Thursday, 1 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 01 December 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दुःख का प्रभाव 

     प्राकृतिक नियमानुसार कोई भी प्रतीति तथा भास स्वरूप से स्थिर नहीं है। उसकी उत्पत्ति तथा विनाश का जो क्रम है, उससे ही स्थिरता का भास होता है। किन्तु सुख के आदि और अन्त में दुःख स्वभाव से उस समय तक रहता ही है, जबतक सुख में अथवा उसके भोग में आस्था है। आस्था प्राणी को उसके अस्तित्व का भास कराती है, जिसमें वह आस्था करता है ।

        जबतक सुख में आस्था रहेगी, तबतक सुख का अस्तित्व प्रतीत होगा । यद्यपि प्राकृतिक नियमानुसार उत्पन्न हुई प्रत्येक प्रतीति निरन्तर परिवर्तनशील है, तथापि सुखासक्ति सतत परिवर्तन में भी स्थिरता का भास कराती है । सुख की स्थिरता का भास सुख में जीवन-बुद्धि उत्पन्न करता है, जिसके उत्पन्न होते ही सुख का महत्व बढ़ जाता है और फिर बेचारा प्राणी विवश होकर अपने आप जानेवाले सुख के पीछे दौड़ने लगता है, यद्यपि उसे पकड़ नहीं पाता । परन्तु अल्पकाल की समीपता की अनुभूति, न रहनेवाले सुख से निराश नहीं होने देती।

        सुख की आशा सुख से भी अधिक मधुर प्रतीत होती है। उस मधुरिमा में आबद्ध प्राणी सुख-भोग के लिए बड़े-बड़े दुखों को सहन कर सकता है । उसपर पर भी सुख का भोग तथा उसकी आशा परिणाम में दुःख ही प्रदान करती है । इस दृष्टि से सुख में ही दुःख विद्यमान है और दुःख से ही सुख का भास होता है। सुख और दुःख, दोनों की वास्तविकता के बोध में सुख की दासता तथा दुःख के भय का नाश है ।

        रस जीवन की माँग है और सुख तथा दुःख भोग हैं । भोग का परिणाम रोग तथा शोक है, जो किसी भी प्राणी को अभीष्ट नहीं है । सुख संकल्प-पूर्ति की एक दशा मात्र है और कुछ नहीं। संकल्प शुद्ध हो अथवा अशुद्ध, लघु अथवा महान; किन्तु संकल्प-पूर्ति का सुख समान ही है । इसी कारण शुभाशुभ प्रवृत्तियाँ सुख के भोगी में जीवित रहती हैं ।

        यदि संकल्प-पूर्ति के अतिरिक्त सुख का कोई और अस्तित्व होता, तो शुभाशुभ प्रवृत्तियों का विभाजन स्वतः हो जाता । इतना ही नहीं, उत्पन्न हुई अशुभ प्रवृत्तियाँ नष्ट हो जातीं और पुनः उत्पन्न न होतीं । जीवन में केवल शुभ प्रवृत्तियाँ रह जातीं । परन्तु बेचारा सुख का भोगी सर्वांश में न अशुभ प्रवृत्तियों का नाश ही कर पाता है और न शुभ प्रवृत्तियों की दासता से ही मुक्त हो पाता है । प्रवृत्ति रहते हुए रस के साम्राज्य में प्रवेश ही नहीं होता । इस दृष्टि से सुख और रस में बड़ा भेद है। इतना ही नहीं, रस की अनेक श्रेणियाँ हैं । परन्तु सुख में कोई श्रेणी नहीं है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'दुःख का प्रभाव' पुस्तक से (Page No. 23-24)