Friday, 2 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 02 December 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दुःख का प्रभाव 

      परिस्थिति-भेद से बेचारा प्राणी केवल अनुमान करता है कि अमुक व्यक्ति विशेष सुखी है । विशेषता और न्यूनता परिस्थितियों के बाह्य स्वरूप में है । सुख का भास वास्तव में परिस्थिति-जन्य नहीं है, केवल संकल्प-पूर्तिजन्य है । सभी संकल्पों की पूर्ति किसी भी प्रकार, किसी भी परिस्थिति में सम्भव नहीं है । तो फिर सुख के अस्तित्व को स्वीकार करना कहाँ तक युक्तियुक्त है? अस्तित्वहीन आभास मात्र सुख के पीछे दौड़ना रस से विमुख होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।

        न चाहने पर भी बार-बार दुःख का प्रादुर्भाव मंगलमय विधान से सुख की दासता का नाश करने के लिए ही मानव के जीवन में होता है । पर बेचारा प्राणी प्रमादवश आए हुए दुःख से भयभीत और जानेवाले सुख की दासता में आबद्ध होकर नित-नव रस से, जो जीवन की वास्तविक माँग है, वंचित रह जाता है; यद्यपि रस की माँग नष्ट नहीं होती, दब जाती है और फिर नीरसता मानव को सुख का भिखारी बना देती है । नीरसता का अन्त वर्तमान में सम्भव है; किन्तु सुख का सम्पादन भविष्य की आशा पर ही निर्भर रहता है । भविष्य की आशा वर्तमान की वास्तविक व्यथा को शिथिल बनाती है । 

        व्यथा की शिथिलता में सजगता नहीं रहती । उसके बिना सुख और रस का भेद स्पष्ट नहीं होता । उसके बिना हुए न तो रस की माँग ही सर्वांश में जाग्रत होती है और न सुख की आशा का ही अन्त होता है । सुख के सम्पादन के लिए श्रम, संग्रह, पराधीनता एवं जड़ता आदि दोष अपेक्षित हैं; किन्तु अगाध, अनन्त, नित-नव रस के प्रादुर्भाव के लिए केवल विश्राम, स्वाधीनता तथा प्रेम की जागृति अपेक्षित है ।

        दुःख का प्रभाव अत्यन्त सुगमतापूर्वक मानव को विश्राम, स्वाधीनता तथा प्रेम का अधिकारी बना देता है । पर यह रहस्य वे ही जान पाते हैं, जिन्होंने आये हुए दुःख का आदरपूर्वक स्वागत किया है और गये हुए सुख को धीरजपूर्वक विदाई दी है।

- (शेष आगेके ब्लागमें)- 'दुःख का प्रभाव' पुस्तक से (Page No. 24-25)