Thursday 30 January 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Thursday, 30 January 2014
(माघ कृष्ण चतुर्दशीवि.सं.-२०७०, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
बल का सदुपयोग तथा विवेक का आदर

जितेन्द्रियता से चरित्र-निर्माण और निर्विकल्पता से आवश्यक शक्ति का विकास स्वतः होता हैतथा समता से चिर-शान्ति आ जाती है। चिर-शान्ति आ जाने पर हमें स्वाभाविक अमर-जीवन प्राप्त हो जाता है । चरित्र-बल के समान और कोई बल नहीं है । निर्विकल्पता के समान और कोई शक्ति-संचय का साधन नहीं है और समता के समान कोई शान्ति नहीं है । यह सब कुछ मानव-जीवन में ही निहित है। इस जीवन की प्राप्ति के लिये प्राप्त परिस्थिति के सदुपयोग के अतिरिक्त किसी अप्राप्त परिस्थिति तथा वस्तु की आवश्यकता नहीं है । यदि वस्तुओं से जितेन्द्रियता प्राप्त होतीतो उन्हें हो जातीजिनके पास वस्तुओं का संग्रह है और यदि किसी बल-विशेष से प्राप्त होतीतो आज संसार में बल का दुरुपयोग ही क्यों होता ? जब यह निश्चित है कि जितेन्द्रियता किसी वस्तु पर निर्भर नहीं हैकिसी बल पर निर्भर नहीं हैतो फिर हम यह कैसे कह सकते हैं कि अमुक वस्तु हमारे पास नहीं हैइसलिये जितेन्द्रियता नहीं आ सकती जिन साधनों से जितेन्द्रियता प्राप्त होती हैवे साधन मानव-मात्र को प्राप्त हैं ।
                                                                                             
अब आप प्रश्न कर सकते हैं कि क्या निर्बल इन्द्रिय-लोलुप नहीं हो सकताहाँ,वास्तविक निर्बल में इन्द्रिय-लोलुपता नहीं होती और न बल का सदुपयोग करने वाले में ही होती है । तो इन्द्रिय-लोलुपता पता है किसमें होती हैउसमें जो बल का दुरुपयोग करता है । भाई ! आज हमें इस झगड़े में नहीं पड़ना है कि हममें कितना बल है और कितना विवेक । जितना भी बल हमारे पास हैउसका हमें सदुपयोग करना है । ज्यों-ज्यों हम बल का सदुपयोग करते जायेंगेत्यों-त्यों आवश्यक बल प्राप्त होता जाएगा और अन्त में हम उस प्राप्त बल के अभिमान से भी मुक्त हो जायेंगे । 

बल के संग्रह-मात्र से कोई बल के अभिमान से मुक्त नहीं हो सकता। प्राप्त बल के सदुपयोग से जब हमें आवश्यक बल मिलेगातब हम बल के अभिमान से मुक्त होने के अधिकारी हो जायेंगे । बल के अभिमान से मुक्त होने का प्रश्न तभी उत्पन्न होता हैजब पहले आवश्यक बल प्राप्त हो । किसी अप्राप्त वस्तु के अभिमान से मुक्त होने का तो प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता । जो आवश्यक बल हैवह निर्विकल्पता में ही निहित है । निर्विकल्पता बुद्धि की समता में निहित है और बुद्धि की समता विवेक में निहित है ।

अत: विवेक से ही हम बुद्धि की समता प्राप्त करें और बुद्धि की समता से मन में निर्विकल्पता प्राप्त करें । मन में निर्विकल्पता आ जाने पर बुरे संकल्प अर्थात् अमानवता के संकल्प मिट जाते हैं और भले संकल्प अर्थात् मानवता के संकल्प पूरे हो जाते हैं । भले संकल्प पूरे होने पर और बुरे संकल्प मिट जाने पर निर्विकल्पता समता में विलीन हो जाती है ।

मानवता हमें निर्विकल्पता में आबद्ध रहने के लिये विवश नहीं करती। वह हमें बताती है कि निर्विकल्पता भी एक आवश्यक स्थिति मात्र है । इससे हमें बुद्धि के सम होने की योग्यता प्राप्त होती है । समता से हमें अलौकिक विवेक से अभिन्नता प्राप्त होती है । और इसी अभिन्नता में हमें वास्तविक अनन्त नित्य-चिन्मय जीवन प्राप्त होता है । उस दिव्य जीवन का प्राप्त होना ही अपना कल्याण है।



 - (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँगपुस्तक से, (Page No. 72-74) 

Wednesday 29 January 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Wednesday, 29 January 2014
(माघ कृष्ण त्रयोदशीवि.सं.-२०७०, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
बल का सदुपयोग तथा विवेक का आदर

वस्तुओं का सम्बन्ध प्राण तक हैइससे आगे नहीं । प्राण का सम्बन्ध शरीर तक हैइससे आगे नहीं और शरीर का सम्बन्ध मृत्यु से पूर्व तक हैइससे आगे नहीं। आप देखिये, जिस शरीर पर हम विश्वास करते हैंउसका जन्म होते ही मृत्यु आरम्भ हो जाती है ।  जो शरीर निरन्तर काल रूपी अग्नि में जल रहा हैउस पर विश्वास करना क्या सही है इसका अर्थ कोई यह न समझे कि शरीर का नाश कर लिया जाय । क्योंकि किसी वस्तु को मिटाने की बात सोचना भी उसके अस्तित्व को स्वीकार करना है और उस वस्तु से द्वेष करना हैजो वास्तव में एक प्रकार का सम्बन्ध है । अत: जो शरीर और वस्तुएँ हमें प्राप्त हैंउनको मिटाने की न सोचेंउनके सदुपयोग की बात सोचें । यदि हम वस्तुओं के उपभोग अथवा विनाश की बात सोचेंगेतो वह सही न होगा और उसका परिणाम मानवता न होकर अमानवता होगा । और वह साधन भी नहीं है । अतबड़ी ही सावधानी से हमें प्राप्त बल तथा वस्तुओं का सदुपयोग करना है ।  उस सदुपयोग के लिये अपने ज्ञान के प्रकाश में अपने जीवन को रखना है ।

हमारा वर्तमान जीवन क्या है ? कुछ करनाकुछ मानना और कुछ जानना । जो कुछ हम करेंवह विवेक के प्रकाश से प्रकाशित होकर करें। जो कुछ मानें वह विवेक के प्रकाश में ही मानें और जो कुछ जानें वह स्वयं से जानें । स्वयं से जानने का अर्थ होता है - किसी करण द्वारा न जानें । यह बडी सूक्ष्म बात है । करण के द्वारा हम जो कुछ जानते हैंवह पूरा नहीं जानते। विचार कीजिएइन्द्रियों द्वारा जिस वस्तु को आप जैसे जानते हैंवह वास्तव में वैसी ही है क्या आपको मानना होगा कि वैसी नहीं है । नेत्र से सूर्य छोटा सा दिखाई देता हैपरन्तु क्या सूर्य छोटा सा है ? कहना होगानहीं ।

ऐसे ही बुद्धि से जो हम जानते हैंक्या वह सही जानते हैं यद्यपि इन्द्रियों की अपेक्षा बुद्धि का ज्ञान अधिक सही हैपर वास्तविक ज्ञान तो बुद्धि के मौन होने पर ही होता हैजो विलक्षण है । बुद्धि से जानने का भी जीवन में स्थान हैऔर इन्द्रियों से जानने का भी जीवन में स्थान है । इन्द्रियों द्वारा जो हम जानते हैंउससे तो हमें केवल वस्तुओं का उत्पादन कर उपभोग करना है और बुद्धि द्वारा जो कुछ हम जानते हैंउससे केवल वस्तुओं के सतत् परिवर्तन को जानना है ।

वस्तुओं के सतत् परिवर्तन को जानकर हम राग से रहित हो जाते हैं और राग से रहित हो जाने पर बुद्धि की आवश्यकता शेष नहीं रहती । जब बुद्धि का कार्य पूरा हो जाता हैतब वह स्वत: अपने अधिष्ठान में विश्राम पा जाती हैतब हमारा मन निर्विकल्प होकर बुद्धि में विलीन हो जाता है और इन्द्रियाँ विषयों से विमुख होकर अविषय हो जाती हैंअर्थात् बुद्धि के सम होते ही निर्विकल्पताजितेन्द्रियता और समता आ जाती है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँगपुस्तक से, (Page No. 71-72) 

Tuesday 28 January 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Tuesday, 28 January 2014
(माघ कृष्ण द्वादशीवि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
बल का सदुपयोग तथा विवेक का आदर

साधन-निर्माण के लिये अधिकार-भेद से विश्वास भी अपेक्षित हैचिन्तन भी अपेक्षित हैप्रवृत्ति भी अपेक्षित है और सम्बन्ध भी अपेक्षित है । परसम्बन्ध किसके साथ हो ?  विश्वास किस पर हो चिन्तन किसका हो प्रवृत्ति कैसी हो ? इन्हीं पर विचार करना है ।  इन्हीं को देखना है । केवल भगवत्-विश्वास अथवा कर्त्तव्य-विश्वास ही साधन रूप विश्वास है । तत्व-चिन्तन अथवा प्रिय-चिन्तन ही सार्थक-चिन्तन है । जिस प्रवृत्ति में दूसरे का हित निहित हैवही सार्थक प्रवृत्ति हैसबसे अथवा अपने से अथवा प्रभु से सम्बन्ध जोड़ना ही सार्थक सम्बन्ध है ।

इसका यह अर्थ हुआ कि जितनी भी चीजें हमारे जीवन में हैंवे सब ज्यों-के-त्यों हैं, पर, उनके रूप और स्थान बदल गये । स्थान बदलते ही वे साधन-रूप हो गये और साधन-रूप होते ही साधक और साधन में अभिन्नता हो गई तथा साधन से अभिन्नता होते ही साध्य की प्राप्ति हो गई । इससे यह सिद्ध हुआ कि हम सब साधक बनने में सर्वदा स्वतन्त्र हैंपरतन्त्र नहीं । कारणकि जिस सामग्री की आवश्यकता साधन में होती हैवह सारी सामग्री हमारे और आपके पास है ।

विश्वास वही सुरक्षित रहता हैजिसमें अपनी अनुभूति का विरोध न हो । आज हम अपनें विश्वास की खोज करेंतो यह स्पष्ट हो जाता है कि जाग्रति तथा स्वप्न की सभी वस्तुएँ गहरी नींद अर्थात् सुषुप्ति में हमें प्रतीत नहीं होती । पर हम उस समय दुःख से रहित होते हैं । इससे यह सिद्ध हो जाता है कि जाग्रति एवं स्वप्न की वस्तुओं के बिना हम दुखी नहीं होते । हमारी यह अनुभूति जाग्रति और स्वप्न में प्रतीत होने वाली वस्तुओं के विश्वास को खा लेती है । जिन वस्तुओं की प्रतीति सुषुप्ति में ही नहीं रहतीउनका अस्तित्व भलासमाधि और मुक्ति में कैसे रहेगा ?

 यद्यपि विश्वास बड़े ही महत्व की वस्तु हैपर वह भगवान् के प्रति होकर्त्तव्य के प्रति होअपने गुरु के प्रति हो अथवा अपने पर हो । इसके अतिरिक्त विश्वास का साधन में कोई स्थान नहीं है । अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि उपर्युक्त बिश्वासों के अतिरिक्त क्या हम उन वस्तुओं पर जो प्राप्त हैं अथवा निकटवर्ती सम्बन्धियों पर एवं अन्य व्यक्तियों पर विश्वास न करें तो कहना होगा - 'न करें। तो क्या करें वस्तुओं का सदुपयोग करें और व्यक्तियों की सेवा करें । आपको जो व्यक्ति मिला हैवह विश्वास करने के लिए नहींसेवा करने के लिए मिला है । आपको जो वस्तुएँ मिली हैंवह संग्रह करने के लिये अथवा विश्वास करने के लिए नहीं मिली हैं । वे सदुपयोग करने के लिये मिली हैं ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँगपुस्तक से, (Page No. 69-71) 

Monday 27 January 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Monday, 27 January 2014
(माघ कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०७०, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
वर्तमान निर्दोषता में आस्था - 2

यदि कोई कहे, नहीं-नहींहम तो भौतिकवादी हैं । तो भैयासोचोअगर तुम भौतिकवादी होतो विचार करो कि भौतिकवादी का अर्थ क्या है? अगर तुम्हारी मान्यता में जगत् हैतो फिर कोई भी वस्तु तुम्हारी है या जगत् की आप विचार करें । अगर जगत् की स्वीकृति हैतो आपके पास जो कुछ हैवह जगत् का है । निर्मम होकर यदि विश्व-प्रेम से आपका जीवन परिपूर्ण नहीं हैतो फिर कैसा भौतिकवाद आत्मरति से भी जब आपका अपना जीवन परिपूर्ण नहीं हैतो कैसा अध्यात्मवाद प्रभु-प्रेम से यदि आपका जीवन परिपूर्ण नहीं हैतो कैसा ईश्वरवाद विचार करेंऔर गम्भीरता से विचार करें । इस प्रकार विचार करना ही मानव-सेवा-संघ की सत्संग-योजना है ।

परन्तु कितने दुःख की बात है कि हम अपनी ओर देखते ही नहीं और देखते भी हैंतो इस विचार के साथ कि किस अंश में उन्होंने मेरे साथ वह कियाजो उन्हें मेरे साथ नहीं करना चाहिये था । मान लोकिसी ने वैसा नहीं कियाकिन्तु यह भी तो सोचो कि तुम्हें उसके साथ क्या करना चाहिए । हमें तो उसके साथ वही करना है कि जो करना चाहिये । यदि आप ऐसा करते हैंतो मैं आपसे पूछता हूँ कि फिर दुबारा क्या कोई आपके साथ बुराई करने का साहस कर सकता है मेरे जानते तो नहीं कर सकता । किन्तु अनेक बार हमारे ऊपर जो दूसरों के द्वारा आक्रमण होते हैंदूसरों के आक्षेप होते हैंदूसरों की आलोचनायें होती हैंवे क्यों स्पष्ट है कि हम वह नहीं करतेजो हमें उनके साथ करना चाहिये । परिणाम यह होता है कि हमारे साथ वह होता रहता हैजो दूसरों को नहीं करना चाहिये । मैं जानना चाहूँगा कि यह रोग कब तक रखना है कब तक हम यह सोचते रहेंगे कि हमको दूसरों ने आदर नहीं दियाप्यार नहीं दियाहमारी ईमानदारी में विश्वास नहीं कियाहमको अच्छा आदमी नहीं समझा। इस बेबसी के जीवन से क्या शान्ति मिलेगी भाईमेरा तो विश्वास है कि सारी दुनियाँ मुझे चाहे जैसा समझेपर मैं वैसा रहूँ जैसा रहना चाहिये । यही उपाय है अनादर की पीड़ा से, अपमान की पीड़ा से बचने का । किन्तु हम आज दूसरों के सर्टीफिकेट पर अपने को शान्त रखना चाहते हैंदूसरों की उदारता पर आज हम जीना चाहते है । मेरा विचार है कि यह मानव-जीवन का घोर अपमान है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथपुस्तक से, (Page No. 78-79) 

Sunday 26 January 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Sunday, 26 January 2013 
(माघ कृष्ण दशमींवि.सं.-२०७०, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
बल का सदुपयोग तथा विवेक का आदर

विवेक का आदर जीवन का आदर है । बल का सदुपयोग जीवन का सदुपयोग है । विवेक के आदर के बिना हम कभी अपने जीवन का आदर नहीं कर सकते और बल का सदुपयोग किये बिना हम कभी अपने जीवन का सदुपयोग  नहीं कर सकते। अथवा यों कहें कि विवेक का आदर और वल का सदुपयोग ही वास्तव में जीवन है। इससे भिन्न को जीवन नहीं कह सकतेमृत्यु कह सकते हैं । जब हमें जीवन प्राप्त करना हैतो बल के दुरूपयोग का कोई स्थान नहीं हैविवेक के अनादर का कोई स्थान नहीं है । यदि बल का दुरुपयोग न होतो बुराई जैसी चीज देखने में नहीं आती और विवेक का अनादर न होतो बेसमझी का कहीं दर्शन नहीं होता। बेसमझी वहीं हैजहाँ विवेक का अनादर है । बुराई वहीं हैजहाँ बल का दुरुपयोग है । इस बात को मान लेने के बाद हम और आप एक ऐसे जीवन की ओर अग्रसर होने लगते हैंजो वास्तव में जीवन हैअर्थात् जिसमें किसी प्रकार का भय नहीं हैअभाव नहीं है । भय का अन्त और अभाव का अभाव करने में साधन-युक्त जीवन ही समर्थ है और साधन का सार है - बल का सदुपयोग और विवेक का आदर ।

अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि विवेक का आदर करने में कठिनाई क्या हैकठिनाई यह है कि हम मनइन्द्रिय आदि के व्यापार को ही जीवन मान लेते हैं। यदि हम विवेक-पूर्वक मनइन्द्रिय आदि के व्यापार से अपने को असंग कर लेंअथवा उसमें जीवन-बुद्धि न रखेंतो बहुत ही सुगमतापूर्वक विवेक का आदर कर सकते हैं ।

यदि हम यह जानना चाहें कि हमारा समस्य जीवनअर्थात् मनइन्द्रिय आदि का व्यापार विवेक के प्रकाश से प्रकाशित है अथवा नहीं । तो उसकी कसौटी यह होगी कि हम मनइन्द्रिय आदि से उत्पन्न हुई प्रवृत्तियों को देखें कि क्या वे ही प्रवृत्तियाँ दूसरों के द्वारा अपने प्रति होने पर हमें उन प्रवृत्तियों में अपना हित तथा अपनी प्रियता प्रतीत होती है यदि नहीं होतीतो जान लेना चाहिए कि अभी मनइन्द्रिय आदि में अविवेक का अन्धकार विद्यमान है और उसे विवेक के प्रकाश से सदा के लिए मिटाना है ।

अविवेक का अन्धकार हमें इन्द्रियों के व्यापार में आबद्ध करता है। इन्द्रियों का व्यापार हमें विषयों में आसक्त करता है । विषयों की आसक्ति हमारे देहाभिमान को पुष्ट करती है और देहाभिमान हमें अमरत्व से मृत्यु की ओर ले जाता है । अत: यदि हम मृत्यु से अमरत्व की ओर जाना चाहते हैंतो विवेकपूर्वक देहाभिमान का अन्त करना होगा । देहाभिमान का अन्त करने के लिए इन्द्रियों के व्यापार द्वारा जो सुख मिलता हैचित्त के चिन्तन द्वारा जो सुख मिलता हैस्थिरता द्वारा जो सुख मिलता हैइन सुखों की आसक्ति का त्याग करना होगा। ये तीन प्रकार के सुख देहाभिमान के आधार पर ही भोगे जा सकते हैं ।

इससे यह सिद्ध हुआ कि सुखलोलुपता जब तक जीवन में रहेगीतब तक देहाभिमान का अन्त न हो सकेगा । और ज्यों-ज्यों सुख-लोलुपता मिटती जायेगी अथवा जीवन  की लालसा जागृत होती जायगीत्यों-त्यों देहाभिमान अपने आप मिटता जाएगा । सुख-लोलुपता ने ही हमें देहाभिमान  में आबद्ध किया है।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँगपुस्तक से, (Page No. 65-67) 

Saturday 25 January 2014

।। हरिः शरणम् ! ।।

Saturday, 25 January 2014
(माघ कृष्ण नवमींवि.सं.-२०७०, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
बल का सदुपयोग तथा विवेक का आदर

आप विचार कीजियेजिसे हम बुराई कहते हैंक्या उसका ज्ञान हमें नहीं है ?  यदि बुराई का ज्ञान न होतातो हम दूसरों से अपनी भलाई की आशा क्यों करते ? भलाई की आशा यह सिद्ध करती है कि हमें भलाई और बुराई का भली-भाँति ज्ञान है । अत: यह स्पष्ट हो जाता है कि गुरु का बहाना ढूँढना भी निज-विवेक का अनादर ही है। अब रही भगवान् की बात, सो आप विचार करके देखें कि क्या वह भी भगवान् हो सकता हैजो कृपा न करे यदि भगवान् कृपा न करते तो क्या हमें मानव-जीवन मिलता मानव-जीवन मिलना ही उनकी हम पर अहैतुकी कृपा है। पर उसका अनुभव उन्हीं को होता हैजो उनके दिये हुए बल का सदुपयोग और विवेक का आदर करते हैं ।

मानव-जीवन साधन-युक्त जीवन है । अत: हमें अपना साधन-निर्माण न करने में केवल अपनी ही भूल माननी चाहिए । इस दृष्टिकोण को अपना लेने पर हमें किसी और से कुछ भी कहने का साहस नहीं होता और अपनी ओर ही देखना पड़ता है । हम अपनी ही भूल से प्राप्त बल का दुरुपयोग तथा विवेक का अनादर करते हैं । जाने हुए की भूल को ही भूल कहते हैं । भूल उसे नहीं कहते जिसे नहीं जानते, जैसेकोई अपनी घड़ी जेब में रखकर भूल गया हैजब घड़ी की जरूरत हुईतब उसे मासूम होता हैकि न जाने घड़ी कहाँ हैं किन्तु जेब की वस्तु-स्थिति जैसी-की-तैसी रहती हैउस भूल-काल में भी और मिलने पर भी। मिलने पर वह कहने लगता हैभाई ! घड़ी तो जेब में ही थी ।

इससे यह सिद्ध हुआ कि भूले उसे कहते हैंजिसे जानते हैं । किन्तु जानते हुए भीन जानने जैसी स्थिति हो गई हो । जानते हुए न जानने जैसी स्थिति का नाम ही वास्तव में भूल है । वह भूल कब तक जीवित रहती है जब तक हम अपने विवेक का उपयोग अपने पर नहीं करते । जब हम विवेक का उपयोग अपने पर करने लगते हैं और अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति विवेक के प्रकाश में ही करते हैंतब भूल अपने-आप मिट जाती है । भूल मिटाने का अर्थ है - विवेक का आदर और भूल बनाये रखने का अर्थ है - विवेक का अनादर । इस दृष्टि से प्रत्येक भाई-बहिन अपनी भूल को अपने विवेक से मिटा सकते हैं ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँगपुस्तक से, (Page No. 63-65) 

Friday 24 January 2014

।। हरिः शरणम् ! ।।

Friday, 24 January 2014
(माघ कृष्ण अष्टमीवि.सं.-२०७०शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
बल का सदुपयोग तथा विवेक का आदर

बल के सदुपयोग का अर्थ है - हमारा बल किसी और की निर्बलता का हेतु न बन जायऔर विवेक के आदर का अर्थ है - हम अपने को धोखा न दें । झूठ क्या है ? जिसे हम स्वयं जानते हैं । सत्य से असत्य की ओर हम तभी जाते हैंजब हम अपने को धोखा देते हैंऔर यह नियम है कि जब हम सत्य से असत्य की ओर जाते हैंतभी अमरत्व से मृत्यु की ओर भी गतिशील होते हैंअर्थात् हमारी गति विपरीत हो जाती है । यह विपरीत गति विवेक के अनादर का ही परिणाम है । जब हमसे कोई भूल हो जाती हैतो उसका कारण हम किसी और को मानने लगते हैंजो वास्तव में हमारा प्रमाद है।

कोई कहने लगता हैहमारा संस्कार अच्छा नहीं था । कोई कहने लगता हैहमारी परिस्थिति अनुकूल नहीं थी । कोई कहता हैहमको योग्य गुरु नहीं मिला । कुछ लोग तो यहाँ तक कहेंगे कि प्रभु ने कृपा नहीं की । अर्थात्हम अपनी भूल का कारण अपने को न मान करदूसरों को मानने लगते हैं, जो मानवता की दृष्टि से सही नहीं है । यह तो स्पष्ट ही है कि परिस्थिति चाहे जैसी होया तो सुखमय होगा या दुःखमय । सुखमय परिस्थिति में भी बल का दुरुपयोग और विवेक का अनादर किया जा सकता है और दुःखमय परिस्थिति में भी बल का सदुपयोग और विवेक का आदर किया जा सकता है । अत: परिस्थिति का सदुपयोग अथवा  दुरुपयोग तथा विवेक का आदर अथवा अनादर किसी परिस्थिति विशेष पर निर्भर नहीं हैअपितु इसमें मानवता अथवा अमानवता ही हेतु है । 

संस्कार जितने भी होते हैंवे सब हमारे द्वारा ही सत्ता पाते हैं । यदि हम उन्हें स्वीकार न करें अथवा उनका शासन न मानेंतो बेचारे संस्कार अपने-आप मिट जाते हैंअथवा बदल जाते हैं । यदि कोई कहे कि हमें योग्य गुरु नहीं मिला। तो हमें विचार करना चाहिए कि गुरु का काम क्या है गुरु का काम है - साधक की योग्यतानुसार साधन का निर्माण तथा उसके दोषों का ज्ञान कराना । दोनों बातें प्रत्येक भाई-बहिन अपने विवेक के आदर से स्वत: जान सकते हैं । अत: यह कहना भी नहीं बनेगा कि हमें योग्य गुरु नहीं मिला । कोई भी गुरु और ग्रन्थ हमें ऐसी बात बता ही नहीं सकतेजो कि हमारे विवेक में निहित नहीं है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँगपुस्तक से, (Page No. 62-63) 

Thursday 23 January 2014

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 23 January 2014  
(पौष कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सर्व हितकारी प्रवृत्ति तथा वासना-रहित निवृत्ति

        जो चाह-रहित जीवन पर विश्वास नहीं करते, वे निवृत्ति के द्वारा लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते । हाँ, एक बात अवश्य है कि सर्वहितकारी प्रवृत्ति से वास्तविक निवृत्ति की  योग्यता आ जाती है और वास्तविक निवृत्ति से जीवन सर्वहितकारी प्रवृत्ति के योग्य बन जाता है । अत: हम जिस अंश में सुखी हों, उस अंश में सर्वहितकारी प्रवृत्ति द्वारा सुखासक्ति से मुक्त होने का प्रयत्न करें और जिस अंश में दुखी हों, उस  अंश में अचाह होकर वास्तविक निवृत्ति द्वारा दुःख के भय  से मुक्त होकर अचाह-पद प्राप्त करें । अचाह होने पर भी हम अपने साधन का निर्माण कर सकते हैं और सुखासक्ति मिट जाने पर भी हम अपने साधन का निर्माण कर सकते हैं ।

        अत: सुखासक्ति से मुक्त होकर तथा दुःख के भय से रहित होकर हम बहुत सुगमतापूर्वक प्रत्येक परिस्थिति में साधन-निर्माण कर विद्यमान मानवता विकसित कर सकते हैं, जिसके आ जाने पर बल का सदुपयोग तथा विवेक का आदर स्वत: हो जाता है । बल का सदुपयोग करने से हम बल की दासता से मुक्त हो जाते हैं, और विवेक का आदर करने से बल के सदुपयोग की योग्यता आ जाती है । बल का सदुपयोग वही कर सकता है, जो बल का दास नहीं है, अपितु उसका स्वामी है । बल का दास तो बेचारा बल के अभिमान में आबद्ध रहता है, जो वास्तव में एक निर्बलता है । बल का सदुपयोग करते समय बल को निर्बलों का अधिकार ही समझना चाहिये, तभी बल की दासता से मुक्त हो सकेंगे । 

        विवेक का आदर करने पर देहाभिमान मिट जाएगा, जिसके मिटते ही भिन्नता मिट जायगी । भिन्नता मिटते ही सब प्रकार के संघर्षों का अन्त हो जाएगा और फिर स्नेह की एकता प्राप्त होगी, जो वास्तव में मानवता है । स्नेह की एकता प्राप्त होने पर वास्तविक निर्दोषता प्राप्त होती है, और निर्दोषता आ जाने पर एक ऐसे अनुपम जीवन की उपलब्धि होती है, जिसके लिए कोई परिस्थिति अपेक्षित नहीं है, अर्थात् जो सभी परिस्थितियों से अतीत है । बलवान उस जीवन को बल के सदुपयोग से और निर्बल उस जीवन को अन्तर-बाह्य मौन, अचिंतता एवं निवृत्ति से प्राप्त कर सकते हैं । इससे यह सिद्ध हुआ कि प्रत्येक मानव अपनी योग्यतानुसार साधन-निर्माण करने में सर्वदा स्वतन्त्र है, और यह नियम है कि प्राप्त योग्यतानुसार साधन का निर्माण करने पर साधक साध्य से अभिन्न हो जाता है ।। ऊँ ।।

- 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 59-60) ।

Wednesday 22 January 2014

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 22 January 2014  
(पौष कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सर्व हितकारी प्रवृत्ति तथा वासना-रहित निवृत्ति

        यह नियम है कि जिसके नाते जो कार्य किया जाता है, कर्त्ता प्रवृत्ति के अन्त में उसी में विलीन हो जाता है, अर्थात् अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है । तो यदि हम किसी की चाह पूरी कर सकते हैं, तो पूरी करें; किन्तु यह अवश्य देख लें कि जिसकी चाह पूरी करने हम जा रहे हैं, उसमें अपना सुख है, अथवा उसका हित है ? यदि उसमें आपको उसका हित दिखाई दे, तो अवश्य पूरा कर दें । यदि उसमें अपना सुख ही दिखाई दे, तो उसे दुःख का आह्वान समझें । यह बड़े ही रहस्य की बात है । जब हम किसी की चाह पूरी करने जायें और सोचें कि उसमें उसका हित निहित है, तो समझना चाहिये कि हम समाज के ऋण से मुक्त होकर आनन्द की ओर अग्रसर हो रहे हैं ।

        आनन्द किसको मिलता है ? जिसकी प्रवृत्ति दूसरों के हित के लिये हो, और जिसकी निवृत्ति वासना-रहित हो । दुःख किसके पास आता है ? जिसकी प्रवृत्ति अपने सुख के लिये हो, अथवा जिसकी निवृत्ति वासना-युक्त हो । यदि आपको दुःख बुलाना है, तो अपने सुख के लिये प्रवृत्ति कीजिये । यदि आपको आनन्द अपनाना है, तो दूसरों के हित की प्रवृत्ति कीजिये । यदि असमर्थ हैं, तो शान्त हो जाइये, मौन हो जाइए । ऐसा करने से अहंभाव गल जाएगा, और अनन्त चिन्मय नित्य जीवन से अभिन्नता हो जायगी । जहाँ प्रवृत्ति के द्वारा साधन की सुविधा न हो, वहाँ वासना-रहित निवृत्ति अपना लेनी चाहिए । निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों दायें-बायें पैर के समान साधन-क्रम हैं । जैसे दोनों पैरों से यात्रा सुगमतापूर्वक हो जाती है, उसी प्रकार निवृत्ति और प्रवृत्ति में हमारी जो साधना-रूप यात्रा है, वह सुगमतापूर्वक पूरी हो जाती है और हम अपने साध्य तक पहुँच जाते हैं ।

        केवल प्रवृत्ति अथवा केवल निवृत्ति के द्वारा ही जो अपने लक्ष्य तक पहुँचना चाहते हैं, उनकी वही दशा होती है, जो एक पैर से यात्रा करने वाले की होती है, जिसमें सफलता की कोई आशा नहीं । सर्व हितकारी प्रवृत्ति, और वासना रहित निवृत्ति, ये साधना के मूल हैं । सर्वहितकारी प्रवृत्ति वही कर सकता है, जो यह विश्वास करता है कि विश्व एक जीवन है अथवा यह मानता है कि मेरा व्यक्तिगत जीवन विश्व के अधिकारों का समूह है। अथवा यों कहो कि जो कर्म-विज्ञान के रहस्य को जान लेता है, वह सर्वहितकारी प्रवृत्ति में परायण होता है । कारण कि, यह नियम है कि प्रवृत्ति द्वारा तभी अपना हित होता है, जब उस प्रवृत्ति में दूसरों का हित निहित हो और निवृत्ति द्वारा तभी अपना हित होता है, जब सभी वस्तुओं, अवस्थाओं तथा परिस्थितियों से अतीत के जीवन पर विश्वास हो और विवेक-पूर्वक अचाह-पद प्राप्त कर लिया हो ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 57-59) ।

Tuesday 21 January 2014

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 21 January 2014  
(पौष कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सर्व हितकारी प्रवृत्ति तथा वासना-रहित निवृत्ति

        एक बार मेरे जीवन में घोर दुःख हुआ । उस दुःख से दुःखी होकर सोचने लगा कि मुझे इस अभावयुक्त जीवन को नहीं रखना चाहिये । जिस जीवन की माँग संसार को नहीं है, उस जीवन को रखने से कोई लाभ नहीं । यह नियम है कि यदि दुखी अपने दुःख का कारण किसी और को न माने, तो  दु:ख दुखी के प्रमाद का विनाश कर देता है । यह जो हम आज दुखी होते हैं और हमारा विकास नहीं होता है, उसका कारण एक मात्र यही है कि हम दुःख का कारण दूसरों को मानते हैं । यदि हम अपने दुःख-काल में अपने दुःख का कारण किसी और को न मानें, तो वह हमारा दुःख हमारे प्रमाद को खा लेता है और जब वह दुःख प्रमाद को खा लेता है, तो जीवन में एक नवीन आशा का संचार हो जाता है और एक ऐसा पथ दीख जाता है, जो चेतना देता है । दुःखी में कर्त्तव्यपरायणता का उदय हो जाता है ।

        जब दुःख ने मुझ पर कृपा की और मेरे प्रमाद को हर लिया, तब मैं विचार करने लगा कि हे संसार देवता ! तुम मुझे इसलिये नहीं चाहते कि मैं तुम्हारे काम नहीं आ सका; पर, तुम भी तो मेरे काम न आ सके । इस विचार के दृढ़ होते ही मुझे अपने में और संसार में समानता का अनुभव होने लगा । उसके होते ही दीनता का दुख मिट गया, उसके मिटते ही अभिमान भी गल गया, उसके गलत ही जीवन विवेक के प्रकाश से प्रकाशित हो गया और फिर जो मेरे बिना रह सकता है, उसके बिना रह सकने का साहस हो गया, जिसने  जीवन को साधन-युक्त कर दिया और मैंने यह नियम बना लिया कि उन प्रवृत्तियों का आरम्भ ही न करूँगा जिनमें दूसरों का हित तथा प्रसन्नता निहित नहीं है । कुछ काल निवृत्ति में रहने से सर्वहितकारी प्रवृत्ति को शक्ति स्वत: आ जाती है, यह प्राकृतिक नियम है ।

        अत: जब मैं संसार से विमुख होकर शान्त रहने लगा, तब संसार को स्वत: आवश्यकता होने लगी । किन्तु, जब-जब सम्मान के रस में आबद्ध हुआ, तब-तब संसार मुझसे विमुख होने लगा । मेरा यह अनुभव है कि संसार से सुख लेने की आशा ने ही सदैव दुःख दिया है और बेचारे दुःख ने सदैव संसार से निराश होने का पाठ पढ़ाया है, जिससे दुःखी-से-दुःखी को भी नित्य-चिन्मय आनन्द मिला है । इससे यह सिद्ध हो जाता है कि साधक भयङ्कर से भयङ्कर परिस्थिति में भी साधन का निर्माण कर सकता है और साध्य से अभिन्न हो सकता है ।

        उपर्युक्त पाठ ने बोलने की सामर्थ्य होते हुए भी वाणी को मौन कर दिया, गति रुकने लगी, चंचलता स्थिरता में बदलने लगी, और जैसे-जैसे चंचलता स्थिरता में बदलने लगी, वैसे-वैसे छिपे हुए राग की पूर्ति भी होने लगी । अर्थात् जिस दुःख से दुःखी होकर मन संसार से निराश हुआ था, वह दुःख सुख में बदलने लगा । यह मेरा ही अनुभव नहीं है, बहुत से साधकों का अनुभव है। कारण कि, यह नियम है कि जिस कठिनाई को शान्तिपूर्वक सहन कर लिया जाता है, वह कठिनाई स्वयं हल हो जाती है। शान्तिपूर्वक सहन करने का अर्थ है, अपने दुःख का कारण किसी और को न मानकर दुख को सहन कर लेना । सुख आने पर अपने से दुखियों को बिना किसी अभिमान के वितरण कर देना चाहिये, चूँकि सुख वास्तव में दुखियों की ही धरोहर है, उसे अपना नहीं मानना चाहिये । अन्तर केवल यह है कि आस्तिक उस सुख को प्रभु के नाते दुखियों को भेंट करता है, तत्वज्ञ सर्वात्मभाव से और सेवक विश्व के नाते ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 55-57) ।

Monday 20 January 2014

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 20 October 2013  
(पौष कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०७०, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सर्व हितकारी प्रवृत्ति तथा वासना-रहित निवृत्ति

        यदि कोई कहे कि अनुभव करना और अप्रयत्न होना, ये दो विरोधी बातें हैं ? तो अप्रयत्न होना और अनुभव करना इनमें विरोध नहीं है । अनुभव करना लक्ष्य है, अप्रयत्न साधन है । यह नियम है कि साधन पूर्ण होने पर साध्य से अभिन्न हो जाता है । अत: अप्रयत्न होने पर लक्ष्य से स्वतः अभिन्नता हो जाती है । 

        अप्रयत्न होने के लिये अन्तः-बाह्य मौन होना अनिवार्य है। अथवा यों कहो कि अन्तः-बाह्य मौन ही अप्रयत्न है । अन्त-बाह्य मौन एक ऐसा सुगम, स्वाभाविक और समर्थ साधन है कि जिसके सिद्ध होने पर सबल-से-सबल और निर्बल-से-निर्बल सभी साधक समान हो जाते हैं । बोलने में भेद है, पर न बोलने में कोई भेद नहीं । देखने में भेद है, न देखने में कोई  भेद नहीं । सुनने में भेद है, न सुनने में, कोई भेद नहीं । गति में भेद है, गति-रहित होने में कोई भेद नहीं । सोचने-समझने में तथा चिंतन में भेद है, पर उनके न होने में कोई भेद नहीं है । जिस साधन में सभी साधन विलीन हो जाते हैं, उसी को अन्तिम साधन मानना होगा।  इस अन्तिम साधन में सभी साधक एक हैं । किन्तु यह साधन किस प्रकार होगा ? हमें न देखने के लिये सही देखना होगा, न बोलने के लिए सही बोलना होगा, न सुनने के लिये सही सुनना होगा, न सोचने के लिये, सही सोचना होगा । 

        इसी का नाम है, जो करना चाहिए, उसको करना । यह नियम है कि जो करना चाहिए उसके करने से, न करना स्वत: आ जाता है और फिर उससे उपर्युक्त साधन की सिद्धि हो जाती है। यदि कोई कहे कि बिना सही किये हम ‘न करना'  प्राप्त कर लेंगे? तो यह कभी सम्भव नहीं है । कारण कि, करने का राग सही करने से ही निवृत्ति होता है । सही करने का अर्थ है जिस प्रवृत्ति से जिनका सम्बन्ध है, उनके अधिकार की रक्षा । जैसे, हम वही बोलें, जिससे सुनने वाले का हित तथा प्रसन्नता हो और अगर हम वैसा न बोल सकें, तो बोलने के राग से रहित होकर मौन हो जायें।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 54-55) ।

Sunday 19 January 2014

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 19 January 2014  
(पौष कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०७०, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सर्व हितकारी प्रवृत्ति तथा वासना-रहित निवृत्ति

        जो अप्रयत्न जीवन है उसकी चर्चा करें, तो कोई विशेषता नहीं आ जाती और न करें तो कोई क्षति नहीं हो जाती । इसलिये अचाह तक तो सब विचारकों का एक मत है और उसके पश्चात् जो अप्रयत्न जीवन है, उसमें अपना-अपना दृष्टिकोण है । कोई मुक्ति के पश्चात् भक्ति मानता है और कोई मुक्ति के पश्चात् मौन हो जाता है । किन्तु मुक्ति तक तो सभी साथ हैं ।

        अब प्रश्न यह है कि जब अचाह-पद ही मुक्ति-पद है, तो अचाह-पद की प्राप्ति हमें कैसे हो ? उसके लिये अभी निवेदन किया कि अपने जाने हुए ज्ञान का आप अनादर न करें । और आप यह जानते हैं कि सब परिस्थितियों में आप एक हैं, सब परिस्थितियों में आप अपरिवर्तनशील हैं । तो अपने अपरिवर्तनशील जीवन को इस परिवर्तनशील जीवन में मिलाकर न देखें, अलग करके अनुभव करें । और उसका अनुभव कल पर न छोड़ें, भविष्य पर न छोड़ें, वर्तमान में करें । वर्तमान उसको कहते हैं, जिसके लिये लेशमात्र भी भविष्य अपेक्षित न हो ।

        एक और गहरी बात है कि वर्तमान में जिसका अनुभव होगा, उसके लिये कोई भी प्रयत्न अपेक्षित नहीं होगा । यह बड़ी रहस्य भरी बात है और इसमें बहुत से लोग उलझ जाते हैं। उलझन यह होती है कि प्रयत्न तो उत्पन्न होता है अहम् भाव से और अनुभव होता है, अहम् मिटने से । बोध 'तत्व' है और अहम् 'कृति' है । ज्ञान कृति-रहित है । जो कृति-रहित है, उसे कृति से नहीं प्राप्त कर सकते । कहा यह जाता है कि वर्तमान में अनुभव करें, पर यहाँ 'करें' का अर्थ यत्नसूचक नहीं है । अनुभव के लिये अप्रयत्न ही प्रयत्न है । अप्रयत्न होते ही अहम् मिटने लगता है; गुणों का आश्रय छूटने लगता है । ऐसी दशा में कभी-कभी साधक घबराकर पुन: अहम् के द्वारा प्रयत्न करके अपने परिस्थिति-जन्य मोह को सुरक्षित रखने लग जाता है, जो वास्तव में प्रमाद है । अत: साधक बड़ी सावधानी से अपने उस जीवन का कि जिसमें परिवर्तन न हुआ है और न होगा, अनुभव किसी कृति द्वारा न करें, प्रयत्न द्वारा न करें, किन्तु अप्रयत्न होकर ही करें। 

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 53-54) ।