Saturday 17 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 17 December 2011
(पौष कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 1

        एक बार एक अंग्रेज युवक हमारे मानव सेवा संघ आश्रम में आया । भिखारी वेश समझिए, साधु वेश समझिए। हम लोगों जैसे तो कपड़े नहीं थे। तो वह आश्रम में ठहरा रहा। हमारे यहाँ नियम है कि कोई ठहरना चाहे तो ठहर सकता है। हमने उससे कुछ नहीं कहा कि तुम हमारे सत्संग में बैठो या हमारी बात मानो । कोई उसपर पाबन्दी नहीं डाली । तो उससे हमने प्रश्न किया । हमने कहा कि तुमने कोई ऐसा देश देखा है कि जिसके पास कुछ भी न हो और वह आराम से रह ले, जैसा कि हिन्दुस्तान में रहता है । ईमानदार आदमी था । उसने कहा, हमने ऐसा कोई देश नहीं देखा । यह हमारे गरीब देश की महिमा है।

        अमेरिका में जाओ, इंग्लैण्ड में जाओ, चीन में जाओ। या तो सरकार की पेंशन खाओ या भूखे मर जाओ । एक आदमी अपरिचित चला जाय । एक आदमी ऐसा चला जाय जिसका सरकार से कोई सम्बन्ध न हो, तो वह भूखा मर जाएगा। तो अकेली सरकार अमीर हो गयी और सब गरीब हो गए । सरकार दिन-रात माँग रही है । टैक्स पर टैक्स बढ़ते जाते हैं, टैक्स पर टैक्स बढ़ते चले जा रहे हैं ।
               
        मैं तो आपसे यह निवेदन करना चाहता हूँ कि यह गरीबी मिटाने का उपाय नहीं है । जो आप यूरोप (Urope) की नकल कर रहे हैं । टैक्स बढ़ाना तो आपने सीख लिया, सुविधा देना नहीं सीख पाया । अधिकार माँगना तो सीख लिया, क्या कर्तव्यपरायणता को भी अपनाया ? अधिकार माँगनेवाला सदा ही दरिद्र रहेगा । कभी उसकी दरिद्रता मिट नहीं सकती। कर्तव्यनिष्ठ की दरिद्रता मिटती है । कर्तव्यनिष्ठता का अर्थ है दूसरों के अधिकारों की रक्षा करो । यह कर्तव्यपरायणता का अर्थ है। अगर तुम दूसरों के काम आते रहोगे तो तुम्हारी दरिद्रता मिट जाएगी । अगर स्वयं काम-रहित (कामना-रहित) हो जाओगे, तो तुम्हारी गरीबी मिट जाएगी ।  

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी, भाग - 8' पुस्तक से । (Page No. 15-16)

Friday 16 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 16 December 2011
(पौष कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 1

        कोई कहता है - धन बाँट दो गरीबी मिट जाएगी । कोई कहता है - धन छीन लो गरीबी मिट जाएगी । कोई कहता है - कर्ज दे दो गरीबी मिट जाएगी। क्या तमाशा बना रखा है ?

        एक आदमी की गरीबी सारा संसार मिल कर मिटाना चाहे तो नहीं मिटा सकता और यदि आप अपनी गरीबी मिटाना चाहे तो अभी-अभी हम और आप अपनी गरीबी को मिटा सकते हैं। कैसे ? बल का सदुपयोग करके, ज्ञान का आदर करके, निर्विकल्प विश्वास करके हम अपनी गरीबी मिटा सकते हैं । क्यों ? बल के सदुपयोग से कर्तव्यपरायणता आ जाएगी । कर्तव्यपरायणता से हम राग-रहित हो जाएँगे, ज्ञान के आदर से हम निर्मम, निष्काम और असंग होकर क्रोध-रहित हो जाएँगे, विषमता-रहित हो जाएँगे, पराधीनता-रहित हो जाएँगे और आत्मीयता से जाग्रत प्रियता से नीरसता-रहित हो जाएँगे और इस प्रकार गरीबी मिट जाएगी ।

        गरीबी मिटाने का उपाय वैज्ञानिक के पास नहीं है । गरीबी मिटाने का उपाय किसी कलाकार के पास नहीं है । गरीबी मिटाने का उपाय किसी साहित्यिक के पास नहीं है । गरीबी मिटाने का उपाय तो मानव-मात्र के पास है । वह क्या है ? सत्संग । सत्संग से गरीबी मिटेगी । क्यों ? अब इसको जरा वैज्ञानिक दृष्टि से सोचिए - वैज्ञानिक दृष्टि से ।

        वैज्ञानिक तथ्य क्या है ? आप अनुभव करके देखें । अगर हमारे जीवन में निर्लोभता आ जाती तो हम संग्रही होते क्या? बोलो, अनुदार होते क्या ? अगर हमारे जीवन में निर्लोभता आ जाती तो हम भिखारी होते क्या ? बोलो । भिखारी भी नहीं होते, अनुदार भी नहीं होते, संग्रही भी नहीं होते । जिसके जीवन में भिखारी-पन चला गया, अनुदारता चली गयी, संग्रह चला गया, वहाँ गरीबी टिकेगी ? क्या राय है ? कभी भी नहीं रह सकती है। यह इतना जबरदस्त भ्रम है हम लोगों को ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी, भाग - 8' पुस्तक से । (Page No. 14-15)

Thursday 15 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 15 December 2011
(पौष कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 1

        धूम मचाए हैं, गरीबी मिटेगी, गरीबी मिटेगी । कैसे मिटेगी ? कि सेठ को हटा दो सैक्रेट्री को रख दो । रानी के पेट से निकला हुआ राजा नापसन्द है तो जनता के पेट से निकला हुआ मिनिस्टर गरीबी मिटाएगा ? बिल्कुल भ्रमात्मक धारणा है । उन्होंने कहा साहब, गरीबी तब मिटेगी, जब सारे संसार में बहुत से कल-कारखाने हो जाएँगे । अरे, जिन देशों में बहुत से कल-कारखाने हो गए हैं, उनकी गरीबी नहीं मिटी। गरीबी मिटती तो क्या वे यह कहते ।

        किसी पैसेवाले से जाकर मिलना और पूछना कि ईमानदारी से कहना - तुम्हारी तो गरीबी मिट गयी होगी । भगवान की कृपा है - टालमटोल करेगा । तो बता भाई तेरी गरीबी तो मिट गई होगी, फिर कर्जा क्यों देतो हो किसी को ? जब तुम्हारे मन में भी धन बढ़ाने की इच्छा है और मैं एक मजदूर हूँ मेरे मन में धन बढ़ाने की इच्छा है तो बताओ वस्तुस्थिति में क्या फर्क रह गया? क्या कर्ज बाँटनेवाला गरीब नहीं है ?

        कर्ज लेनेवाला ही गरीब है क्या ? सोचो जरा ईमानदारी से। क्यों भैया ईमानदारी से बताओ - तुमको किसी से भय तो नहीं है? अभय हो गए, चिन्ता नाश हो गयी ? स्वाधीन हो गए, अमर हो गए ? अमर हो नहीं गया, निर्भय हो नहीं गया, स्वाधीन हो नहीं गया, चिन्ता मिटी नहीं और गरीबी मिट गयी ! कितना हम अपने आपको धोखा देते हैं, कितना हम अकारण दुखी होते हैं, परेशान होते हैं । अजी, गरीबी तो जीवन में इसलिए है क्योंकि आपको पराधीनता प्रिय है । गरीबी तो इसलिए है जीवन में क्योंकि आपको अनुदारता प्रिय है । गरीबी तो इसलिए है क्योंकि तुम्हें प्रेम अप्रिय है ।

        जहाँ प्रेम की गंगा लहराती हो, जहाँ स्वाधीनता का जीवन हो, जहाँ उदारता का जीवन हो वहाँ कहाँ गरीबी ? लेकिन बड़े ही दुःख के साथ कहना पड़ता है कि आज हम मानव होकर मानव-जीवन का कितना अनादर कर रहे हैं, कितनी असावधानी बरत रहे हैं, कितना अपने को धोखा दे रहे हैं ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी, भाग - 8' पुस्तक से । (Page No. 13-14)

Wednesday 14 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 14 December 2011
(पौष कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 1

        कल्पना करो, आज का सुधारवादी नेता धूम मचाए हुए है कि गरीबी मिटाओ, गरीबी मिटाओ । मैं आपसे निवेदन करना चाहता हूँ । एक उदाहरण आपके सामने रखना चाहता हूँ। आप मुझको यह बताइये कि गरीबी कहाँ नहीं है। कोई ऐसा देश बताइये, कोई ऐसा वर्ग बताइये जहाँ गरीबी न हो। जहाँ बहुत बड़ी अमीरी दिखाई देती है वहाँ गरीबी का दर्शन होता है या नहीं । अगर कोई ईमानदार मानव इस बात को सिद्ध कर दे कि हमने अमुक परिस्थिति में ऐसा पाया कि जहाँ गरीबी नहीं थी ।

        गरीबी का अर्थ जरा सोचिए तो सही । जबतक हमको उससे (परमात्मा से) भिन्न, जो अपने में है कुछ भी चाहिए, तबतक गरीबी मिट सकती है क्या ? बोलो भई बोलो । जबतक हमें वह चाहिए जो अपने में नहीं है, जो अभी नहीं है उससे भिन्न यदि चाहिए तो गरीबी मिट सकती है क्या ? हाँ, गरीबी का रूप बदल जाएगा । रूप क्या बदल जाएगा ? जैसे 3/4 लिखते हैं न, उसे कोई 75/100 लिख दे । तो देखने में तो बहुत बड़ी संख्या हो गयी, पर अर्थ में क्या अन्तर पड़ा ?

        हमसे बताइये, एक व्यक्ति को बताइये, जो ईमानदारी से यह कह सके कि परिस्थिति के आश्रित होकर, संसार के आश्रित होकर मेरे सभी संकल्प पुरे हो गए । ऐसा कोई नहीं मिलेगा । सारे विश्व में नहीं मिलेगा । इतना ही नहीं, दूसरी यह बात भी कि कोई ऐसा आदमी भी नहीं मिलेगा जो कहे कि मेरा कोई संकल्प पूरा नहीं हुआ । भई, जब सभी संकल्प किसी के पुरे नहीं होते और कुछ संकल्प सभी के पुरे होते हैं । यदि यह जीवन का सत्य है तो निःसंकल्प हुए बिना गरीबी कैसे मिटेगी ?

        गम्भीरता से विचार किया जाय, बड़े धीरज से इस बात पर विचार किया जाय कि जबतक हम निर्विकल्प नहीं होते तबतक गरीबी कैसे मिटेगी ? जबतक निःसंकल्प नहीं होंगें तबतक निर्विकल्प होंगे कैसे ? निर्मम होने से निःसंकल्प होंगे, निःसंकल्प होने से निर्विकल्प होंगे । निर्विकल्प होने से गरीबी क्यों मिटेगी ? इसलिए मिटेगी कि जीवन अभी है, अपने में है। इसलिए गरीबी मिटेगी ।

        अगर जीवन अपने में न होता, तो निर्विकल्प होने से गरीबी कभी नहीं मिटती । किन्तु महानुभाव, हम इस वास्तविकता पर विचार नहीं करते, जीवन का अध्ययन नहीं करते, जीवन के सत्य को स्वीकार नहीं करते ।  

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी, भाग - 8' पुस्तक से । (Page No. 12-13)

Tuesday 13 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 13 December 2011
(पौष कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)   
प्रवचन - 1

        गम्भीरता से विचार करें। महानुभाव, ईश्वरवाद का अर्थ अभ्यासवाद नहीं है, ईश्वरवाद का अर्थ विश्वासवाद है। ईश्वरवाद का अर्थ विचारवाद नहीं है, ईश्वरवाद का अर्थ आत्मीयतावाद है । ईश्वर में विश्वास करो और उसे अपना मानो और अभी मानो ।  इसका नाम ईश्वरवाद है ।

        ईश्वरवाद का अर्थ यह भी नहीं है कि हम ईश्वरवादी होकर, ईश्वर को अपना मानकर ईश्वर के सामने सदा हाथ पसारे रहें। हमें यह दे दो, हमें यह दे दो, हमें यह दे दो । जो हमें चाहिए वह बिना माँगे ही हमें मिलता है और जो बिना माँगे नहीं मिलता है, वह माँगने से भी नहीं मिलता । तो फिर माँगने का अर्थ क्या हुआ? इसलिए यह विधान ही है कि जो हमें चाहिए, वह बिना माँगे मिल जाएगा । और माँगने से भी कुछ नहीं मिलता तो माँगने का कोई अर्थ ही नहीं है ।

        यह मानव-जीवन है परमात्मा को अपने में, अभी प्राप्त करने के लिए । यह मानव-जीवन है मिली हुई वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य के द्वारा संसार के काम आने के लिए । यह मानव-जीवन है ज्ञानपूर्वक निर्मम, निष्काम, असंग होकर अपने में संतुष्ट होने के लिए । यह आपका-हमारा मानव-जीवन है ।

        मानव-समाज में जो आज हलचल मची है, वह क्यों है ? वह केवल इसलिए है कि हम अपने में सन्तुष्ट नहीं हैं । वह किसलिए है कि हम संसार के काम आते नहीं हैं, वह केवल इसलिए है कि हम वर्तमान में अपने में अपने परमात्मा से मिलते नहीं हैं ।
    
- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी, भाग - 8' पुस्तक से । (Page No. 11-12)

Monday 12 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 12 December 2011
(पौष कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 1

        बुराई-रहित होने में सब स्वतन्त्र हैं ही । बुराई करना या न करना आपके वश की बात है । अगर आप बुराई करना पसन्द न करें तो बुराई आपके पास अपने आप थोड़े ही आ जाएगी । तो संसार की सेवा करने में मानव सर्वथा स्वाधीन और समर्थ है । यथाशक्ति भलाई करने में भी समर्थ है और की हुई भलाई का फल न चाहने में भी समर्थ है । की हुई बुराई को न दोहराने में भी समर्थ है और जानी हुई बुराई को न करने में भी समर्थ है ।

        यह तो संसार की सेवा हुई । फिर हमारी सेवा कैसी होगी? हमारी सेवा होगी अचाह होने से । "मुझे कुछ नहीं चाहिए", इसके द्वारा हम अपनी सेवा कर सकेंगे । कैसे ? अचाह होने से जब हम अप्रयत्न हो जाएँगे तब । अप्रयत्न होने पर हमारा स्थूल शरीर स्थूल संसार से, सूक्ष्म शरीर सूक्ष्म संसार से, कारण शरीर कारण संसार से सम्बन्ध टूट जाएगा ।

        जब हमारा और संसार का सम्बन्ध टूट जाएगा, तब हममें अपने में संतुष्ट होने की सामर्थ्य आ जाएगी । और जब हममें अपने में संतुष्ट रहने की सामर्थ्य आ जाएगी तब अपने में जो अपना परमात्मा है, उसका अनुभव हो जाएगा । ऐसा प्रभु-विश्वासी ही कह सकता है, क्योंकि परमात्मा को सभी ईश्वर-विश्वासियों ने अपना स्वीकार किया है, सदैव स्वीकार किया है, सर्वत्र स्वीकार किया है ।

        किसी भी परमात्मा को माननेवाले ने यह नहीं कहा कि परमात्मा समर्थ नहीं है, सदैव नहीं है, सर्वत्र नहीं है, अद्वितीय नहीं है । तो सदैव होने से अभी है, सर्वत्र होने से अपने में है, सभी का होने से अपना है, समर्थ है और अद्वितीय है । अब ये तीन बातें आपके सामने आईं कि परमात्मा अभी है, अपना है, अपने में है । तीन बातें ये हुईं ।

        जो चीज अभी है, उसके लिए भविष्य की आशा करेंगे क्या? और जो चीज अपने में है, उसे कहीं बाहर ढूँढोगे क्या ? और जो चीज अपनी है, उससे प्रियता उदित नहीं होगी क्या ? जो समर्थ है, वह हमें अपनाएगा नहीं क्या ? जो चीज अपनी है, उसे भूल जाएँगे क्या ? जो अद्वितीय है, उसकी पहचान करनी पड़ेगी क्या? अद्वितीय वस्तु की पहचान थोड़े ही करनी पड़ती है ।

        इससे सारांश क्या निकला ? इससे तात्पर्य यह निकला कि जब हमें परमात्मा की पहचान नहीं करना है, तो बुद्धि की आवश्यकता क्या ? और अपना है तो प्रिय क्यों नहीं लगेगा? और जब अपने में है, तो अपने से दूर हो ही कैसे सकता है ?

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी, भाग - 8' पुस्तक से । (Page No. 10-11)

Sunday 11 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 11 December 2011
(पौष कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०६८, रविवार)

प्रवचन - 1

    मेरे निजस्वरूप उपस्थित महानुभाव तथा भाई और बहन !

       माँग (स्वाधीन होना या दुःखों की आत्यन्तिक निवृति होना) की पूर्ति संसार की सहायता से नहीं हो सकती । इसलिए हमें माँग की पूर्ति के लिए किसी परिस्थिति, किसी अवस्था, किसी वस्तु-व्यक्ति का किसी देश-काल का, आवाहन नहीं करना है ।

        अगर यह बात आपको पसन्द आ जाय कि माँग की पूर्ति के लिए संसार की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है, तो माँग की पूर्ति के लिए संसार की बिल्कुल आवश्यकता नहीं है । क्यों ? क्योंकि संसार हमें जो सहायता देता है, उससे हमारी माँग की पूर्ति नहीं हो सकती ।

        फिर हमारा और संसार का सम्बन्ध क्या है ? केवल यह सम्बन्ध है, कि संसार की धरोहर के रूप में जो हमारे पास शरीर है, वस्तु है - यह संसार की धरोहर है  - यह हमें आपको संसार से मिली है। संसार की जो धरोहर हमारे पास है, उसे हम विधिवत्, हर्षपूर्वक, पवित्र भाव से संसार की सेवा में लगा दें । अर्थात् हमारा और संसार का सम्बन्ध सेवा का सम्बन्ध है । हमारा और संसार का और कोई सम्बन्ध नहीं है ।

        सेवा का अर्थ क्या है ? सेवा का अर्थ है मन, वाणी, कर्म से बुराई-रहित होना । सेवा का अर्थ क्या है ? यथाशक्ति परिस्थिति के अनुसार भलाई करना । लेकिन वह कब ? जब की हुई भलाई का फल और मान न माँगें तब । बुराई-रहित होकर भलाई का फल न माँगें न चाहें - यह संसार की सबसे बड़ी सेवा है ।   

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी, भाग - 8' पुस्तक से । (Page No. 09-10)

Saturday 10 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 10 December 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल पूर्णिमा, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार

89.    प्रवृति के द्वारा जिस किसी को कुछ मिलता है, वह कालान्तर में स्वतः मिट जाता है ।

90.    प्रार्थना इसलिए नहीं की जाती कि आप कहेंगे, तब परमात्मा सुनेंगे। प्रार्थना का असली रूप है - अपनी आवश्यकता ठीक-ठीक अनुभव करना।

91.    जिस प्रकार प्यास लगना ही पानी का माँगना है, उसी प्रकार अभाव की वेदना ही प्रार्थना है ।

92.    जो तुम्हारे सम्बन्ध में तुमसे भी अधिक जानते हैं, क्या उनसे भी कुछ कहना है ?

93.    जिस प्रकार माँ को शिशु की सभी आवश्कताओं का ज्ञान है एवं शिशु के बिना कहे ही माँ वह करती है, जो उसे करना चाहिए, उसी प्रकार आनन्दघन भगवान् हमारे बिना कहे ही वह अवश्य करते हैं, जो उन्हें करना चाहिए । परन्तु हम उनकी दी हुई शक्ति का सदुपयोग नहीं करते और निर्बलता मिटाने के लिए बनावटी प्रार्थना करते रहते हैं ।

94.    प्रभु की महिमा सुनकर जो ईश्वरवादी होते हैं, वे कामी हैं, प्रेमी नहीं ।

95.    योग की प्राप्ति में, बोध की प्राप्ति में, प्रेम की प्राप्ति में कुछ न चाहना ही मूल मन्त्र है ।

96.    अपने प्रियतम को अपने से भिन्न किसी और में अनुभव मत करो ।

97.    जिनके सम्बन्धमात्र में ही देहाभिमान गल जाता है, उनके प्रेम की प्राप्ति में भला देहादि की क्या अपेक्षा होगी ?

- 'सन्त हृदयोद्गार' पुस्तक से ।

Friday 9 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 09 December 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार

82.    आप सच मानिए, सिद्धि वर्तमान में ही होती है। भविष्य में कभी सिद्धि नहीं होती । भविष्य में तो उसकी प्राप्ति होती है, जो वर्तमान में नहीं है अर्थात् जिसकी उत्पत्ति हो । ........... जरा सोचिए, साध्य तो हो वर्तमान में, और साधक यह माने कि हमें भविष्य में मिलेगा ! जरा ध्यान दीजिए, साध्य तो है वर्तमान में, और मिलेगा भविष्य में !

83.    मानव को प्रभु दण्ड नहीं देता, विधान मानव को दण्ड नहीं देता, तो फिर क्या देता है ? जिस परिस्थिति से आपका विकास होता है, वही परिस्थिति आपको देता है ।

84.    यह दिमागी कौतूहल है कि किसी परिस्थिति-विशेष की प्राप्ति से हम वह हो जाएँगे, जो हम आज नहीं हैं । सरकार, यहीं रहेंगे, यहीं । अन्तर यही होगा कि आप तीन बटा चार न लिखकर पचहत्तर बटा सौ लिखियेगा ।

85.    प्राकृतिक नियमानुसार प्रत्येक परिस्थिति मंगलमय है, इसी ध्रुव सत्य के कारण जो हो रहा है, वही ठीक है ।

86.    प्रतिकूल परिस्थिति भोग में भले ही बाधक हो, पर योग में नहीं ।

87.    ऐसी कोई अनुकूलता है ही नहीं, जिसने प्रतिकूलता को जन्म न दिया हो और न ऐसी कोई प्रतिकूलता ही है, जिसमें प्राणी का हित न हो ।

88.    जितने आस्तिक होते हैं, वे प्रत्येक प्रतिकूलता में अपने परम प्रेमास्पद की अनुकूलता का अनुभव करते हैं कि अब हमारे प्यारे ने अपने मन की बात करना आरम्भ कर दिया । अब वे हमें जरूर अपनायेंगे ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्त हृदयोद्गार' पुस्तक से ।

Tuesday 6 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 06 December 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल मोक्षदा एकादशी, गीता जयंती, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार

63.    वे (संसार के रचयिता) अपनी वस्तु को सदैव देखते रहते हैं। उन्होंने कभी भी तुम्हें अपनी आँख से ओझल नहीं किया । ........... साधक भले ही उन्हें भूल जाय, पर वे नहीं भूलते। ........... जिसकी जो वस्तुएँ हैं, उसे वह देखता ही है, सम्भालता ही है । ............ अपनी रचना से क्या रचयिता अपरिचित होता है? कदापि नहीं ।  
      
64.    भगवान् का कोई एक ठिकाना नहीं है । ऐसा नहीं है कि संसार अलग हो, तत्वज्ञान अलग हो, भक्ति अलग हो और भगवान् अलग हो । सब मिलकर जो चीज है, उसी का नाम भगवान् है ।
             
65.    जो किसी का नहीं तथा जिसका कोई नहीं, उसके भगवान् अपने-आप हो जाते हैं; क्योंकि वे अनाथ के नाथ हैं ।

66.    भगवान् के होकर 'भगवान् का स्वरूप क्या है ?' यह प्रश्न क्या अर्थ रखता है ? गहराई से देखिए, प्यासने कभी नहीं पूछा, 'पानी क्या है ?' भूख ने किसी से नहीं पूछा, 'भोजन क्या है?' पानी पाकर प्यास तृप्त हो गई, भोजन पाकर भूख तृप्त हो गई। तृप्ति होनेपर पानी और प्यास की भिन्नता तथा भूख और भोजन की भिन्नता शेष नहीं रहती ।

67.    जब हम अपने में शरीर-भाव का अभिनय स्वीकार करते हैं, तब हमारे प्यारे (प्रभु) विश्वरूप होकर लीला करते हैं । शरीर होकर किसी भी खिलाड़ी (प्राणी) ने विश्व से भिन्न कुछ नहीं जाना । .......... हम शरीर बनकर तो केवल उनको विश्वरूप में ही देख सकते हैं ।
 
68.    ईश्वर मानव की स्वाधीनता छिनना नहीं चाहता, इसलिए मानव जबतक स्वयं अपनी ओर से ईश्वर के सम्मुख नहीं होता, तबतक ईश्वर उसके पीछे ही रहता है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्त हृदयोद्गार' पुस्तक से ।

Monday 5 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 05 December 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार 

56.    जिस समय अपने दोष का दर्शन हो जाय, समझ लो कि तुम जैसा विचारशील कोई नहीं । और जिस समय परदोष-दर्शन हो जाय, उस समय समझ लो कि हमारे जैसा कोई बेसमझ नहीं ।

57.    अपने दोष का दर्शन अपने को निर्दोष बनाने में समर्थ है और परदोष-दर्शन अपने को दोषी बनाने में हेतु है ।

58.    भगवान् के खिलाफ जो आवाज उठती है न, वह तर्क से नहीं उठती है । वह आवाज उठती है भगवान् को माननेवालों के दुश्चरित्र से, और कोई बात नहीं है । भगवान् को माननेवाले अगर ठीक आदमी हों तो भगवान् के खिलाफ कोई बोल ही नहीं सकता ।

59.    परमात्मा को 'अभी' न मानना बड़ी भारी भूल होगी, 'अपना' न मानना उससे बड़ी भूल होगी, और 'अपने में' न मानना सबसे बड़ी भूल होगी ।

60.    प्रभु अपने में हैं, अभी हैं और अपने हैं - इससे परमात्मा मिल जाएँगे ।

61.    याद रहे, और कुछ भी अपना है और परमात्मा भी अपना है - ये दोनों बातें एक साथ नहीं होतीं । जबतक हम और कुछ भी अपना मानते हैं, तबतक तो मुख से कहते हुए भी हमने सच्चे हृदय से भगवान को अपना नहीं माना । यही इसकी पहचान है।

62.    सर्वसमर्थ प्रभु साधक का भूतकाल नहीं देखते । उसकी वर्तमान वेदना से ही करुणित हो अपना लेते हैं ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्त हृदयोद्गार' पुस्तक से ।

Sunday 4 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 04 December 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०६८, रविवार)
     
सन्त हृदयोद्गार 

50.    प्रिय-से-प्रिय वस्तु तथा व्यक्ति का त्याग गहरी नींदके किए भला किसने नहीं किया ?

51.    ईश्वर, धर्म और समाज किसी के ॠणी नहीं रहते । जो इनके लिए त्याग करते हैं, उनका ये अवश्य निर्वाह करते हैं ।

52.    त्याग हो जाने पर त्याग का भास नहीं रहता; क्योंकि त्याग की स्मृति अथवा उसका अस्तित्व तभी तक प्रतीत होता है, जबतक त्याग होता नहीं ।

53.    इन तीन बातों से सारे जीवन की समस्याएँ हल हो जाती हैं - १) मुझे कुछ नहीं चाहिए, २) प्रभु अपने हैं, ३) सब कुछ प्रभु का है । यही जीवन का सत्य है। इसको स्वीकार करने से उदारता, स्वाधीनता और प्रेम प्राप्त होगा ।

54.    ध्यान किसी का नहीं करना है । किसी का ध्यान नहीं करोगे तो परमात्मा का ध्यान हो जाएगा । और किसी का ध्यान करोगे तो वह फिर किसी और का ही ध्यानमात्र रह जाएगा ।

55.    अगर परमात्मा के माननेवालों को परमात्मा की याद नहीं आती, और करनी पड़ती है - यह कोई कम दुःख की बात है ? यह कम आश्चर्य की बात है ? अरे, मरे हुए बुजुर्गों की याद आती है आपको, गये हुए धन की याद आती है आपको ! तो परमात्मा इतना घटिया हो गया कि उसकी याद आपको करनी पड़े? .......... याद नहीं आती है इसलिए कि आप उसे अपना नहीं मानते ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्त हृदयोद्गार' पुस्तक से ।

Saturday 3 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 03 December 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दुःख का प्रभाव 

        दोष-जनित सुख दोषों को बनाये रखने पर भी सुरक्षित नहीं रहता, अर्थात् कोई भी प्राणी सदैव दोषी होकर भी सुख का भोग नहीं कर सकता है । आया हुआ सुख चला जाता है और उसका भोगी बेचारा दोषी बनकर ही रह जाता है। यद्यपि अपने को सदा के लिए सर्वांश में दोषी बनाये रखना किसी को भी अभीष्ट नहीं है, तथापि सुख की दासता से वह अपने में अपराधी-भाव स्वीकार कर, निर्दोषता से निराश हो जाता है । इस कारण सुख-भोग का साधक के जीवन में कोई स्थान ही नहीं है ।

        सुख का आना और जाना तभी उपयोगी तथा हितकर सिद्ध होते हैं, जब मानव सुख का भोगी न होकर, उसकी वास्तविकता का अनुभव कर, आये हुए सुख द्वारा सेवा-परायण हो जाय। सेवा-सामग्री का भोगी हो जाना, मानवता से पशुता की ओर अग्रसर होना है ।

        दुःख का प्रभाव पशुता का अन्त कर सोई हुई मानवता जगाने में समर्थ है । यह तभी सम्भव होगा, जब मानव यह स्वीकार करे कि आया हुआ सुख अपने लिए नहीं है, अपितु दुखियों की धरोहर है । सुख-दुःख-युक्त परिस्थिति में से जब सुखांश सेवा में व्यय हो जाता है, तब मंगलमय विधान से केवल दुःख दुखी को उस जीवन से अभिन्न कर देता है, जो सुख-दुःख से अतीत दिव्य और चिन्मय है, जिसमें जड़ता, पराधीनता तथा अभाव की गन्ध भी नहीं है और जो अकर्तव्य, असाधन एवं आसक्तियों से रहित है ।

        कामना-पूर्ति और अपूर्ति की परिस्थितियों से तादात्म्य स्वीकार करना अपने को सुख की दासता तथा दुःख के भय में आबद्ध करना है । इस कारण कामना-पूर्ति-अपूर्ति में जीवन-बुद्धि स्वीकार करना प्रमाद ही है । प्रमाद के रहते हुए न तो सुख की दासता का नाश होता है और न दुःख के भय का ही अन्त होता है। दुःख का भय दुःख से भी अधिक दुःखद है । दुःख का भय दुखी के जीवन में असावधानी उत्पन्न कर देता है, जो उसके लिए सर्वदा अहितकर है । इस दृष्टि से दुःख से भयभीत होना भारी भूल है । इस भूल का अन्त करना मानव मात्र के लिए अनिवार्य है।

- 'दुःख का प्रभाव' पुस्तक से (Page No. 25-26)

Friday 2 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 02 December 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दुःख का प्रभाव 

      परिस्थिति-भेद से बेचारा प्राणी केवल अनुमान करता है कि अमुक व्यक्ति विशेष सुखी है । विशेषता और न्यूनता परिस्थितियों के बाह्य स्वरूप में है । सुख का भास वास्तव में परिस्थिति-जन्य नहीं है, केवल संकल्प-पूर्तिजन्य है । सभी संकल्पों की पूर्ति किसी भी प्रकार, किसी भी परिस्थिति में सम्भव नहीं है । तो फिर सुख के अस्तित्व को स्वीकार करना कहाँ तक युक्तियुक्त है? अस्तित्वहीन आभास मात्र सुख के पीछे दौड़ना रस से विमुख होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।

        न चाहने पर भी बार-बार दुःख का प्रादुर्भाव मंगलमय विधान से सुख की दासता का नाश करने के लिए ही मानव के जीवन में होता है । पर बेचारा प्राणी प्रमादवश आए हुए दुःख से भयभीत और जानेवाले सुख की दासता में आबद्ध होकर नित-नव रस से, जो जीवन की वास्तविक माँग है, वंचित रह जाता है; यद्यपि रस की माँग नष्ट नहीं होती, दब जाती है और फिर नीरसता मानव को सुख का भिखारी बना देती है । नीरसता का अन्त वर्तमान में सम्भव है; किन्तु सुख का सम्पादन भविष्य की आशा पर ही निर्भर रहता है । भविष्य की आशा वर्तमान की वास्तविक व्यथा को शिथिल बनाती है । 

        व्यथा की शिथिलता में सजगता नहीं रहती । उसके बिना सुख और रस का भेद स्पष्ट नहीं होता । उसके बिना हुए न तो रस की माँग ही सर्वांश में जाग्रत होती है और न सुख की आशा का ही अन्त होता है । सुख के सम्पादन के लिए श्रम, संग्रह, पराधीनता एवं जड़ता आदि दोष अपेक्षित हैं; किन्तु अगाध, अनन्त, नित-नव रस के प्रादुर्भाव के लिए केवल विश्राम, स्वाधीनता तथा प्रेम की जागृति अपेक्षित है ।

        दुःख का प्रभाव अत्यन्त सुगमतापूर्वक मानव को विश्राम, स्वाधीनता तथा प्रेम का अधिकारी बना देता है । पर यह रहस्य वे ही जान पाते हैं, जिन्होंने आये हुए दुःख का आदरपूर्वक स्वागत किया है और गये हुए सुख को धीरजपूर्वक विदाई दी है।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'दुःख का प्रभाव' पुस्तक से (Page No. 24-25)

Thursday 1 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 01 December 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दुःख का प्रभाव 

     प्राकृतिक नियमानुसार कोई भी प्रतीति तथा भास स्वरूप से स्थिर नहीं है। उसकी उत्पत्ति तथा विनाश का जो क्रम है, उससे ही स्थिरता का भास होता है। किन्तु सुख के आदि और अन्त में दुःख स्वभाव से उस समय तक रहता ही है, जबतक सुख में अथवा उसके भोग में आस्था है। आस्था प्राणी को उसके अस्तित्व का भास कराती है, जिसमें वह आस्था करता है ।

        जबतक सुख में आस्था रहेगी, तबतक सुख का अस्तित्व प्रतीत होगा । यद्यपि प्राकृतिक नियमानुसार उत्पन्न हुई प्रत्येक प्रतीति निरन्तर परिवर्तनशील है, तथापि सुखासक्ति सतत परिवर्तन में भी स्थिरता का भास कराती है । सुख की स्थिरता का भास सुख में जीवन-बुद्धि उत्पन्न करता है, जिसके उत्पन्न होते ही सुख का महत्व बढ़ जाता है और फिर बेचारा प्राणी विवश होकर अपने आप जानेवाले सुख के पीछे दौड़ने लगता है, यद्यपि उसे पकड़ नहीं पाता । परन्तु अल्पकाल की समीपता की अनुभूति, न रहनेवाले सुख से निराश नहीं होने देती।

        सुख की आशा सुख से भी अधिक मधुर प्रतीत होती है। उस मधुरिमा में आबद्ध प्राणी सुख-भोग के लिए बड़े-बड़े दुखों को सहन कर सकता है । उसपर पर भी सुख का भोग तथा उसकी आशा परिणाम में दुःख ही प्रदान करती है । इस दृष्टि से सुख में ही दुःख विद्यमान है और दुःख से ही सुख का भास होता है। सुख और दुःख, दोनों की वास्तविकता के बोध में सुख की दासता तथा दुःख के भय का नाश है ।

        रस जीवन की माँग है और सुख तथा दुःख भोग हैं । भोग का परिणाम रोग तथा शोक है, जो किसी भी प्राणी को अभीष्ट नहीं है । सुख संकल्प-पूर्ति की एक दशा मात्र है और कुछ नहीं। संकल्प शुद्ध हो अथवा अशुद्ध, लघु अथवा महान; किन्तु संकल्प-पूर्ति का सुख समान ही है । इसी कारण शुभाशुभ प्रवृत्तियाँ सुख के भोगी में जीवित रहती हैं ।

        यदि संकल्प-पूर्ति के अतिरिक्त सुख का कोई और अस्तित्व होता, तो शुभाशुभ प्रवृत्तियों का विभाजन स्वतः हो जाता । इतना ही नहीं, उत्पन्न हुई अशुभ प्रवृत्तियाँ नष्ट हो जातीं और पुनः उत्पन्न न होतीं । जीवन में केवल शुभ प्रवृत्तियाँ रह जातीं । परन्तु बेचारा सुख का भोगी सर्वांश में न अशुभ प्रवृत्तियों का नाश ही कर पाता है और न शुभ प्रवृत्तियों की दासता से ही मुक्त हो पाता है । प्रवृत्ति रहते हुए रस के साम्राज्य में प्रवेश ही नहीं होता । इस दृष्टि से सुख और रस में बड़ा भेद है। इतना ही नहीं, रस की अनेक श्रेणियाँ हैं । परन्तु सुख में कोई श्रेणी नहीं है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'दुःख का प्रभाव' पुस्तक से (Page No. 23-24)