Monday 15 September 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Monday, 15 September 2014 
(आश्विन कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७१, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
अचाह पद

रुचि-अरुचि के मिटते ही अचाह पद स्वत: प्राप्त हो जाता है । हमसे बडी भूल यही होती है कि जो वास्तव में अपना है, उसमें अरुचि और जिससे केवल मानी हुई एकता है, उसमें रुचि उत्पन्न कर लेते हैं । फिर चाह के जाल में फँसकर जो करना चाहिए वह नहीं कर पाते; अपितु जो नहीं करना चाहिए उसको करने लगते हैं । उसके करने से ही हम कर्त्तव्य  से च्युत हो जाते हैं ।

कर्त्तव्य से च्युत होते ही राग-द्वेष उत्पन्न हो जाते हैं । राग-द्वेष उत्पन्न होने से जिससे जातीय तथा स्वरूप की एकता है, उससे विमुखता और जिससे केवल मानी हुई एकता है, उसमें आसक्ति हो जाती है, जो चाह को सजीव बनाने में हेतु है ।

अब विचार यह करना है कि हम किसे अपना कह सकते हैं ? अपना उसी को कह सकते हैं जिससे देश-काल की दूरी न हो जो उत्पत्ति-विनाशयुक्त न हो और जो अपने को अपने-आप प्रकाशित करने में समर्थ हो; क्योंकि अपने से अपना वियोग सम्भव नहीं है और जो अपना नहीं है, उससे वियोग होना अनिवार्य है ।

इस दृष्टिकोण से बाह्य वस्तु की तो कौन कहे, शरीर, प्राण, इन्द्रिय, मन आदि को भी अपना नहीं कह सकते; पर इसका अर्थ यह नहीं है कि जिसे हम अपना नहीं कह सकते, वह हमारी सेवा का पात्र नहीं है । हाँ यह अवश्य है कि उससे प्रेम नहीं किया जा सकता ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) जीवन-दर्शन भाग-1 पुस्तक से, (Page No. 18)

Saturday 13 September 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Saturday, 13 September 2014 
(आश्विन कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७१, शनिवार)

अचाह पद

सभी साधनों का पर्यवसान अचाह पद में है; कारण कि अचाह होने पर ही अप्रयत्न और अप्रयत्न होने पर ही साध्य से अभिन्नता प्राप्त होती है, जो जीवन का मुख्य उद्देश्य है ।

अब विचार यह करना है कि चाह की उत्पत्ति का हेतु क्या है ? रुचि और अरुचिरूपी भूमि में चाहरूपी दूर्वा उत्पन्न होती है । यदि रुचि-अरुचि का समूह न रहे, तो चाह की उत्पत्ति के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाता; कारण कि रुचि-अरुचि के, आधार पर ही सीमित अहंभाव सुरक्षित रहता है । उसी से चाह की उत्पत्ति होती है । अत: सीमित अहं भाव  के रहते हुए अचाह पद की प्राप्ति सम्भव नहीं है ।

सीमित अहं भाव का अन्त कैसे हो ? इसके लिए रुचि-अरुचि के स्वरूप को जानना होगा । रुचि और अरुचि का सम्बन्ध 'स्व' और 'पर' से है । 'स्व' की विमुखता 'पर' की रुचि जाग्रत करती है और 'पर' की अरुचि 'स्व' की रुचि को सबल बनाती है । 'पर' की अरुचि निषेधात्मकरूप से 'स्व' में प्रतिष्ठित करती है और 'स्व' की रुचि विध्यात्मक रूप से 'पर' में अरुचि उत्पन्न करने में समर्थ है ।

अरुचि का अर्थ द्वेष नहीं है और रुचि का अर्थ राग नहीं है । 'पर' की अरुचि संयोग को संयोग-काल में ही वियोग में बदलती है और 'स्व' की रुचि वर्तमान में ही नित्ययोग प्रदान करती है । अत: वियोग अथवा नित्य-योग रुचि-अरुचि के समूह को मिटाने में समर्थ है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) जीवन-दर्शन भाग-1 पुस्तक से, (Page No. 17)

Sunday 7 September 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Sunday, 07 September 2014 
(भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०७१, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं” का विवेचन

अपने में ब्रह्मभाव की स्थापना साधन-रूप है; किन्तु क्या ब्रह्म ने ब्रह्मभाव की स्थापना की ? यह भ्रम है कि 'मैं' पहले ब्रह्म था, अब नहीं हूँ; किन्तु जब मुझे किसी ने स्मरण दिलाया, तब मुझे यह अनुभव हुआ कि 'मैं ब्रह्म हूँ' । तो क्या ब्रह्म में ब्रह्म की विस्मृति हुई और फिर ब्रह्म ने ही मुझसे भिन्न होकर मुझे ब्रह्म की स्मृति दिलाई ? यदि ब्रह्म का यह अपमान अभीष्ट है, तब तो यह मानना उचित ही है कि मैं ब्रह्म हूँ, पर भूल से अपने को जीव मानता था । माया और अविद्या ने मुझे भुला दिया, अर्थात् माया और अविद्या ब्रह्म से सबल हो गई । 'मैं' क्या हूँ ? इसका उत्तर आस्था के आधार पर देना दर्शन नहीं है। दर्शन में आस्था अपेक्षित नहीं है । दर्शन का प्रादुर्भाव सन्देह की वेदना से होता है । सन्देह की वेदना जिसमें होती है, वह मानव है और उसी में आसक्ति, जिज्ञासा तथा आस्था है । आसक्ति प्रमाद-जनित है । इस कारण उसका नाश होता है और जिज्ञासा की पूर्ति विचार-सिद्ध है, इस कारण उसकी पूर्ति होती है । सन्देह की वेदना को देख, जिज्ञासा की पूर्ति के लिए विचार के स्वरूप में किसी की अहैतुकी कृपा अवतरित होती है, जो अविचार का अन्त कर निस्सन्देहता प्रदान कर स्वत: विलीन हो जाती है । निस्सन्देहता की प्राप्ति में ही दर्शन की पूर्णता है ।

निस्सन्देहता स्वत: प्रीति प्रदान करती है, जो वास्तविक जीवन है । सन्देह के रहते हुए प्रीति जाग्रत नहीं होती । सन्देह अपनी ही भूल से होता है । भूल अविवेक सिद्ध है । अत: जाने हुए का अनादर करने से भूल उत्पन्न होती है । मानव-दर्शन यह प्रेरणा देता है कि अपने पर अपने जाने हुए का प्रभाव अपना लेना अनिवार्य है । जाने हुए का प्रभाव न तो प्रतीत होने वाले दृश्य में अहम्-बुद्धि को जन्म देता है और न स्वीकृतियों में ही अहम्-बुद्धि होने देता है । जाने हुए का प्रभाव प्रतीति से असंग कर, जो 'है' उससे अभिन्न करता है । अभिन्नता में ही अगाध, अनन्त प्रियता है । प्रतीति की आसक्ति जिसमें भासित है उसी में अगाध प्रियता की माँग है । आसक्ति के नाश में माँग की पूर्ति स्वत: सिद्ध है । इस दृष्टि से अगाधप्रियता ही 'मैं' का वास्तविक स्वरूप है । प्रियता का क्रियात्मक रूप सेवा है और विवेकात्मक रूप त्याग है, अर्थात् स्थान भेद से प्रीति ही सेवा, त्याग तथा प्रेम के रूप में है । सेवा जगत् के लिए, त्याग अपने लिए एवं प्रेम अनन्त के लिए उपयोगी है । इस दृष्टि से मानव-दर्शन में ही मानव-जीवन की पूर्णता निहित है ।


 - “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 21-22)

Thursday 4 September 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Thursday, 04 September 2014 
(भाद्रपद शुक्ल दशमीं, वि.सं.-२०७१, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं” का विवेचन

नित-नव रस की भूख ज्यों-ज्यों सबल तथा स्थायी होती जाती है, त्यों-त्यों स्वाधीनता-जनित रस से असंगता होती जाती है । असंगता की पूर्णता स्वत: प्रीति में परिणत होती है । इस दृष्टि से मानव की पूर्णता एकमात्र प्रीति से अभिन्न होने में ही है । आसक्ति का नाश होते ही शान्ति, शक्ति, मुक्ति स्वत: प्राप्त होती है । किन्तु शक्ति, मुक्ति आदि का आश्रय अहम् को परिच्छिन्नता के रूप में जीवित रखता है । परिच्छिन्नता के रहते हुए भेद और भिन्नता का नाश नहीं होता और उसके नाश हुए बिना नित-नव रस की अभिव्यक्ति नहीं होती, जो वास्तविक जीवन है । यद्यपि शान्ति, शक्ति और स्वाधीनता स्वभाव से ही प्रिय है, पर प्रियता का रस ऐसा विलक्षण है कि उसके लिए स्वाधीनता आदि का न्यौछावर करना सहज तथा स्वाभाविक हो जाता है । अशान्ति की व्यथा मिटाने में शान्ति और असमर्थता की वेदना को मिटाने में शक्ति एवं पराधीनता की पीड़ा के नाश में स्वाधीनता बड़े ही महत्त्व की वस्तु है ।

मानव बुद्धि-दृष्टि तथा इन्द्रिय-दृष्टि से अपने को अशान्ति, असमर्थता एवं पराधीनता में आबद्ध पाता है । इस कारण शान्ति, शक्ति और स्वाधीनता को महत्त्व देता है । वास्तव में तो शान्ति, सामर्थ्य और स्वाधीनता स्वत: प्रीति में परिणत होती है; कारण, कि शान्ति, शक्ति और स्वाधीनता में 'निज-रस' है । निज-रस में सन्तुष्ट हो जाना, अपनेपन को जीवित रखना है । अपनापन कितना ही महान् क्यों न हो, किन्तु उसमें किसी न किसी रूप में परिच्छिन्नता रहती है । जो यह अनुभव करता था कि 'मैं अशान्त हूँ', 'मैं असमर्थ हूँ', ‘पराधीन हूँ', वही अनुभव करता है कि 'मैं शान्त हूँ', 'समर्थ हूँ', 'स्वाधीन हूँ' । पराधीनता आदि दोषों की अपेक्षा स्वाधीनता आदि बड़े ही महत्त्व की वस्तुएँ हैं, परन्तु 'मैं' स्वाधीन हूँ, इस प्रकार की सीमा तो रहती ही है । परिच्छिन्नता रहते हुए किसी न किसी प्रकार की माँग रहती ही है, जिसके रहते हुए पूर्णता कैसी ? प्रीति का प्रादुर्भाव होने पर माँग का अन्त हो जाता है । इस दृष्टि से प्रेम के प्रादुर्भाव में ही मानव की पूर्णता है । यह मानव का अपना दर्शन है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 20-21)

Tuesday 2 September 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Tuesday, 02 September 2014 
(भाद्रपद शुक्ल राधा-अष्टमी, वि.सं.-२०७१, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं” का विवेचन

ममता का नाश, जिज्ञासा की पूर्ति और आस्था में आत्मीयता होने पर एक-मात्र प्रेम-तत्त्व ही शेष रहता है । प्रीति में अस्तित्व उसी का है, जिसकी वह प्रीति है । प्रीति सतत् गतिशील तत्त्व है; ‘यह' की ओर गति होने पर आसक्ति के रूप में भासती है, 'यह' से विमुख होने पर विरक्ति तथा 'वह' की ओर गतिशील होने पर अनुरक्ति होती है । यदि प्रतीति का स्वतन्त्र अस्तित्व होता, तो आसक्ति विरक्ति में परिणत न होती और यदि कोई स्वतन्त्र सत्ता न होती, तो विरक्ति अनुरक्ति में परिणत न होती । पर मानव-दर्शन से यह स्पष्ट विदित होता है कि आसक्ति विरक्ति में और विरक्ति अनुरक्ति में परिणत होती है । सर्वांश में आसक्ति का नाश होते ही विरक्ति का भास होता है और विरक्ति की पूर्णता होते ही अनुरक्ति का प्रादुर्भाव होता है । आसक्ति, विरक्ति और अनुरक्ति उसी समय तक अलग-अलग प्रतीत होती हैं, जिस समय तक सर्वांश में आसक्ति का नाश नहीं होता । पराधीनताजनित वेदना आसिक्त के नाश में हेतु है ।

आसक्ति का नाश होते ही विरक्ति की अभिव्यक्ति होती है, जो स्वाधीनता की जननी है । विरक्ति की पूर्णता स्वाधीनता-जनित रस में सन्तुष्ट नहीं रहने देती। बस, उसी काल में विरक्ति स्वत: अनन्त की अनुरक्ति हो, अनन्त को रस प्रदान करती है । आसक्ति सुख-लोलुपता और विरक्ति स्वाधीनता में परिणत होती है । किन्तु स्वाधीनता-जनित रस अखण्ड होने पर भी नित-नव नहीं है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 19-20)

Monday 1 September 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Monday, 01 September 2014 
(भाद्रपद शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०७१, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं” का विवेचन

यदि आस्था के आधार पर ‘यह' की सत्ता स्वीकार कर ली जाय, तो 'यह' की आसक्ति का अन्त होते ही 'वह' की अनुरक्ति स्वत: जाग्रत होती है । आसक्ति और अनुरक्ति में एक बड़ा भेद यह है कि आसक्ति पराधीनता-जनित सुख-लोलुपता को जन्म देती है और अनुरक्ति जिसके प्रति होती है, उसके लिए रस-रूप होती है । इस दृष्टि से अनुरक्ति का बड़ा ही महत्त्व है । आसक्ति का अत्यन्त अभाव बिना हुए अनुरक्ति के साम्राज्य में प्रवेश ही नहीं होता । इस कारण आसक्ति का सर्वांश में नाश करना अनिवार्य है, जो एकमात्र विरक्ति से ही साध्य है । विरक्ति घृणा नहीं है, अपितु पराधीनता का अन्त करने में साधनरूप है। इस दृष्टि से विरक्तिपूर्वक ही अनुरक्ति प्राप्त होती है । आसक्ति, विरक्ति और अनुरक्ति - इनसे जिसका सम्बन्ध है वह 'यह' और 'वह' से रहित है । संकेत भाषा में आसक्ति, विरक्ति और अनुरक्ति 'मैं' का कार्य है, 'मैं' नहीं; कारण, कि आसक्ति और विरक्ति दोनों ही अनुरक्ति से अभिन्न होती हैं । अनुरक्ति ने उससे भिन्न का अनुभव ही नहीं किया, जिसकी वह अनुरक्ति है । अत: 'मैं' अनुरक्ति से अभिन्न हो, अनन्त को रस प्रदान करने में समर्थ है । जिस प्रकार 'मैं' आसक्ति से युक्त होकर पराधीनता, अभाव आदि में आबद्ध होता है, उसी प्रकार 'मैं' विरक्ति से अभिन्न होकर अपने ही में सन्तुष्ट होता है और अनुरक्ति से अभिन्न होने पर 'मैं' अनन्त को रस प्रदान करता है । इस दृष्टि से 'मैं' के सम्बन्ध में जितना कहा जाय, कम है, जो ‘कुछ नहीं' होकर 'सब कुछ' है और 'सब कुछ' होकर 'कुछ नहीं' है । यही 'मैं' की विलक्षणता है ।

यह नियम है कि जो, कुछ नहीं होता, अर्थात् जिसमें किसी प्रकार की सीमा, नाप-तौल नहीं है, वह सभी से अभिन्न हो सकता है और उसमें सभी की स्थापना हो सकती है । इसी कारण अहम् में शरीर-भाव, जीव-भाव, ब्रह्म-भाव आदि की स्थापना हो सकती है; क्योंकि यदि 'मैं' कोई ऐसा पदार्थ होता, जिसका विवेचन बुद्धि आदि के द्वारा सम्भव होता, तो उसमें किसी और की स्थापना सम्भव न होती । किन्तु अहम् में ही जगत् का बीज, तत्त्व की जिज्ञासा और अनन्त की प्रियता विद्यमान है । ममता, कामना एवं तादात्म्य का अन्त होने पर अहम् में जगत् का बीज शेष नहीं रहता, अर्थात् अहम् का दृश्य से सम्बन्ध नहीं रहता । इतना ही नहीं, दृश्य अहम् में विलीन हो जाता है और फिर तत्त्व-जिज्ञासा की पूर्ति तथा प्रीति की जाग्रति स्वत: हो जाती है । प्रीति दूरी तथा भेद को शेष नहीं रहने देती । दूरी के नाश में ही योग की और भेद के नाश में ही बोध की अभिव्यक्ति निहित है । इस दृष्टि से योग, बोध और प्रेम अहम् के ही रूपान्तर हैं । अर्थात् अहम् योग, बोध और प्रेम से अभिन्न हो जाता है । अहम् का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, अपितु ममता, जिज्ञासा एवं आस्था की स्वीकृति जिसमें भासित होती है वही अहम् है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 18-19)