Thursday 31 October 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 31 October 2013 
(कार्तिक कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हम क्या करें ?

दूसरों के द्वारा बलपूर्वक व्यक्तिगत सम्पत्ति के विभाजन-मात्र से समाज की गरीबी नहीं मिटेगी। अपितु समाज में आलस्य और विलास की ही वृद्धि होगी, जो दरिद्रता का मूल है । राष्ट्रगत सम्पत्ति हो जाने से सरकार के नाम पर समाज में एक नौकरशाही वर्ग उत्पन्न हो जाता है । समाज में बहुत थोड़े से लोगों के हाथों में देश की सारी सामर्थ्य आ जाती है । सामर्थ्य का अल्प संख्या में एकत्रित हो जाना, व्यक्तियों को सामर्थ्य के अभिमान में आबद्ध करना है, जो विनाश का मूल है । जब अधिक संख्या में सामर्थ्य विभाजित रहती है, तब मानव स्वाधीनतापूर्वक एकता तथा समता की ओर अग्रसर होता है। अकिंचन तथा स्वाधीन होने से व्यक्ति को अपने लिए सामर्थ्य की अपेक्षा नहीं रहती । फिर वह देहातीत अर्थात् जगत् से परे के जीवन को पाकर सन्तुष्ट हो, उदार तथा प्रेमी स्वत: हो जाता है; जिससे मानव की जगत् और जगत् के प्रकाशक से वास्तविक एकता हो जाती है । स्वाधीनता, उदारता और प्रेम उसका जीवन हो जाता है । उदारता, स्वाधीनता एवं प्रेम अविनाशी तथा अनन्त तत्त्व है अथवा यों कहो कि यह प्रभु का स्वभाव और मानव का जीवन है । पराश्रय से गरीबी नाश नहीं होती । इसी कारण सम्पत्ति के आश्रित शान्ति नहीं मिलती। परिश्रम पर-सेवा के लिए है । उसके बदले में अपने को कुछ नहीं चाहिए । तभी मानव श्रम के अंत में विश्राम को पाकर, स्वाधीन होकर उदार तथा प्रेमी हो जाता है । हमें यही करना है कि स्वाधीनता का सदुपयोग कर स्वाधीन हो जाएँ।

अपने लिए किसी अन्य की अपेक्षा न हो; अपितु अपने में जो प्रेमास्पद है, उसी की प्रीति अपना जीवन हो जाय । प्रीति और प्रीतम के नित्य-विहार में ही अनन्त, अविनाशी नित-नव रस की अभिव्यक्ति होती है । उसकी उपलब्धि ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य है, जिसकी प्राप्ति एक-मात्र स्वाधीनता का सदुपयोग एवं स्वाधीन होने में है । यह जीवन का सत्य है । सत्य से अभिन्न होने के लिए यह ज्ञानपूर्वक अनुभव करना है कि संसार में मेरा कुछ नहीं है, मेरा किसी पर कोई अधिकार नहीं है, अपितु मुझ पर सभी का अधिकार है । बुराई-रहित होने से सभी के अधिकार की रक्षा स्वत: हो जाती है और भलाई का अभिमान तथा फल छोड़ देने से मानव स्वाधीन होकर, अपने में अपने को सन्तुष्ट कर अविनाशी जीवन से अभिन्न हो जाता है और फिर अनन्त की अहैतुकी कृपा से उदारता तथा प्रेम की स्वत: अभिव्यक्ति होती है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 16-17)

Wednesday 30 October 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 30 October 2013 
(कार्तिक कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हम क्या करें ?

हम क्या करें ? यह एक सजग मानव की माँग है । इस सम्बन्ध में गम्भीरतापूर्वक विचार करने से यह स्पष्ट विदित होता है कि मिली हुई स्वाधीनता का दुरुपयोग न करें, अपितु पवित्र भाव से सदुपयोग करें अथवा यों कहो कि दुरुपयोग न करने पर सदुपयोग स्वत: होगा । यह एक प्राकृतिक विधान है । हाँ, विचारपूर्वक किए हुए सदुपयोग का अभिमान न करें और उसका अपने लिए फल न माँगें । केवल कर्त्तव्य-बुद्धि से करने की बात है, जिससे विद्यमान राग की निवृत्ति हो जाय । राग-निवृत्ति से ही स्वत: योग प्राप्त होता है । यह प्रकृति से परे का विधान है । योग की पूर्णता से बोध एवं प्रेम की अभिव्यक्ति होती है । यह प्रभु का मंगलमय विधान है। प्रकृति का विधान कर्त्तव्य-विज्ञान और प्रकृति से परे का विधान अध्यात्मवाद एवं प्रभु का मंगलमय विधान आस्तिकवाद है ।

यह सर्व मान्य सत्य है कि प्रत्येक मानव में करने, जानने और मानने की सामर्थ्य है । वह उसे अपने रचयिता से प्राप्त हुई है । वह किसी प्रयास का फल नहीं है । इतना ही नहीं, यदि यह मान लिया जाय कि इन तत्त्वों की प्राप्ति से ही प्रयास का आरम्भ होता है, तो अत्युक्ति न होगी । सामर्थ्य का दुरुपयोग न करना कर्त्तव्य-विज्ञान है, इससे मानव, जगत के लिए उपयोगी होता है; किन्तु जगत में अपना कुछ नहीं है । अत: अपने को जगत् से कुछ नहीं चाहिए । यह अध्यात्म-विज्ञान अर्थात मानव-जीवन का दर्शन है । दर्शन हमें स्वाधीन होने की प्रेरणा देता है । निर्मम तथा निष्काम होने से ही स्वाधीनता से अभिन्नता होती है। जीवन-विज्ञान बुराई-रहित होने की प्रेरणा देता है और फिर स्वत: परिस्थिति के अनुसार भलाई होने लगती है । यही भौतिकवाद तथा कर्त्तव्य-विज्ञान है । यह कर्त्तव्य मानव को स्वत: करना चाहिए । यही मानवीय साम्य है, सच्चा साम्य है। यह साम्य मानव को स्वाधीनतापूर्वक अपने द्वारा अपने लिए अपनाना चाहिए। तभी व्यक्तिगत क्रान्ति से समाज और व्यक्ति में एकता होगी ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 15-16)

Tuesday 29 October 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 29 October 2013 
(कार्तिक कृष्ण दशमीं, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
जीवन-क्रान्ति की दिशा में एक अमर सन्देश

02-12-1972

मानव-मात्र में बीज रूप से मानवता विद्यमान है । उस विद्यमान मानवता को विकसित करने के लिए, एकमात्र सत्संग-योजना ही अचूक उपाय है । बलपूर्वक जो परिवर्तन आता है, वह स्थायी नहीं होता है और उसकी प्रतिक्रिया भी होती है । गुण-दोष व्यक्तिगत हैं। किसी वर्ग विशेष को सदा के लिए हृदयहीन, बेईमान मान लेना न्यायसंगत नहीं है। सभी वर्गों में भले व बुरे व्यक्ति होते हैं । जीवन के परिवर्तन से क्रान्ति आती है, परिस्थिति-परिवर्तन से नहीं ।
                                                                  
जीवन में परिवर्तन, जाने हुए असत् के त्याग से होता है, बल से नहीं । असत् के त्याग की प्रेरणा व्यापक हो सकती है, व्यक्तिगत सत्संग के प्रभाव से। क्या आप यह नहीं जानते हैं कि एक-एक महापुरुष के पीछे हजारों व्यक्ति चलते हैं, लेकिन हजारों व्यक्ति मिलकर एक महापुरुष नहीं बना सकते ?

अधिकार-लालसा ने अकर्मण्यता को पोषित किया है और हिंसात्मक प्रवृत्तियों को जन्म दिया है, जो विनाश का मूल है । प्राकृतिक विधान के अनुसार दूसरों के साथ किया हुआ कालांतर में कई गुना होकर अपने प्रति हो जाता है। इस दृष्टि से बुराई के बदले बुराई करना अहितकर ही है । तो फिर सत्संग-योजना के अतिरिक्त और कोई उपाय क्रान्ति का नहीं है । यह जीवन का सत्य है ।

मिली हुई स्वाधीनता का दुरुपयोग मत करो और न पराधीन रहो । यह महामंत्र ही व्यक्तिगत तथा सामाजिक क्रान्ति में उपयोगी सिद्ध होगा, ऐसा मेरा विश्वास तथा अनुभव है । जो सत्य जीवन में आ जाता है, वह अवश्य विभु हो जाता है, यह वैज्ञानिक सत्य है । व्यक्तिगत क्रान्ति से ही सामाजिक क्रान्ति होगी, इस वास्तविकता में अविचल रहना चाहिए; सफलता अवश्यम्भावी है। परम प्रिय छात्र अध्यापकों की सेवा में इन वाक्यों को सुना देना । आशा है, वे धीरजपूर्वक मनन करेंगे और काम में लायेंगे । सभी को सप्रेम यथोचित निवेदन करना । ॐ आनन्द !

सद्भावना सहित
शरणानन्द


 - (शेष आगेके ब्लाग में) 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 13-14)

Monday 28 October 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 28 October 2013 
(कार्तिक कृष्ण नवमीं, वि.सं.-२०७०, सोमवार)

प्रेरणा पथ

श्रीवृन्दावन धाम
  11 - 11 -73

प्राणप्यारे के प्रिय जनों !

सविनय सेवा में निवेदन है कि जो सदैव होने से अभी और सभी का होने से अपना और सर्वत्र होने से अपने में मौजूद है वही समर्थ है, वही सर्वेश्वर है और वही प्रेमियों का प्राणेश्वरहै । उसी को साधन-तत्त्व अर्थात् गुरु-तत्त्व एवं साध्य-तत्त्व भी कहते हैं । वह गुरु-तत्त्व साध्य का ही प्रतिरूप है, साध्य की कृपा-मूर्ति ही गुरु-मूर्ति है । यह प्रेमी जनों का अनुभव है । साधक की गुरु-तत्त्व से ही अभिन्नता होती है, और गुरु-तत्त्व सर्वदा ही साध्य-तत्त्व से अभिन्न है ।

निज ज्ञान-गुरु के प्रकाश में अनुभव करो कि प्रतीति का प्रकाशक और उत्पत्ति का आधार जो है, वही अनादि, अनन्त, अविनाशी तत्त्व है । उसी से साधकों की जातीय एकता तथा नित्य सम्बन्ध है और वे ही सबके अपने हैं । यह वास्तविकता सद्गुरु-वाणी के द्वारा ही स्वीकार की जाती है । स्वीकृति के अनुरूप प्रवृत्ति स्वत: होने लगती है । अत: जिन भागवत जनों ने गुरु-मुख द्वारा उसे, जिसे इन्द्रिय, मन, बुद्धि के द्वारा देखा नहीं, अपितु गुरु-वाणी के द्वारा स्वीकार किया है, वे धन्य हैं । गुरु-तत्त्व के बिना अनन्त अगोचर प्राणेश्वर से आत्मीय सम्बन्ध हो ही नहीं सकता । इस दृष्टि से गुरु-तत्त्व ही एक मात्र श्री हरि से मिलाने में हेतु है । ज्ञान का प्रकाश दृश्य से सम्बन्ध-विच्छेद कर सकता है और साधक के सर्व दुःखों की निवृत्ति हो सकती है; किन्तु नित नव-रस की उपलब्धि के लिए तो आस्था, श्रद्धा, विश्वासपूर्वक गुरु-वाणी द्वारा ही उसे स्वीकार किया जाता है, जो सभी का सब कुछ है । आत्मीय सम्बन्ध ही एकमात्र अखण्ड स्मृति तथा अगाध प्रियता की अभिव्यक्ति में हेतु है ।

यह रहस्य वे ही साधक जान पाते हैं, जिन्होंने सद्गुरु-वाणी को अपनाया है । गुरु-तत्त्व की प्राप्ति होने पर ही भगवत्-तत्त्व की प्राप्ति होती है । यह भगवत्प्राप्त साधकों का अनुभव है । निज-ज्ञान के आदर से साधक चिर-शान्ति, जीवन-मुक्ति प्राप्त कर सकता है । परन्तु भक्ति-तत्त्व की प्राप्ति में तो एक मात्र सद्गुरु-वाणी में अविचल आस्था, श्रद्धा, विश्वास ही अचूक उपाय है । यह जीवन का सत्य है । हम सभी सद्गुरु जयन्ती महोत्सव मना रहे हैं । हमें अपने आपके सम्बन्ध में सजीवता लानी चाहिए । वह तभी सम्भव होगी, जब हम अपने में अपने परम प्रेमास्पद को स्वीकार कर निश्चिन्त तथा निर्भय हो जायें। सर्व-समर्थ प्रभु अपनी अहैतुकी कृपा से अपने विश्वासी जनों को अपनी आत्मीयता प्रदान करें, जिससे वे पावन प्रीति पाकर कृत-कृत्य हो जायें ! इसी सद्भावना के साथ,

अकिंचन
शरणानन्द

 - (शेष आगेके ब्लाग में) 'प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 11-12)

Sunday 27 October 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 27 October 2013 
(कार्तिक कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७०, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
बल का सदुपयोग तथा विवेक का आदर

आज जिसे हम जीवन कहते हैं, वह तो जीवन की साधन सामग्री है, जीवन नहीं है । यदि हमें जीवन प्राप्त होता, तो जीवन की लालसा न रहती और न किसी प्रकार का भय होता । लालसा अप्राप्त की होती है और भय किसी अभाव में होता है । क्या आज हमारा जीवन लालसा और भय से मुक्त है ? यदि नहीं, तो यह मानना ही होगा कि हमें अभी वास्तविक जीवन प्राप्त नहीं हुआ ।

यह नियम है कि अप्राप्त की जिज्ञासा स्वत: जागृत होती है । जिज्ञासा की जागृति अस्वाभाविक इच्छाओं को खा लेती है । स्वभावत: अस्वाभाविक इच्छाओं के मिटते ही बल का सदुपयोग तथा विवेक का आदर स्वत: होने लगता है, जो मानव में छिपी हुई मानवता को विकसित करने में समर्थ है । पूर्ण मानवता आ जाने पर ही भक्त को भगवान्, जिज्ञासु को तत्व-ज्ञान, योगी को योग, और भौतिकवादी को विश्व-प्रेम स्वत: प्राप्त हो जाता है ।

अब हमें यही सीखना और सिखाना है कि बल के सदुपयोग और विवेक के आदर द्वारा ही हम लोग अपने में छिपी हुई मानवता को विकसित करने में प्रयत्नशील रहें ।

मानव-जीवन में एक बड़ी अलौकिक बात है । वह यह है कि यह ऐसी बात की आशा नहीं दिलाता, जिसे आप वर्तमान में प्राप्त नहीं कर सकते और न किसी ऐसी आशा की ओर ही ले जाता है, जिसकी पूर्ति दूसरों पर निर्भर हो । यदि कोई कहे कि क्या संसार से हमें कुछ नहीं मिल सकता ? क्या भगवान् से हमें कुछ नहीं लेना है ? तो विचार करो, यह तो प्रश्न तभी उत्पन्न हो सकेगा, जब मानवता से बढ़-कर भी और कोई वस्तु हो । मानवता से संसार के तो अधिकार की रक्षा हो जाती है, जो संसार को अभीष्ट है और संसार के पास कोई ऐसी वस्तु ही नहीं है, जो मानवता के लिये अपेक्षित हो ।

अत: यह सिद्ध हो जाता है कि मानवता प्राप्त हो जाने पर संसार से कुछ भी लेने की आवश्यकता नहीं रहती । अब रही भगवान् से लेने की बात, तो वह इसलिये उत्पन्न नहीं होती कि मानवता प्रेम से परिपूर्ण कर देती है । प्रेम ही भगवान् को अत्यन्त प्रिय है । वही उनका मानव पर अधिकार है । इससे यह सिद्ध हुआ कि मानवता सभी के अधिकारों की पूर्ति करती है । जो मानवता अधिकार-पूर्ति में समर्थ है, भला, उसके मिलने पर किसी से कूछ माँगने की बात शेष रहती ही कहाँ है ? यद्यपि वह मानवता भगवान् की अहैतुकी कृपा से ही प्राप्त है ।

संसार के अधिकारों की रक्षा का परिणाम यह होता है कि मानवता संसार में विभु हो जाती है और प्रेम का परिणाम यह होता है कि प्रेमी भगवान् से अभिन्न हो जाता है, जो मानव की वास्तविक माँग है और जिसकी उपलब्धि साधन-युक्त जीवन से ही सम्भव है । साधन करनें में प्रत्येक साधक सर्वदा स्वतन्त्र है।  ।। ऊँ ।।



 - 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 75-76)

Saturday 26 October 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 26 October 2013 
(कार्तिक कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७०, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
बल का सदुपयोग तथा विवेक का आदर

जितेन्द्रियता से चरित्र-निर्माण और निर्विकल्पता से आवश्यक शक्ति का विकास स्वतः होता है, तथा समता से चिर-शान्ति आ जाती है। चिर-शान्ति आ जाने पर हमें स्वाभाविक अमर-जीवन प्राप्त हो जाता है । चरित्र-बल के समान और कोई बल नहीं है । निर्विकल्पता के समान और कोई शक्ति-संचय का साधन नहीं है और समता के समान कोई शान्ति नहीं है । यह सब कुछ मानव-जीवन में ही निहित है। इस जीवन की प्राप्ति के लिये प्राप्त परिस्थिति के सदुपयोग के अतिरिक्त किसी अप्राप्त परिस्थिति तथा वस्तु की आवश्यकता नहीं है । यदि वस्तुओं से जितेन्द्रियता प्राप्त होती, तो उन्हें हो जाती, जिनके पास वस्तुओं का संग्रह है और यदि किसी बल-विशेष से प्राप्त होती, तो आज संसार में बल का दुरुपयोग ही क्यों होता ? जब यह निश्चित है कि जितेन्द्रियता किसी वस्तु पर निर्भर नहीं है, किसी बल पर निर्भर नहीं है, तो फिर हम यह कैसे कह सकते हैं कि अमुक वस्तु हमारे पास नहीं है, इसलिये जितेन्द्रियता नहीं आ सकती ? जिन साधनों से जितेन्द्रियता प्राप्त होती है, वे साधन मानव-मात्र को प्राप्त हैं ।
                                                                                             
अब आप प्रश्न कर सकते हैं कि क्या निर्बल इन्द्रिय-लोलुप नहीं हो सकता? हाँ,वास्तविक निर्बल में इन्द्रिय-लोलुपता नहीं होती और न बल का सदुपयोग करने वाले में ही होती है । तो इन्द्रिय-लोलुपता पता है किसमें होती है? उसमें जो बल का दुरुपयोग करता है । भाई ! आज हमें इस झगड़े में नहीं पड़ना है कि हममें कितना बल है और कितना विवेक । जितना भी बल हमारे पास है, उसका हमें सदुपयोग करना है । ज्यों-ज्यों हम बल का सदुपयोग करते जायेंगे, त्यों-त्यों आवश्यक बल प्राप्त होता जाएगा और अन्त में हम उस प्राप्त बल के अभिमान से भी मुक्त हो जायेंगे । 

बल के संग्रह-मात्र से कोई बल के अभिमान से मुक्त नहीं हो सकता। प्राप्त बल के सदुपयोग से जब हमें आवश्यक बल मिलेगा, तब हम बल के अभिमान से मुक्त होने के अधिकारी हो जायेंगे । बल के अभिमान से मुक्त होने का प्रश्न तभी उत्पन्न होता है, जब पहले आवश्यक बल प्राप्त हो । किसी अप्राप्त वस्तु के अभिमान से मुक्त होने का तो प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता । जो आवश्यक बल है, वह निर्विकल्पता में ही निहित है । निर्विकल्पता बुद्धि की समता में निहित है और बुद्धि की समता विवेक में निहित है ।

अत: विवेक से ही हम बुद्धि की समता प्राप्त करें और बुद्धि की समता से मन में निर्विकल्पता प्राप्त करें । मन में निर्विकल्पता आ जाने पर बुरे संकल्प अर्थात् अमानवता के संकल्प मिट जाते हैं और भले संकल्प अर्थात् मानवता के संकल्प पूरे हो जाते हैं । भले संकल्प पूरे होने पर और बुरे संकल्प मिट जाने पर निर्विकल्पता समता में विलीन हो जाती है ।

मानवता हमें निर्विकल्पता में आबद्ध रहने के लिये विवश नहीं करती। वह हमें बताती है कि निर्विकल्पता भी एक आवश्यक स्थिति मात्र है । इससे हमें बुद्धि के सम होने की योग्यता प्राप्त होती है । समता से हमें अलौकिक विवेक से अभिन्नता प्राप्त होती है । और इसी अभिन्नता में हमें वास्तविक अनन्त नित्य-चिन्मय जीवन प्राप्त होता है । उस दिव्य जीवन का प्राप्त होना ही अपना कल्याण है।



 - (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 72-74)

Friday 25 October 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 25 October 2013 
(कार्तिक कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
बल का सदुपयोग तथा विवेक का आदर

वस्तुओं का सम्बन्ध प्राण तक है, इससे आगे नहीं । प्राण का सम्बन्ध शरीर तक है, इससे आगे नहीं और शरीर का सम्बन्ध मृत्यु से पूर्व तक है, इससे आगे नहीं। आप देखिये, जिस शरीर पर हम विश्वास करते हैं, उसका जन्म होते ही मृत्यु आरम्भ हो जाती है ।  जो शरीर निरन्तर काल रूपी अग्नि में जल रहा है, उस पर विश्वास करना क्या सही है ? इसका अर्थ कोई यह न समझे कि शरीर का नाश कर लिया जाय । क्योंकि किसी वस्तु को मिटाने की बात सोचना भी उसके अस्तित्व को स्वीकार करना है और उस वस्तु से द्वेष करना है, जो वास्तव में एक प्रकार का सम्बन्ध है । अत: जो शरीर और वस्तुएँ हमें प्राप्त हैं, उनको मिटाने की न सोचें, उनके सदुपयोग की बात सोचें । यदि हम वस्तुओं के उपभोग अथवा विनाश की बात सोचेंगे, तो वह सही न होगा और उसका परिणाम मानवता न होकर अमानवता होगा । और वह साधन भी नहीं है । अत: बड़ी ही सावधानी से हमें प्राप्त बल तथा वस्तुओं का सदुपयोग करना है ।  उस सदुपयोग के लिये अपने ज्ञान के प्रकाश में अपने जीवन को रखना है ।

हमारा वर्तमान जीवन क्या है ? कुछ करना, कुछ मानना और कुछ जानना । जो कुछ हम करें, वह विवेक के प्रकाश से प्रकाशित होकर करें। जो कुछ मानें वह विवेक के प्रकाश में ही मानें और जो कुछ जानें वह स्वयं से जानें । स्वयं से जानने का अर्थ होता है - किसी करण द्वारा न जानें । यह बडी सूक्ष्म बात है । करण के द्वारा हम जो कुछ जानते हैं, वह पूरा नहीं जानते। विचार कीजिए, इन्द्रियों द्वारा जिस वस्तु को आप जैसे जानते हैं, वह वास्तव में वैसी ही है क्या ? आपको मानना होगा कि वैसी नहीं है । नेत्र से सूर्य छोटा सा दिखाई देता है, परन्तु क्या सूर्य छोटा सा है ? कहना होगा, नहीं ।

ऐसे ही बुद्धि से जो हम जानते हैं, क्या वह सही जानते हैं ? यद्यपि इन्द्रियों की अपेक्षा बुद्धि का ज्ञान अधिक सही है, पर वास्तविक ज्ञान तो बुद्धि के मौन होने पर ही होता है, जो विलक्षण है । बुद्धि से जानने का भी जीवन में स्थान है, और इन्द्रियों से जानने का भी जीवन में स्थान है । इन्द्रियों द्वारा जो हम जानते हैं, उससे तो हमें केवल वस्तुओं का उत्पादन कर उपभोग करना है और बुद्धि द्वारा जो कुछ हम जानते हैं, उससे केवल वस्तुओं के सतत् परिवर्तन को जानना है ।

वस्तुओं के सतत् परिवर्तन को जानकर हम राग से रहित हो जाते हैं और राग से रहित हो जाने पर बुद्धि की आवश्यकता शेष नहीं रहती । जब बुद्धि का कार्य पूरा हो जाता है, तब वह स्वत: अपने अधिष्ठान में विश्राम पा जाती है, तब हमारा मन निर्विकल्प होकर बुद्धि में विलीन हो जाता है और इन्द्रियाँ विषयों से विमुख होकर अविषय हो जाती हैं, अर्थात् बुद्धि के सम होते ही निर्विकल्पता, जितेन्द्रियता और समता आ जाती है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 71-72)

Thursday 24 October 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 24 October 2013 
(कार्तिक कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
बल का सदुपयोग तथा विवेक का आदर

साधन-निर्माण के लिये अधिकार-भेद से विश्वास भी अपेक्षित है, चिन्तन भी अपेक्षित है, प्रवृत्ति भी अपेक्षित है और सम्बन्ध भी अपेक्षित है । पर, सम्बन्ध किसके साथ हो ?  विश्वास किस पर हो ? चिन्तन किसका हो ? प्रवृत्ति कैसी हो ? इन्हीं पर विचार करना है ।  इन्हीं को देखना है । केवल भगवत्-विश्वास अथवा कर्त्तव्य-विश्वास ही साधन रूप विश्वास है । तत्व-चिन्तन अथवा प्रिय-चिन्तन ही सार्थक-चिन्तन है । जिस प्रवृत्ति में दूसरे का हित निहित है, वही सार्थक प्रवृत्ति है, सबसे अथवा अपने से अथवा प्रभु से सम्बन्ध जोड़ना ही सार्थक सम्बन्ध है ।

इसका यह अर्थ हुआ कि जितनी भी चीजें हमारे जीवन में हैं, वे सब ज्यों-के-त्यों हैं, पर, उनके रूप और स्थान बदल गये । स्थान बदलते ही वे साधन-रूप हो गये और साधन-रूप होते ही साधक और साधन में अभिन्नता हो गई तथा साधन से अभिन्नता होते ही साध्य की प्राप्ति हो गई । इससे यह सिद्ध हुआ कि हम सब साधक बनने में सर्वदा स्वतन्त्र हैं, परतन्त्र नहीं । कारण, कि जिस सामग्री की आवश्यकता साधन में होती है, वह सारी सामग्री हमारे और आपके पास है ।

विश्वास वही सुरक्षित रहता है, जिसमें अपनी अनुभूति का विरोध न हो । आज हम अपनें विश्वास की खोज करें, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जाग्रति तथा स्वप्न की सभी वस्तुएँ गहरी नींद अर्थात् सुषुप्ति में हमें प्रतीत नहीं होती । पर हम उस समय दुःख से रहित होते हैं । इससे यह सिद्ध हो जाता है कि जाग्रति एवं स्वप्न की वस्तुओं के बिना हम दुखी नहीं होते । हमारी यह अनुभूति जाग्रति और स्वप्न में प्रतीत होने वाली वस्तुओं के विश्वास को खा लेती है । जिन वस्तुओं की प्रतीति सुषुप्ति में ही नहीं रहती, उनका अस्तित्व भला, समाधि और मुक्ति में कैसे रहेगा ?

 यद्यपि विश्वास बड़े ही महत्व की वस्तु है, पर वह भगवान् के प्रति हो, कर्त्तव्य के प्रति हो, अपने गुरु के प्रति हो अथवा अपने पर हो । इसके अतिरिक्त विश्वास का साधन में कोई स्थान नहीं है । अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि उपर्युक्त बिश्वासों के अतिरिक्त क्या हम उन वस्तुओं पर जो प्राप्त हैं अथवा निकटवर्ती सम्बन्धियों पर एवं अन्य व्यक्तियों पर विश्वास न करें ? तो कहना होगा - 'न करें' । तो क्या करें ? वस्तुओं का सदुपयोग करें और व्यक्तियों की सेवा करें । आपको जो व्यक्ति मिला है, वह विश्वास करने के लिए नहीं, सेवा करने के लिए मिला है । आपको जो वस्तुएँ मिली हैं, वह संग्रह करने के लिये अथवा विश्वास करने के लिए नहीं मिली हैं । वे सदुपयोग करने के लिये मिली हैं ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 69-71)