Tuesday 8 July 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Tuesday, 08 July 2014 
(आषाढ़ शुक्ल एकादशी, वि.सं.-२०७१, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
साधन करने में कोई असमर्थ नहीं है

साधक को दो ही बातों पर ध्यान देना है - एक तो यह कि वह जो कर सकता है, उसे कर डाले और निश्चिन्त हो जाए; दूसरी यह कि साधन न होने की गहरी वेदना जागृत हो जाए । निश्चिन्तता निर्भयता को और निर्भयता प्रसन्नता को जन्म देती है । प्रसन्नता खिन्नता को खा लेती है और खिन्नता के मिटते ही कामनाओं का अन्त हो जाता है। कामनाओं के अन्त में ही जिज्ञासा की पूर्ति निहित है । यह नियम है कि वर्तमान की वेदना भविष्य की उपलब्धि होती है । इस प्रकार वेदना से भी साधक को सफलता हो सकती है । अत: साधक के जीवन में निराशा के लिए कोई स्थान ही नहीं है । साधक जो कर सकता है, उसको जब नहीं करता और साधन न होने का दुःख भी उसे नहीं होता, तब समझना चाहिए कि यही उसके जीवन का सबसे काला समय है, जिसे उसने स्वयं ही बनाया है ।

साध्य का यह स्वभाव है कि जो साधक प्राप्त सामर्थ्य का उपयोग करता है उसे तो वह आवश्यक सामर्थ्य तब तक बिना ही, माँगे देता रहता है, जब तक कि साधक साध्य से अभिन्न नहीं हो जाता । एवं जो साधक प्राप्त सामर्थ्य का उपयोग न करने के दुःख से दुखी होकर अपने को साध्य के समर्पित कर देता है, उसे साध्य की कृपा शक्ति स्वत: साध्य से अभिन्न कर देती है । अत: दोनों दशाओं में साध्य स्वयं साधक को अपना लेता है, यह साध्य की महिमा है । इस महिमा को कोई जाने अथवा न जाने, माने अथवा न माने, साध्य की कृपाशक्ति तो अपना कार्य करती ही रहती है ।

साधनयुक्त जीवन में विलक्षणता यह है कि साधक की अल्प सामर्थ्य के आधार पर साधन निर्माण हो अथवा किसी विशेष सामर्थ्य के आधार पर, साध्य की प्राप्ति सभी साधकों को समान होती है; क्योंकि साधक, साधन और साध्य - इन तीनों में जातीय तथा स्वरूप की एकता है । अत: साधनयुक्त जीवन में सिद्धि निहित है, यह निर्विवाद सत्य है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 44-45)

Monday 7 July 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Monday, 07 July 2014 
(आषाढ़ शुक्ल दशमीं, वि.सं.-२०७१, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
साधन करने में कोई असमर्थ नहीं है

जो साधन साधक को रुचिकर होता है और जिसके प्रति किसी प्रकार का संदेह नहीं रहता, वह साधक का जीवन बन जाता है, जो सफलता का हेतु है । पर ऐसे साधन का निर्माण तभी हो सकता है, जब साधक अपनी योग्यता तथा सामर्थ्य के अनुरूप साधन स्वीकार करे । कोई भी साधक किसी भी परिस्थिति में यह नहीं कह सकता कि हम साधन नहीं कर सकते, क्योंकि परिस्थिति के अनुरूप ही साधन का निर्माण होता है । अत: प्रत्येक साधक को किसी-न-किसी साधना के सम्बन्ध में यह स्वीकार करना ही होगा कि हम कर सकते हैं । यह नियम है कि साधक पूरी शक्ति लगाकर जो साधन कर सकता है, उसी में सिद्धि निहित है । अत: साधक के जीवन में, साधन में असमर्थता और असफलता के लिए कोई स्थान ही नहीं है ।

यदि कोई साधक साधन निर्माण करने में असमर्थता अनुभव करता हो, पर उसे साधन करने की रुचि हो, तब भी साधन का निर्माण हो सकता है और सिद्धि मिल सकती है; क्योंकि यह नियम है कि चाह की अपूर्ति में स्वभाव से ही वेदना जागृत हो जाती है । जिस प्रकार तृषित प्राणी की जल की चाह न तो मिटाने से मिटती है, न घटती है, अपितु उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती है; जब तक जल नहीं मिल जाता, तब तक किसी भी प्रकार से उसे चैन से नहीं रहने देती; उसी प्रकार साधन करने की चाह साधक को उस समय तक चैन से नहीं रहने देगी, जब तक साधन का निर्माण नहीं हो जाएगा ।

जैसे, कोई भी प्रलोभन तथा भय तृष्णावान की तृषा को, जब तक उसका अस्तित्व है, मिटा नहीं सकता, अर्थात् जल के मिलने पर ही उसकी तृषा शान्त होती है, उससे पूर्व नहीं; उसी प्रकार साधन की तीव्र लालसा तब तक किसी प्रकार मिटती नहीं, जब तक साधन-निर्माण तथा साधन-निष्ठा प्राप्त नहीं हो जाती । इस दृष्टि से भी यह सिद्ध होता है कि साधक साधन-निर्माण में और साधननिष्ठ होने में स्वाधीन है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 43-44)

Sunday 6 July 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Sunday, 06 July 2014 
(आषाढ़ शुक्ल नवमीं, वि.सं.-२०७१, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
साधन करने में कोई असमर्थ नहीं है

जिस प्रकार कोई भी औषधि बड़ी या छोटी, ऊँची या नीची तथा भली या बुरी नहीं होती, अपितु जिस रोग की जो औषधि है, वह उसी के लिए उपयुक्त होती है, उसी प्रकार साधक को रुचि, योग्यता, विश्वास तथा सामर्थ्य के अनुरूप साधना ही साधक को सिद्धि प्रदान करने में समर्थ है । कभी भी दो रोगी परस्पर में सघर्ष नहीं करते कि तुम हमारी औषधि खाओ, तभी नीरोग हो सकते हो; चाहे वे किसी एक ही चिकित्सक से चिकित्सा क्यों न करा रहे हों । यह सम्भव है कि दो रोगियों को समान रोग हो, पर यह कभी सम्भव नहीं है कि दो व्यक्ति सर्वांश में समान रुचि, योग्यता तथा सामर्थ्य के हों । हाँ, आंशिक एकता दो साधकों में हो सकती है और उद्देश्य की एकता सभी साधकों में हो सकती है । इसी कारण प्रीति तथा लक्ष्य की एकता और साधन की भिन्नता अनिवार्य है ।

यदि रोगी अपने चिकित्सक अथवा औषधि को प्रशंसा करता रहे; किन्तु न तो चिकित्सक की आज्ञा का पालन करे और न विधिवत औषधि का सेवन ही करे तथा कुपथ्य का त्याग और सुपथ्य को ग्रहण भी न करे, तो क्या वह नीरोग हो सकता है ? कदापि नहीं । उसी प्रकार जो साधक अपने साधन की, अपने आचार्य की, अपने नेता की तथा अपने पैगम्बर की प्रशंसा तो करे, पर साधन को अपना जीवन न बनाए, तो क्या उसे सिद्धि प्राप्त हो सकती है ? कदापि नहीं ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 42)

Tuesday 1 July 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Tuesday, 01 July 2014 
(आषाढ़ शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०७१, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
साधन करने में कोई असमर्थ नहीं है

जिस प्रकार सोये हुए को जगाया जा सकता है, पर जो जगते हुए सो रहा है, उसे कोई नहीं जगा सकता; उसी प्रकार जो अपनी जानकारी का स्वयं आदर नहीं करता और प्राप्त बल का सदुपयोग नहीं करता, उसकी कोई भी सहायता नहीं कर सकता । क्योंकि प्राकृतिक नियम के अनुसार विवेक के अनादर से अविवेक की और बल के दुरुपयोग से निर्बलता की ही वृद्धि होती है । ज्यों-ज्यों प्राणी विवेक का अनादर तथा बल का दुरुपयोग करता जाता है, त्यों-त्यों विवेक में धुँधलापन और निर्बलता उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती है । यहाँ तक कि एक दिन विवेक-युक्त जीवन छिन्न-भिन्न हो जाता है और प्राणी साधन करने के योग्य नहीं रहता ।

साधक जो साधन कर सकते हैं, उसका न करना ही असाधन है । इसके अतिरिक्त असाधन जैसी कोई वस्तु नहीं है । अब विचार यह करना है कि ऐसा क्यों होता है ? तो कहना होगा कि साधक ने निज-विवेक के प्रकाश में प्राप्त सामर्थ्य का सदुपयोग करने का प्रयत्न नहीं किया । यह दोष साधक का अपना बनाया हुआ है, प्राकृतिक नहीं । सभी साधकों का उद्देश्य एक हो सकता है, पर साधन एक नहीं हो सकता । सभी साधकों में प्रीति की एकता हो सकती है, पर कर्म की नहीं । हाँ, यह हो सकता है कि अपने साधन का अनुसरण हो और अन्य के साधन का आदर हो ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘जीवन-दर्शन भाग 2' पुस्तक से, (Page No. 41-42)