधक है ।

71.    जगत् की सत्ता स्वीकार करके भगवान् को प्राप्त करना चाहते हैं ? नहीं कर सकते । होगा क्या ? भगवान् आयेंगे, लेकिन आप कहेंगे कि मेरी स्त्री बीमार है, अच्छी हो जाय । भगवान् को प्राप्त करना चाहते थे कि स्वस्थ स्त्री को देखना चाहते थे ? जरा सोचिए ।
  
72.    अगर आप कभी भी यह अनुभव करें, कभी भी मानें कि शरीर अलग हो जाएगा, तो अभी मान लीजिए कि अभी अलग है। और इस बात में विश्वास करें कि कभी भी परमात्मा मिल जाएगा, तो अभी मान लीजिए कि अभी पास है, अभी भी मिला है।   

73.    परमात्मा से आप तो मिल सकते हैं, लेकिन शरीर द्वारा नहीं मिल सकते । आप अपने द्वारा मिल सकते हैं । हाँ, शरीर द्वारा परमात्मा की सृष्टि का कार्य कर सकते हैं ।     

74.    भगवान् क्या कोई खेती है कि आज बोयेंगे तो कल उपजेगा और परसों मिलेगा ? क्या भगवान् कोई वृक्ष है, जिसे आज लगायेंगे तो बारह वर्ष में फल लगेगा ? भगवान् ऐसी चीज नहीं है । भगवान् तो वर्तमान में भी ज्यों-का-त्यों मौजूद है ।

75.    सत्य का मार्ग इतना तंग है कि उसपर आप अकेले ही जा सकते हैं । इसलिए इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि के साथ रहने का मोह छोड़ दें । इनके साथ रहकर आप उस तंग रास्ते पर नहीं चल सकते । अकेले होने पर मार्ग अपने-आप दिखाई देगा ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्त हृदयोद्गार' पुस्तक से ।

Sunday 4 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 04 March 2012
(फाल्गुन शुक्ल आमलकी एकादशी, वि.सं.-२०६८, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार

63.    वे (संसार के रचयिता) अपनी वस्तु को सदैव देखते रहते हैं। उन्होंने कभी भी तुम्हें अपनी आँख से ओझल नहीं किया । ........... साधक भले ही उन्हें भूल जाय, पर वे नहीं भूलते। ........... जिसकी जो वस्तुएँ हैं, उसे वह देखता ही है, सम्भालता ही है । ............ अपनी रचना से क्या रचयिता अपरिचित होता है? कदापि नहीं ।  
      
64.    भगवान् का कोई एक ठिकाना नहीं है । ऐसा नहीं है कि संसार अलग हो, तत्वज्ञान अलग हो, भक्ति अलग हो और भगवान् अलग हो । सब मिलकर जो चीज है, उसी का नाम भगवान् है ।
             
65.    जो किसी का नहीं तथा जिसका कोई नहीं, उसके भगवान् अपने-आप हो जाते हैं; क्योंकि वे अनाथ के नाथ हैं ।

66.    भगवान् के होकर 'भगवान् का स्वरूप क्या है ?' यह प्रश्न क्या अर्थ रखता है ? गहराई से देखिए, प्यासने कभी नहीं पूछा, 'पानी क्या है ?' भूख ने किसी से नहीं पूछा, 'भोजन क्या है?' पानी पाकर प्यास तृप्त हो गई, भोजन पाकर भूख तृप्त हो गई। तृप्ति होनेपर पानी और प्यास की भिन्नता तथा भूख और भोजन की भिन्नता शेष नहीं रहती ।

67.    जब हम अपने में शरीर-भाव का अभिनय स्वीकार करते हैं, तब हमारे प्यारे (प्रभु) विश्वरूप होकर लीला करते हैं । शरीर होकर किसी भी खिलाड़ी (प्राणी) ने विश्व से भिन्न कुछ नहीं जाना । .......... हम शरीर बनकर तो केवल उनको विश्वरूप में ही देख सकते हैं ।
 
68.    ईश्वर मानव की स्वाधीनता छिनना नहीं चाहता, इसलिए मानव जबतक स्वयं अपनी ओर से ईश्वर के सम्मुख नहीं होता, तबतक ईश्वर उसके पीछे ही रहता है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्त हृदयोद्गार' पुस्तक से ।

Saturday 3 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 03 March 2012
(फाल्गुन शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार 

56.    जिस समय अपने दोष का दर्शन हो जाय, समझ लो कि तुम जैसा विचारशील कोई नहीं । और जिस समय परदोष-दर्शन हो जाय, उस समय समझ लो कि हमारे जैसा कोई बेसमझ नहीं ।

57.    अपने दोष का दर्शन अपने को निर्दोष बनाने में समर्थ है और परदोष-दर्शन अपने को दोषी बनाने में हेतु है ।

58.    भगवान् के खिलाफ जो आवाज उठती है न, वह तर्क से नहीं उठती है । वह आवाज उठती है भगवान् को माननेवालों के दुश्चरित्र से, और कोई बात नहीं है । भगवान् को माननेवाले अगर ठीक आदमी हों तो भगवान् के खिलाफ कोई बोल ही नहीं सकता ।

59.    परमात्मा को 'अभी' न मानना बड़ी भारी भूल होगी, 'अपना' न मानना उससे बड़ी भूल होगी, और 'अपने में' न मानना सबसे बड़ी भूल होगी ।

60.    प्रभु अपने में हैं, अभी हैं और अपने हैं - इससे परमात्मा मिल जाएँगे ।

61.    याद रहे, और कुछ भी अपना है और परमात्मा भी अपना है - ये दोनों बातें एक साथ नहीं होतीं । जबतक हम और कुछ भी अपना मानते हैं, तबतक तो मुख से कहते हुए भी हमने सच्चे हृदय से भगवान को अपना नहीं माना । यही इसकी पहचान है।

62.    सर्वसमर्थ प्रभु साधक का भूतकाल नहीं देखते । उसकी वर्तमान वेदना से ही करुणित हो अपना लेते हैं ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्त हृदयोद्गार' पुस्तक से ।

Friday 2 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 02 March 2012
(फाल्गुन शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)
     
सन्त हृदयोद्गार 

50.    प्रिय-से-प्रिय वस्तु तथा व्यक्ति का त्याग गहरी नींदके किए भला किसने नहीं किया?

51.    ईश्वर, धर्म और समाज किसी के ॠणी नहीं रहते । जो इनके लिए त्याग करते हैं, उनका ये अवश्य निर्वाह करते हैं ।

52.    त्याग हो जाने पर त्याग का भास नहीं रहता; क्योंकि त्याग की स्मृति अथवा उसका अस्तित्व तभी तक प्रतीत होता है, जबतक त्याग होता नहीं ।

53.    इन तीन बातों से सारे जीवन की समस्याएँ हल हो जाती हैं - १) मुझे कुछ नहीं चाहिए, २) प्रभु अपने हैं, ३) सब कुछ प्रभु का है । यही जीवन का सत्य है। इसको स्वीकार करने से उदारता, स्वाधीनता और प्रेम प्राप्त होगा ।

54.    ध्यान किसी का नहीं करना है । किसी का ध्यान नहीं करोगे तो परमात्मा का ध्यान हो जाएगा । और किसी का ध्यान करोगे तो वह फिर किसी और का ही ध्यानमात्र रह जाएगा ।

55.    अगर परमात्मा के माननेवालों को परमात्मा की याद नहीं आती, और करनी पड़ती है - यह कोई कम दुःख की बात है ? यह कम आश्चर्य की बात है ? अरे, मरे हुए बुजुर्गों की याद आती है आपको, गये हुए धन की याद आती है आपको ! तो परमात्मा इतना घटिया हो गया कि उसकी याद आपको करनी पड़े? .......... याद नहीं आती है इसलिए कि आप उसे अपना नहीं मानते ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्त हृदयोद्गार' पुस्तक से ।