Monday 20 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Monday, 20 April 2015 
(वैशाख शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०७२, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

यह सभी का अनुभव है कि अपराध करने पर जब उसे भय होता है, तब उसमें स्वभाव से ही यह संकल्प उत्पन्न होता है कि  'अब मैं भूल नहीं करूँगा' । इस स्वाभाविक प्रेरणा से यह सिद्ध हो जाता है कि अपराध करने से पूर्व व्यक्ति निरपराध था और अब भी निरपराध रहना चाहता है । आदि और अन्त में निर्दोषता ही निर्दोषता है । मध्य में उत्पन्न किये दोषों के आधार पर आदि और अन्त में सदैव रहने वाली निर्दोषता मिट नहीं सकती । यदि किसी प्रकार निर्दोषता मिट जाती, तो जीवन में उसकी माँग ही न होती । किन्तु निर्दोषता की माँग मानव-मात्र के जीवन में रहती है ।

अब यदि कोई यह कहे कि निर्दोषता तो थी ही, तो फिर दोषों की उत्पत्ति ही क्यों हुई ? इस समस्या पर विचार करने से ऐसा विदित होता है कि समस्त दोषों की उत्पत्ति का कारण विवेक-विरोधी कर्म, सम्बन्ध तथा विश्वास को अपनाना है, जो वास्तव में जाने हुए असत् का संग है । असत् के संग से ही अकर्त्तव्य की उत्पत्ति होती है; किन्तु प्राकृतिक विधान के अनुसार अकर्त्तव्य के अन्त में स्वभाव से ही कर्त्तव्य की माँग जाग्रत होती है । इससे यह स्पष्ट विदित हो जाता है कि व्यक्ति ने जाने हुए असत् को अपनाकर इस को जन्म दिया है । यदि जाने हुए असत् का त्याग कर दिया जाय, तो सदा के लिए अकर्त्तव्य का नाश अपने आप हो जाता है । अकर्त्तव्य का नाश हो जाने पर ही उसके कारण का यथेष्ट ज्ञान होता है । अकर्त्तव्य के रहते हुए उसके कारण का ज्ञान सम्भव नहीं है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 33-34)

Sunday 19 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Sunday, 19 April 2015 
(वैशाख शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०७२, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

वर्तमान की निर्दोषता को स्वीकार किए बिना किसी के जीवन में निर्दोषता की अभिव्यक्ति हो ही नहीं सकती । यह सभी का अनुभव है कि सर्वांश में तो कोई अपने को दोषी मानता ही नहीं । गुण और दोष-युक्त स्वीकृति सभी में स्वभाव से ही होती है । दोष की स्वीकृति भूतकाल की घटनाओं के आधार पर और गुणों की स्वीकृति स्वभाव-सिद्ध होती है । यदि मानव अपने में से किए हुए दोषों के त्याग का महावत लेकर केवल स्वभाव-सिद्ध निर्दोषता को स्वीकार करे, तो गुण-दोष-युक्त द्वन्द्वात्मक स्थिति का नाश हो जाता है, जिसके होते ही अहम्-भाव रूपी अणु सदा के लिए मिट जाता है और फिर एकमात्र निर्दोषता ही निर्दोषता रह जाती है, जो पहले भी थी, अब भी है और सदैव रहेगी ही ।

जो नष्ट होती है, वह निर्दोषता नहीं है । जो सदैव रहती है, वही निर्दोषता है । दोषों की उत्पत्ति होती है । निर्दोषता अनुत्पन्न है । देहाभिमान के कारण अनुत्पन्न निर्दोषता पर व्यक्ति दोषों का आरोप कर बैठता है । देहाभिमान अविवेक-सिद्ध है, वास्तविक नहीं । निर्दोषता की माँग कामनाओं को खाकर स्वत: देहाभिमान को नष्ट कर देती है । इस दृष्टि से निर्दोषता की माँग में ही निर्दोषता की प्राप्ति निहित है ।

देहाभिमान के कारण किए हुए दोषों के आधार पर नित्य-प्राप्त निर्दोषता से दूरी तथा भेद स्वीकार कर, बेचारा व्यक्ति अपने को दोषी मान लेता है । उसका परिणाम यह होता है कि निर्दोष काल में भी भूतकाल के दोषों की स्मृति से भयभीत होकर अपने को दोषी मान लेता है और निर्दोष होने की लालसा को पूरा करने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रयास करता है । किन्तु अपने को दोषी मानने के कारण उसके प्रयास निष्फल होते हैं । अपने को दोषी मान लेने पर दोषयुक्त प्रवृत्ति में स्वाभाविकता और निर्दोषता में अस्वाभाविकता मानने लगता है । परन्तु जब निज-विवेक के प्रकाश में वर्तमान वस्तुस्थिति का अध्ययन करता है, तब उसे यह स्पष्ट विदित हो जाता है कि जिन दोषों की स्मृति आ रही है, वे भूतकाल में किए थे ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 32-33)

Saturday 18 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Saturday, 18 April 2015 
(वैशाख कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०७२, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

जब मानव अपनी और दूसरों की वर्तमान निर्दोषता को स्वीकार कर लेता है, तब उसे भूतकाल में किये हुए दोषों को त्याग करने में बड़ी ही सुगमता हो जाती है । यह नियम है कि जिसमें से अपराधी भाव का अन्त हो जाता है, उसमें निर्दोषता की अभिव्यक्ति स्वत: होने लगती है । अर्थात् निर्दोषता का प्रभाव उसके शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि पर होने लगता है और फिर उसके दैनिक जीवन से समाज में निर्दोषता फैलने लगती है । निर्दोषता की स्वीकृति में ही निर्दोषता की व्यापकता विद्यमान है । इस रहस्य को जान लेने पर मानवमात्र बड़ी ही सुगमता पूर्वक निर्दोषता से अभिन्न हो सकता है ।

अब यदि कोई यह कहे कि अपने को निर्दोष मानने से तो मिथ्या अभिमान की उत्पत्ति होगी, जो स्वयं बहुत बड़ा दोष है । पर बात ऐसी नहीं है । अभिमान की उत्पत्ति तो तब होगी, जब अपने को निर्दोष और दूसरों को दोषी मानें । जिसने सभी की निर्दोषता स्वीकार की है, उसमें समता की अभिव्यक्ति होगी, अभिमान की नहीं । समता योग है, अभिमान भोग है । यह सभी को मान्य होगा कि भोग की सिद्धि विषमता में है, समता में नहीं । अपने को दोषी और दूसरों को निर्दोष तथा दूसरों को दोषी और अपने को निर्दोष मानना विषमता है । विषमता का नाश सभी में निर्दोषता की स्थापना करते ही स्वत: हो जाता है । विषमता के नष्ट होते ही भोग 'योग' में विलीन हो जाता है । योग सामर्थ्य का प्रतीक है । सामर्थ्य के आते ही जो नहीं करना चाहिए, उसकी उत्पत्ति ही नहीं होती और जो करना चाहिए, वह स्वत: होने लगता है अथवा यों कहो कि दोष की उत्पत्ति ही नहीं होती और निर्दोषता जीवन में ओत-प्रोत होकर अपने आपको स्वयं प्रकाशित करने लगती है । निर्दोषता की माँग जीवन की माँग है । इस माँग को किसी भी प्रकार मिटाया नहीं जा सकता । जिसको मिटाया नहीं जा सकता, उसकी पूर्ति अनिवार्य है । भूतकाल के किए हुए दोषों के आधार पर वर्तमान की निर्दोषता को अस्वीकार करना, दोषों को जन्म देना है और वर्तमान की निर्दोषता को स्वीकार करना दोषों के अस्तित्व को ही समाप्त कर देना है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 31-32)

Friday 17 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Friday, 17 April 2015 
(वैशाख कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०७२, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

भूतकाल के दोषों की स्मृति ने ही वर्तमान की ‘निर्दोषता' को ढक दिया है । यदि भूतकाल की स्मृति के आधार पर किए हुए दोष को न दोहराने का महाव्रत ले लिया जाए, तो स्मृति से असहयोग करने की सामर्थ्य आ जाती है और अपने में से अपराधी-भाव का विनाश हो जाता है, जिसके होते ही वर्तमान की निर्दोषता का स्पष्ट बोध हो जाता है और फिर उसका प्रभाव शरीर इन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि आदि पर स्वत: होने लगता है । इतना ही नहीं उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति निर्दोषता से युक्त होने लगती है, जिससे समाज में निर्दोषता विभु हो जाती है । उसके न चाहने पर भी उसे आदर तथा प्यार मिलने लगता है; क्योंकि निर्दोषता की माँग मानवमात्र को है । उसका जीवन दोष-युक्त, प्राणियों को निर्दोष बनाने में पथ-प्रदर्शन करता है ।

अपनी निर्दोषता को सुरक्षित रखने के लिए दूसरों को दोषी न मानना अनिवार्य है । प्राकृतिक नियम के अनुसार किसी को बुरा समझना सबसे बड़ी बुराई है; क्योंकि किसी को बुरा समझने का परिणाम उसकी वर्तमान निर्दोषता में बुराई की दृढ़ स्थापना करना है । किसी को बुरा मानना बुराई को व्यापक कर देना है । की हुई बुराई सीमित है, असीम नहीं । किन्तु किसी को बुरा मानकर तो बुराई की उत्तरोत्तर वृद्धि ही करना है । किसी का बुरा चाहना बुराई करने की अपेक्षा कहीं अधिक बुराई है, और किसी को बुरा समझना बुरा चाहने की अपेक्षा भी कहीं अधिक बुराई है । इस कारण किसी को बुरा समझने के समान और कोई बुराई हो ही नहीं सकती । जो किसी को बुरा समझता है, उसके जीवन में से अशुद्ध संकल्पों का नाश ही नहीं होता । अशुद्ध संकल्पों की उत्पत्ति अशुद्ध कर्म को जन्म देती है । अतः दूसरे को बुरा समझकर कोई भी व्यक्ति अशुद्ध कर्म से बच नहीं सकता । इस दृष्टि से दूसरों को बुरा समझना अपने को बुरा बनाने में मुख्य हेतु है । किसी को बुरा समझने का किसी भी मानव को कोई अधिकार नहीं है । इतना ही नहीं, यहाँ तक कि कोई स्वयं ही अपनी बुराई स्वीकार करे, तब भी उससे उसकी वर्तमान निर्दोषता की चर्चा करते हुए उसे यह विश्वास दिलाना चाहिए कि वर्तमान सभी का निर्दोष है । हाँ, यह अवश्य है कि वर्तमान की निर्दोषता को सुरक्षित रखने के लिए किये हुए दोषों का त्याग अनिवार्य है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 30-31)

Thursday 16 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Thursday, 16 April 2015 
(वैशाख कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७२, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

दूसरों के प्रति उत्पन्न हुई घृणा समीपता में भी दूरी उत्पन्न कर देती है, अर्थात् बाह्य दृष्टि से दो व्यक्ति, दो वर्ग, दो देश समीप रहते हुए भी, आन्तरिक दृष्टि से एक दुसरे से दूर होते जाते हैं । इसका परिणाम बड़ा ही भयंकर होता है । परस्पर बैर-भाव की बड़ी ही गहरी खाई बन जाती है । वैर-भाव अपने और दूसरे के विनाश में हेतु है और समस्त संघर्षो का मूल है । वैर-भाव व्यक्ति के मस्तिष्क को इतना अस्वस्थ कर देता है कि वह वस्तुस्थिति का यथेष्ट परिचय नहीं कर पाता । उसे विपक्षी में दोष ही दोष प्रतीत होने लगते हैं । यह द्वेष की महिमा है कि गुण का दर्शन नहीं होने देता । यह नियम है कि किसी का द्वेष किसी का राग बन जाता है । जिस प्रकार द्वेष गुण का दर्शन नहीं होने देता, उसी प्रकार राग दोष का दर्शन नहीं होने देता । वैर-भाव अपना दोष और विपक्षी का गुण देखने नहीं देता ।

अपने दोष को जाने बिना उसका त्याग नहीं होता और दूसरे के गुण को जाने बिना उससे एकता नहीं हो सकती । इस कारण वैर-भाव कभी भी न तो परस्पर एकता ही होने देता है और न संघर्ष का नाश ही । वैर-भाव के समान और कोई अपना वैरी नहीं है, जिसकी उत्पत्ति दूसरों को बुरा समझने से होती है । अत: किसी को बुरा समझना अपना बुरा करना है । यदि मानव निर्दोष होना चाहता है, तो उसे अपने को और दूसरों को वर्तमान में निर्दोष मानना ही पडेगा; क्योंकि यह विवेक-सिद्ध है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 29-30)

Wednesday 15 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Wednesday, 15 April 2015 
(वैशाख कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०७२, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

अपने को अथवा दूसरों को बुरा समझने का एकमात्र कारण भूतकाल की घटनाओं के आधार पर वर्तमान की निर्दोषता को आच्छादित कर देना है । क्योंकि कोई भी व्यक्ति सर्वांश में कभी भी बुरा नहीं होता और न सभी के लिए बुरा होता है । बुराई उत्पत्ति-विनाश-युक्त है, नित्य नहीं । जो नित्य नहीं है, उससे नित्य सम्बन्ध सम्भव नहीं है । ऐसी दशा में अपने को अथवा दूसरों को सदा के लिए बुरा मान लेना प्रमाद के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।

वर्तमान सभी का निर्दोष हैयह सभी का अनुभव है । जब हम अपने किसी भी दोष की चर्चा करते हैं, तब यह मानना ही पड़ता है कि वह दोष भूतकाल का है । वर्तमान में तो किए हुए दोष की स्मृति हैदोष-युक्त प्रवृत्ति नहीं। किसी प्रवृत्ति की स्मृति किसी का स्वरूप नहीं है । जो स्वरूप नहीं हैउसको अभेद भाव से अपने अथवा दूसरों में आरोप करनाक्या न्याययुक्त निर्णय है कदापि नहीं । अतः अपने को अथवा दूसरों को वर्तमान में बुरा समझना विवेक-विरोधी निर्णय है । इस निर्णय से अपने में अपराधी-भाव दृढ़ होता है और दूसरों के प्रति घृणा उत्पन्न होती है । अपराधी-भाव आरोपित करकोई भी निरपराध नहीं हो सकताक्योंकि जैसा अहम् भाव होता है, वैसी ही प्रवृत्ति होती है । अहम् प्रवृत्ति का मूल है अथवा यों कहो कि कर्त्ता ही कर्म के रूप में व्यक्त होता है । इस दृष्टि से अशुद्ध कर्त्ता से शुद्ध कर्म की उत्पत्ति सम्भव ही नहीं है । शुद्ध कर्म शुद्ध कर्त्ता से  ही होता है । कर्म की शुद्धि तभी हो सकती हैजब कर्त्ता शुद्ध हो जाए । अत: कर्म की शुद्धि के लिए कर्त्ता में शुद्धता की प्रतिष्ठा करना अनिवार्य हैजो वास्तव में विवेक-सिद्ध है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 28-29) ।

Tuesday 14 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Tuesday, 14 April 2015 
(वैशाख कृष्ण दशमीं, वि.सं.-२०७२, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

अधिकार-लालसा का नाश होने पर अपना अस्तित्व ही न रहेगा, उद्देश्य की पूर्ति ही न होगी, निर्वाह होना भी दुर्लभ हो जाएगा, अथवा निर्वाह नहीं होगा - ये सभी बातें निर्मूल हैं । अधिकार का त्याग असंगता और अभिन्नता प्रदान करता है । असंगता दिव्य-जीवन से और अभिन्नता परम प्रेम से अभिन्न कर देती है, जो मानवमात्र की माँग है । इतना ही नहीं, अधिकार का त्याग विपक्षी में कर्त्तव्य की भावना जाग्रत करता है । यह नियम है कि भाव-शुद्धि में ही कर्म की शुद्धि निहित है । कर्म सीमित और भाव असीम है । भाव के अनुरूप कर्म भाव में सजीवता लाता है और शुद्ध भावना कर्म को शुद्ध बनाती है । अधिकार के त्याग से ही परस्पर एकता और समाज में कर्त्तव्यपरायणता का प्रादुर्भाव होता है । इस दृष्टि से अधिकार-त्याग ही सुन्दर समाज के निर्माण में हेतु है ।

अधिकार-लालसा से रहित प्राणी को किसी भी परिस्थिति में किसी से भी भय नहीं होता और न उससे किसी को भय होता है । भय का आदान-प्रदान अधिकार-लोलुप प्राणियों में ही होता है । भय-युक्त जीवन किसी को प्रिय नहीं है। प्राकृतिक विधान के अनुसार अधिकार-रहित प्राणियों की रक्षा स्वतः होती है और अधिकार-अपहरण करने वालों का नाश अवश्यम्भावी है । इस मंगलमय विधान का आदर करने पर दूसरों के अधिकार की रक्षा और अपने अधिकार के त्याग की अभिरुचि स्वत: जाग्रत होती है, जो विकास का मूल है । इस दृष्टि से अधिकार की अपेक्षा कर्त्तव्य को ही महत्व देना है अथवा यों कहो कि कर्त्तव्य में ही अपना अधिकार है । अधिकार-लालसा से युक्त कर्त्तव्य केवल व्यापार मात्र है अथवा यों कहो कि पशुता है । अधिकार-शून्य कर्त्तव्य ही कर्त्तव्य है । जो मानव अधिकार त्याग कर कर्त्तव्य का पालन करते हैं, वे न्याय को प्रेम में विलीन कर सर्वोत्कृष्ट उद्देश्य को प्राप्त करने में समर्थ होते हैं, यह निर्विवाद सत्य है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 27-28)

Monday 13 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Monday, 13 April 2015 
(वैशाख कृष्ण नवमीं, वि.सं.-२०७२, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

पारस्परिक भिन्नता ही परस्पर में वैमनस्य और संघर्ष को जन्म देती है । भिन्नता का एकमात्र कारण अपने अधिकार और दूसरे के कर्त्तव्य पर दृष्टि रखना है । यद्यपि किसी का अधिकार ही किसी का कर्त्तव्य है, परन्तु अपने अधिकार को सुरक्षित रखने में स्वाधीनता नहीं है, अपितु स्वाधीनता है दूसरों का अधिकार सुरक्षित रखने में । स्वाधीनता-सम्पादन का साधन भी स्वाधीन है । इस कारण अपने अधिकार पर दृष्टि रखना भूल है । वास्तव में तो अधिकार कर्त्तव्य का दास है । कर्त्तव्यनिष्ठ प्राणी की दृष्टि अपने अधिकार पर नहीं रहती, अपितु दूसरों के अधिकार पर रहती है । अधिकार की स्मृति कर्त्तव्य की विस्मृति में हेतु है । कर्त्तव्य की विस्मृति ही अकर्त्तव्य को जन्म देती है, जिसका मानव-जीवन में कोई स्थान ही नहीं है । अधिकार की पूर्ति में नवीन राग और अपूर्ति में क्षोभ तथा क्रोध की उत्पत्ति होती है, जिसके उत्पन्न होते ही उद्देश्य की विस्मृति अपने आप हो जाती है । उद्देश्य को भूलते ही कर्त्तव्य का ज्ञान आच्छादित हो जाता है । इस दृष्टि से अधिकार-लालसा ह्रास का मूल है।

अधिकार-लालसा का अन्त होते ही राग तथा क्रोध का नाश हो जाता है । क्रोध-रहित होते ही क्षमाशीलता, उदारता, स्नेह, निर्वैरता आदि दिव्य-गुणों की अभिव्यक्ति स्वतः होती है और राग-रहित होते ही स्वाधीनता अपने आप आ जाती है, जिसके आते ही अनुकूलता की दासता तथा प्रतिकूलता का भय अपने आप मिट जाता है और पक्षपात की गन्ध भी नहीं रहती । उसके न रहने से वाणी में सत्यता आ जाती है । उसका निर्णय सभी के लिए सदा हितकर सिद्ध होता है, जो वास्तविक न्याय है । अधिकार-लालसा में आबद्ध प्राणी कभी न्यायाधीश नहीं हो सकता । यही कारण है कि परस्पर समझौता होने पर भी एकता नहीं होती । संघर्ष कुछ काल के लिए दब भले ही जाए, उसका नाश नहीं होता । दबा हुआ संघर्ष अनेक रूप धारण कर प्रकट होता रहता है । जिस प्रकार किसी वृक्ष का मूल तथा बीज बने रहने पर वृक्ष बार-बार उगता ही रहता है, उसी प्रकार अधिकार-लालसा रहते हुए संघर्ष की उत्पत्ति होती ही रहती है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 26-27)

Sunday 12 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Sunday, 12 April 2015 
(वैशाख कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७२, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

न्याय की सफलता निर्दोषता की अभिव्यक्ति में है और जिस पद्धति द्वारा ऐसे न्याय को चरितार्थ किया जाता है, वही सुन्दर नीति है । वह न्याय, न्याय ही नहीं है, जो अपराधी को निरपराध बनाने में समर्थ न हो । न्याय से किसी का ह्रास नहीं होता, अपितु विकास ही होता है । न्याय भिन्नता को अभिन्नता में परिवर्तित कर पूर्ण होता है, अर्थात् न्याय दो को एक करता है, तभी न्याययुक्त जीवन से शान्ति की स्थापना होती है । इस दृष्टि से न्याय मानव-जीवन का मुख्य अंग है ।

न्याययुक्त प्राणियों से किसी के अधिकार का अपहरण नहीं होता; क्योंकि न्याय कर्त्तव्य की प्रेरणा देता है । कर्त्तव्य का फल विद्यमान राग की निवृत्ति है, किसी अन्य वस्तु की प्राप्ति नहीं । कर्त्तव्यनिष्ठ प्राणी के जीवन में कर्त्तव्य का ही महत्त्व है । यह नियम है कि विद्यमान राग-निवृत्ति के बिना न्याय को प्रेम में परिणत करने की सामर्थ्य ही नहीं आती । जो न्याय प्रेम में विलीन नहीं होता, वह भेद का अन्त करने में समर्थ नहीं है । भेद का अन्त हुए बिना न तो संघर्ष का ही नाश होता है और न शान्ति की स्थापना ही होती है । शान्ति के बिना सामर्थ्य की अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है और सामर्थ्य के बिना स्वाधीनता सुरक्षित नहीं रहती, जो सभी को अभीष्ट है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 25-26)

Saturday 11 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Saturday, 11 April 2015 
(वैशाख कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७२, शनिवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

आज मिले हुए बल के दुरुपयोग तथा अप्राप्त बल की कामना ने मानव को 'मानव’ नहीं रहने दिया, अर्थात् उसे विद्यमान मानवता से विमुख कर दिया है । बल का दुरुपयोग रोकने के लिए राष्ट्र, मत, सम्प्रदाय आदि का प्रादुर्भाव हुआ । किन्तु अपने पर अपने विवेक का शासन न रहने से कोई भी पद्धति सर्वांश में सफल न हुई । ऐसी दशा में यह अनिवार्य हो जाता है कि प्रत्येक मानव को निज-विवेक के प्रकाश में ही मिले हुए बल का सदुपयोग करना है, अर्थात् अपने प्रति स्वयं को ही न्याय करना परम आवश्यक है। इसके बिना न तो बल का सदुपयोग ही हो सकता है और न वर्तमान निर्दोषता ही सुरक्षित रह सकती है । इतना ही नहीं, किए हुए बल के दुरुपयोग का प्रभाव भी नहीं मिट सकता, जिसके बिना मिटे व्यर्थ-चिन्तन का नाश नहीं होता, उसके हुए बिना निश्चिन्तता तथा निर्भयता की अभिव्यक्ति नहीं होती ।

निश्चिन्तता के बिना चिर-विश्राम कहाँ ? और चिर-विश्राम के बिना वास्तविक जीवन में प्रवेश ही नहीं हो सकता । निर्भयता के बिना कर्त्तव्य को 'कर्त्तव्य' जानकर उसका पालन और अकर्त्तव्य को 'अकर्त्तव्य' जानकर उसका त्याग नहीं हो पाता । किसी भय से बुराई न करने पर भी बुराई का नाश नहीं होता; क्योंकि बुराई-जनित सुख का राग अंकित रहता है । किसी प्रलोभन से प्रेरित होकर किया हुआ कर्त्तव्य-कर्म चिर-विश्राम न देकर कर्त्तव्य के अभिमान तथा फलासक्ति में ही आबद्ध करता है । अत: अकर्त्तव्य को 'अकर्त्तव्य' और कर्त्तव्य को 'कर्त्तव्य' जानकर ही मानव कर्त्तव्य-परायण होकर चिर-विश्राम पाता है ।

चिर-विश्राम में ही मानव के उद्देश्य की पूर्ति निहित है; कारण, कि विश्राम प्राप्त होने पर वास्तविक जीवन से अभिन्नता स्वत: हो जाती है । पर यह तभी सम्भव होगा, जब मानव निज-विवेक के प्रकाश में ही मिले हुए बल का सदुपयोग करने की नीति को अपनाए । अतएव समस्त अभावों का अभाव एवं संघर्ष का अन्त करने के लिए बल की अपेक्षा विवेक को अधिक महत्व देना अनिवार्य है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 24-25)

Friday 10 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Friday, 10 April 2015 
(वैशाख कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०७२, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

सेवा भोग की रुचि को खा जाती है और सेवक के आवश्यक संकल्प उसके निर्विकल्प होने पर भी स्वत: पूरे हो जाते हैं; क्योंकि उसका अपना कोई संकल्प नहीं है । जिसका अपना कोई संकल्प है, वह सेवा नहीं कर सकता । यदि कोई यह कहे कि बल का उपयोग अपनी रक्षा में है । तो यह बात भी विवेक-विरोधी है; कारण, कि बल के द्वारा उससे अपनी रक्षा नहीं हो सकती, जिसमें समान बल है अथवा अधिक बल है । अत: यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि बल की अपेक्षा न अपनी रक्षा में है और न अपने विकास में । बलपूर्वक किया हुआ भोग ह्रास का हेतु है, विकास का नहीं । बल का सदुपयोग एकमात्र निर्बलों की आदर पूर्वक सेवा में ही है और बल का सम्पादन भी बल के सदुपयोग में ही निहित है । बल का सदुपयोग तभी सम्भव होगा, जब मानव यह स्वीकार करे कि मिला हुआ बल निर्बल की धरोहर मात्र है, अपना नहीं है; क्योंकि अपने लिए बल की अपेक्षा ही नहीं है ।

प्राकृतिक नियम के अनुसार बल का अत्यन्त अभाव किसी भी व्यक्ति के जीवन में नहीं है, अर्थात् कुछ-न-कुछ बल सभी को मिला है । यदि ऐसा न होता, तो जीवन में कुछ भी करने का प्रश्न ही उत्पन्न न होता । जब मानव कुछ कर सकता है, तभी करने का प्रश्न उत्पन्न हुआ है । मिले हुए बल का भोग में व्यय करने से बल का ह्रास और परिणाम में अभाव; सेवा में व्यय करने से आवश्यक बल की अभिव्यक्ति और परिणाम में चिर-विश्राम है । इस दृष्टि से यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि मिला हुआ बल सेवा के लिए है, अपने लिए नहीं । अपने लिए तो एकमात्र चिर-विश्राम ही अपेक्षित है । चिर-विश्राम के सम्पादन के लिए ही सब कुछ करने का प्रश्न है और यही अपने पर दायित्व है । विश्राम का अपहरण किसी अन्य के द्वारा नहीं होता, अपितु अपने ही प्रमाद से होता है । बेचारा बल का अभिमानी चिर-विश्राम नहीं पाता । चिर-विश्राम उसी को मिलता है, जिसके जीवन में प्राप्त बल का दुरुपयोग और अप्राप्त बल की कामना नहीं है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 23-24)

Thursday 9 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Thursday, 09 April 2015 
(वैशाख कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७२, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

जो हो रहा है, उसे कोई रोक नहीं पाता; उसके न होने की बात सोचता भले ही रहे । असहयोग के बिना अनुकूलता की दासता और प्रतिकूलता का भय नाश नहीं होता और उसका बोध भी नहीं होता, जिसकी सत्ता से सब कुछ हो रहा है ।

असहयोग का अर्थ द्वेष तथा घृणा नहीं है । जिससे अपना कोई प्रयोजन नहीं है, उससे विमुख होना ही असहयोग है । अपना प्रयोजन किससे नहीं है ? जिससे जीवन उपयोगी सिद्ध न हो । जिसका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, उसके सहयोग से जीवन उपयोगी सिद्ध नहीं होता । स्वतन्त्र अस्तित्व किसका नहीं है ? जो हो-होकर मिट रहा है । यही 'हो रहा है' का अर्थ है ।
         
          विश्व की वस्तु को व्यक्तिगत मान लेना विवेक-विरोधी मान्यता है । इस मान्यता से न तो अपना ही विकास होता है और न सुन्दर समाज का निर्माण ही । इस विवेक-विरोधी मान्यता का मानव-जीवन में कोई स्थान ही नहीं है । इस मान्यता का अन्त होते ही व्यक्ति समाज के अधिकार का पुंज रह जाता है और समाज व्यक्ति की सेवा का क्षेत्र बन जाता है । सेवा, व्यक्ति और समाज में वास्तविक एकता स्थापित करने में समर्थ है । सेवा का मूल मन्त्र है - उदारता, जो करुणा और प्रसन्नता के स्वरूप में प्रकट होकर व्यक्ति और समाज में अनुपम अभिन्नता उत्पन्न कर देती है ।

समाज उदार व्यक्तियों के बिना कभी अपने, को सुन्दर नहीं पाता । सुन्दर समाज को राष्ट्र की आवश्यकता नहीं होती । मिले हुए बल के दुरुपयोग से ही राष्ट्र की आवश्यकता का अनुभव हुआ है । बल का दुरुपयोग विवेक के अनादर में निहित है । अत: विवेकपूर्वक बल का सदुपयोग करने मात्र से ही संघर्ष का अन्त हो सकता है । इस दृष्टि से बल की अपेक्षा विवेक को अधिक महत्त्व देना अनिवार्य है । बल का उपयोग अपने अथवा दूसरों के संकल्प की पूर्ति में ही होता है । अपने संकल्प की पूर्ति का सुख नवीन संकल्प को जन्म देता है और दूसरों के संकल्प की पूर्ति 'करने के राग' की निवृत्ति में हेतु है । जिसे संकल्प-पूर्ति में जीवन-बुद्धि अनुभव नहीं होती, उसे किसी भी बल की अपेक्षा नहीं रहती । इसका अर्थ यह नहीं है कि वह निर्बल हो जाता है, अपितु उसका प्रवेश बल से अतीत के जीवन में हो जाता है । बल का सदुपयोग एकमात्र निर्बलों की सेवा में ही है, भोग में नहीं ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 22-23)

Wednesday 8 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Wednesday, 08 April 2015 
(वैशाख कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०७२, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

उस प्रीतम ने अपने को छिपाया; किन्तु अपने मंगलमय विधान से मानव को विवेक प्रदान किया, जिसके प्रकाश में बुद्धि-दृष्टि तथा इन्द्रिय-दृष्टि कार्य करती है । निज-विवेक मंगलमय विधान का प्रतीक है । जो मानव मिले हुए बल का विवेक के प्रकाश में उपयोग करते हैं, उन्हें कर्त्तव्यपरायणता प्राप्त होती है और उनका जीवन जगत् के लिए उपयोगी सिद्ध होता है । इस दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट वही है, जिससे व्यक्ति का जीवन समाज के लिए उपयोगी सिद्ध हो । जिसका जीवन जगत् के लिए उपयोगी सिद्ध होता है, उसका जीवन अपने लिए तथा अनन्त के लिए भी उपयोगी सिद्ध होता है ।

जब तक मानव विश्व से प्राप्त वस्तु को व्यक्तिगत मानता है, तब तक उसका जीवन जगत् के लिए उपयोगी सिद्ध नहीं होता; क्योंकि प्राप्त वस्तुओं की ममता उसकी उदारता को आच्छादित कर, उस बेचारे को लोभ, मोह आदि विकारों में आबद्ध कर देती है । उसका परिणाम यह होता है कि वह अप्राप्त वस्तुओं की कामनाओं में उलझ जाता है, जिससे प्रत्येक कार्य के अन्त में अपने आप आने वाली शान्ति भंग हो जाती है । शान्ति के भंग होने से आवश्यक सामर्थ्य का सम्पादन नहीं हो पाता, अर्थात् असमर्थता आ जाती है । जिसके आते ही जो करना चाहिए, वह कर नहीं पाता और जो नहीं करना चाहिए, उसे कर बैठता है; जिसमें प्रीति होनी चाहिए, उसमें प्रीति नहीं होती और जिसमें आसक्ति नहीं रहनी चाहिए, उसमें आसक्ति हो जाती है । इतना ही नहीं, प्राकृतिक विधान के अनुसार जो स्वत: हो रहा है, उससे वह असहयोग नहीं कर पाता, जिसके किए बिना जो नित्य प्राप्त है, उसमें प्रीति नहीं होती । अथवा यों कहो कि उससे योग नहीं होता अथवा उसका बोध नहीं होता, जिससे सब कुछ प्रकाशित है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 21-22)

Tuesday 7 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Tuesday, 07 April 2015 
(वैशाख कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०७२, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

बल का दुरुपयोग करते ही विरोधी शक्ति का प्रादुर्भाव हो जाता है । उसका परिणाम यह होता है कि जो अपने को सबल मानता था, वही निर्बल हो जाता है और फिर उसके प्रति वही होने लगता है, जो उसने अन्य के प्रति किया था । इस प्रकार परस्पर में उन्नति के नाम पर संघर्ष होते रहते हैं, जो वास्तव में अवनति के हेतु हैं । जब समस्त विश्व एक दृश्य है, तो जिस ज्ञान से सृष्टि की प्रतीति होती है, वह ज्ञान भी एक है । यदि ऐसा न होता तो, न तो विश्व की एकता सिद्ध होती और न उसके द्रष्टा की; और न यह सिद्ध होता कि सर्व का ज्ञाता एक है । सर्व के ज्ञान ने अपने ज्ञाता को नहीं जाना, अपितु समस्त विश्व को अपने ही ज्ञान से प्रकाशित किया और अपने ही किसी एक अंश में समस्त सृष्टि को स्थान देकर भिन्न-भिन्न प्रकार की रचना की ।

रचना के आधार पर विज्ञान-वेत्ताओं ने सृष्टि के उपयोग की अनेक पद्धतियाँ निर्मित कीं और उनका आश्रय लेकर भिन्न-भिन्न प्रकार के भोगों का सम्पादन किया; किन्तु वे भोग के भयंकर परिणाम से अपने को न बचा सके । ज्यों-ज्यों भोग-सामग्री का सम्पादन करते रहे, त्यों-त्यों भोग की रुचि सबल तथा स्थाई होती रही और ज्यों-ज्यों भोग की रुचि सबल होती गई त्यों-त्यों दीनता, अभिमान, पराधीनता आदि दुर्बलताएँ भी बढ़ती गईं । उन दुर्बलताओं की व्यथा से व्यथित होने पर अनन्त के मंगलमय विधान से जो प्रकाश मिला, उससे विश्व के प्रकाशक की ओर दृष्टि गई । उधर जाते ही वह प्रकाशक की प्रीति हो गई । उसी की अभिव्यक्ति जब बाह्य जीवन पर हुई, तब अनेक भेद होने पर भी प्रीति की एकता स्वत: परस्पर में रस प्रदान करने लगी, जिसको पाकर भोग की रुचि का नाश हो गया और फिर प्रीति और प्रीतम से भिन्न की सत्ता ही न रही ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 20-21)

Monday 6 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Monday, 06 April 2015 
(वैशाख कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०७२, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

प्राकृतिक नियम के अनुसार तो भिन्नता एकता-सम्पादन के लिए साधनरूप है, परन्तु व्यक्तित्व के मोह तथा अपनी-अपनी मान्यता की आसक्ति के कारण जो भिन्नता एकता-सम्पादन के लिए मिली थी, वह आज संघर्ष का कारण बन गई है । ऐसी भयंकर परिस्थिति में मानव-समाज को इन्द्रिय-ज्ञान से प्रतीत होने वाली भिन्नता में एकता का दर्शन बुद्धि-दृष्टि से विवेक के प्रकाश में करना अनिवार्य है ।

अनेकता में एकता का दर्शन करते ही उन सभी प्रवृत्तियों का स्वत: अन्त हो जाएगा, जिनसे निर्बलों के अधिकारों का अपहरण होता है । यह नियम है कि जो नहीं करना चाहिए, उसके न करने पर वह स्वत: होने लगता है, जो करना चाहिए । जिसके द्वारा किसी के अधिकार का अपहरण नहीं होता, उसके द्वारा दूसरों के अधिकार की रक्षा स्वत: होने लगती है । गतिशील जीवन में अवनति का निरोध होते ही उन्नति स्वत: होती है । उसी विकास का ह्रास होता है, जिसकी उत्पत्ति में किसी का विनाश निहित है ।

किसी की अवनति के द्वारा प्राप्त की हुई उन्नति अवनति ही है । आरम्भ में भले ही ऐसा प्रतीत होता है कि किसी की हानि में किसी का लाभ है; पर परिणाम में तो यही सिद्ध होगा कि किसी की हानि से उत्पन्न हुआ लाभ एक बड़ी हानि की तैयारी है । इसी भूल से दो देशों में, दो वर्गो में, दो व्यक्तियों में, दो मतों, सम्प्रदायों एवं विचार-धाराओं में परस्पर संघर्ष होता रहता है । यद्यपि सभी की माँग उन्नति की है; किन्तु उन्नति के नाम पर प्रीति के स्थान पर संघर्ष को जन्म देते हैं । जिस बल का उपयोग निर्बलों के विनाश में किया जाता है यदि उसी बल का उपयोग निर्बलों के विकास में किया जाए, तो क्या उन्नति न होगी ? अवश्य होगी । परन्तु बल के अभिमानी बल का सदुपयोग न करके उसका दुरुपयोग कर बैठते हैं ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 20)

Sunday 5 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Sunday, 05 April 2015 
(वैशाख कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०७२, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

आन्तरिक एकता के बिना बाह्य एकता कुछ अर्थ नहीं रखती । यदि बाह्य एकता का कोई विशेष मूल्य होता, तो एक ही मत, सम्प्रदाय और देश में परस्पर संघर्ष न होता । इतना ही नहीं, देखने में तो यहाँ तक आता है कि सहोदर भाई-बहिन, पति-पत्नी, पिता-पुत्र आदि में भी संघर्ष है । तो फिर किसी बाह्य एकता के आधार पर विश्व में संघर्ष नहीं होगा, ऐसी मान्यता केवल कल्पनामात्र प्रतीत होती है, वास्तविक नहीं ।

संघर्ष का मूल आन्तरिक भिन्नता है, बाह्य नहीं । अब यह विचार करना होगा कि आन्तरिक भिन्नता क्या है ? तो कहना होगा कि बाह्य भेदों के आधार पर प्रीति का भेद स्वीकार करना । जब तक अनेक भेद होने पर भी प्रीति की एकता को नहीं अपनाया जाएगा, तब तक आन्तरिक एकता सिद्ध न होगी और उसके बिना संघर्ष का अन्त सम्भव नहीं है ।

प्रत्येक साधन-प्रणाली के मूल में दार्शनिक दृष्टिकोण होता है । प्रीति की एकता भी एक साधन-प्रणाली है । उसके मूल में दार्शनिक तत्त्व क्या है ? समस्त विश्व एक है । उसमें स्वरूप की भिन्नता नहीं है; कारण, कि सारी सृष्टि एक ही धातु से निर्मित है । परन्तु इन्द्रिय-ज्ञान से उस एकता में अनेक प्रकार की भिन्नता का दर्शन होता है । जिस प्रकार किसी भी जल-कण को सागर से भिन्न नहीं कर सकते, अर्थात् प्रत्येक जल-कण जल-रूप ही है, उसी प्रकार किसी भी वस्तु तथा व्यक्ति को विश्व से विभक्त नहीं कर सकते । विश्व की दृष्टि से समस्त प्राणि-मात्र एक है । एक शरीर में भी प्रत्येक अवयव की आकृति तथा कर्म अलग-अलग हैं; किन्तु फिर भी शरीर के प्रत्येक अवयव में प्रीति की एकता है । कर्म में भिन्नता होने से प्रीति का भेद नहीं होता । इसके मूल में कारण यही है कि समस्त शरीर एक है । इस बात में किसी का विरोध नहीं है । उसी प्रकार यदि विश्व की एकता में आस्था कर ली जाए, तो भाषा, मत, कर्म, विचार-धारा, पद्धति, आकृति, रहन-सहन आदि में भिन्न-भिन्न प्रकार का भेद होने पर भी प्रीति की एकता सुरक्षित रह सकती है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 18-19)

Saturday 4 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Saturday, 04 April 2015 
(चैत्र पूर्णिमा, श्री हनुमान जयंती, वि.सं.-२०७२, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

निज-विवेक सूर्य के समान और बल नेत्र के समान है । जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से ही नेत्र यथेष्ट कार्य करता है, उसी प्रकार निज-विवेक के प्रकाश में प्राप्त बल का सद्व्यय होता है । परन्तु जब व्यक्ति बल को विवेक की अपेक्षा अधिक महत्व देने लगता है, तब बल का सदुपयोग नहीं हो पाता । उसका बड़ा ही भयंकर परिणाम यह होता है कि संघर्ष का जन्म हो जाता है । जो बल परस्पर में एकता के लिए मिला था, वह बल एक दूसरे के विनाश का हेतु बन जाता है । यद्यपि किसी को अपना विनाश अभीष्ट नहीं है, परन्तु फिर भी विवेक के अनादर तथा बल के अभिमान में आबद्ध होकर व्यक्ति विवेक-विरोधी कर्म करने लगता है ।

विवेक-विरोधी कर्म के कारण व्यक्ति कर्त्तव्य से विमुख हो जाता है । कर्त्तव्य से विमुख होते ही जीवन में अधिकार-लालसा और दूसरों के कर्त्तव्य की स्मृति उत्पन्न होती है, अर्थात् जीवन में पराधीनता आ जाती है । पराधीनता के आते ही जड़ता तथा अभाव में आबद्ध हो जाना अनिवार्य है । इस दृष्टि से कर्त्तव्य की विस्मृति में ही समस्त संघर्ष निहित है ।

मानव-जीवन में विवेक-विरोधी कर्म का कोई स्थान ही नहीं है; क्योंकि वह अपना जाना हुआ असत् है । अपने जाने हुए असत् के त्याग में ही अकर्त्तव्य का नाश है । यह नियम है कि अकर्तव्य का नाश होते ही कर्त्तव्य-परायणता अपने-आप आ जाती है, जिसके आते ही संघर्ष सदा के लिए मिट जाते हैं और अनेक बाह्य भेद होने पर भी आन्तरिक एकता प्राप्त होती है । एकता में ही शान्ति, सामर्थ्य  तथा स्वाधीनता निहित है । इस दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति, वर्ग, समाज तथा देश को आन्तरिक एकता प्राप्त करना अनिवार्य है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 18)

Friday 3 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Friday, 03 April 2015 
(चैत्र शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०७२, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

प्राकृतिक विधान के अनुसार किये हुए का फल किसी के लिए अहितकर नहीं होता, अपितु दुखद तथा सुखद होता है अथवा यों कहो कि व्यक्ति जो कुछ करता है, उससे सुख-दुःखयुक्त परिस्थिति उत्पन्न होती है । प्रत्येक परिस्थिति स्वभाव से ही परिवर्तनशील तथा अभावयुक्त है । जो अभावरहित तथा नित्य नहीं है, वह जीवन नहीं है । जो जीवन नहीं है, उससे न तो नित्य सम्बन्ध ही रह सकता है और न आत्मीयता ही हो सकती है । इस दृष्टि से सभी परिस्थितियाँ ऊपरी भेद होने पर भी समान ही अर्थ रखती हैं ।

प्राप्त परिस्थिति के सदुपयोग का दायित्व मानव पर है, उसके परिवर्तन की लालसा निरर्थक है । लालसा तो वही सार्थक है, जो परिस्थितियों से अतीत के जीवन में प्रवेश करा दे और जो नित्य प्राप्त में आत्मीयता प्रदान कर प्रियता की अभिव्यक्ति करने में समर्थ हो । परिस्थितियों से अतीत की लालसा की पूर्ति निर्दोषता में निहित है । अत: निर्दोषता को सुरक्षित रखने का दायित्व मानवमात्र पर है । दायित्व की पूर्ति और लक्ष्य की प्राप्ति युगपद् है । अत: अपने प्रति न्याय करते ही निर्दोषता की अभिव्यक्ति, दायित्व की पूर्ति एवं लक्ष्य की प्राप्ति स्वत: हो जाती है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 17)