Monday 15 September 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Monday, 15 September 2014 
(आश्विन कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७१, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
अचाह पद

रुचि-अरुचि के मिटते ही अचाह पद स्वत: प्राप्त हो जाता है । हमसे बडी भूल यही होती है कि जो वास्तव में अपना है, उसमें अरुचि और जिससे केवल मानी हुई एकता है, उसमें रुचि उत्पन्न कर लेते हैं । फिर चाह के जाल में फँसकर जो करना चाहिए वह नहीं कर पाते; अपितु जो नहीं करना चाहिए उसको करने लगते हैं । उसके करने से ही हम कर्त्तव्य  से च्युत हो जाते हैं ।

कर्त्तव्य से च्युत होते ही राग-द्वेष उत्पन्न हो जाते हैं । राग-द्वेष उत्पन्न होने से जिससे जातीय तथा स्वरूप की एकता है, उससे विमुखता और जिससे केवल मानी हुई एकता है, उसमें आसक्ति हो जाती है, जो चाह को सजीव बनाने में हेतु है ।

अब विचार यह करना है कि हम किसे अपना कह सकते हैं ? अपना उसी को कह सकते हैं जिससे देश-काल की दूरी न हो जो उत्पत्ति-विनाशयुक्त न हो और जो अपने को अपने-आप प्रकाशित करने में समर्थ हो; क्योंकि अपने से अपना वियोग सम्भव नहीं है और जो अपना नहीं है, उससे वियोग होना अनिवार्य है ।

इस दृष्टिकोण से बाह्य वस्तु की तो कौन कहे, शरीर, प्राण, इन्द्रिय, मन आदि को भी अपना नहीं कह सकते; पर इसका अर्थ यह नहीं है कि जिसे हम अपना नहीं कह सकते, वह हमारी सेवा का पात्र नहीं है । हाँ यह अवश्य है कि उससे प्रेम नहीं किया जा सकता ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) जीवन-दर्शन भाग-1 पुस्तक से, (Page No. 18)

Saturday 13 September 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Saturday, 13 September 2014 
(आश्विन कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७१, शनिवार)

अचाह पद

सभी साधनों का पर्यवसान अचाह पद में है; कारण कि अचाह होने पर ही अप्रयत्न और अप्रयत्न होने पर ही साध्य से अभिन्नता प्राप्त होती है, जो जीवन का मुख्य उद्देश्य है ।

अब विचार यह करना है कि चाह की उत्पत्ति का हेतु क्या है ? रुचि और अरुचिरूपी भूमि में चाहरूपी दूर्वा उत्पन्न होती है । यदि रुचि-अरुचि का समूह न रहे, तो चाह की उत्पत्ति के लिए कोई स्थान ही नहीं रह जाता; कारण कि रुचि-अरुचि के, आधार पर ही सीमित अहंभाव सुरक्षित रहता है । उसी से चाह की उत्पत्ति होती है । अत: सीमित अहं भाव  के रहते हुए अचाह पद की प्राप्ति सम्भव नहीं है ।

सीमित अहं भाव का अन्त कैसे हो ? इसके लिए रुचि-अरुचि के स्वरूप को जानना होगा । रुचि और अरुचि का सम्बन्ध 'स्व' और 'पर' से है । 'स्व' की विमुखता 'पर' की रुचि जाग्रत करती है और 'पर' की अरुचि 'स्व' की रुचि को सबल बनाती है । 'पर' की अरुचि निषेधात्मकरूप से 'स्व' में प्रतिष्ठित करती है और 'स्व' की रुचि विध्यात्मक रूप से 'पर' में अरुचि उत्पन्न करने में समर्थ है ।

अरुचि का अर्थ द्वेष नहीं है और रुचि का अर्थ राग नहीं है । 'पर' की अरुचि संयोग को संयोग-काल में ही वियोग में बदलती है और 'स्व' की रुचि वर्तमान में ही नित्ययोग प्रदान करती है । अत: वियोग अथवा नित्य-योग रुचि-अरुचि के समूह को मिटाने में समर्थ है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) जीवन-दर्शन भाग-1 पुस्तक से, (Page No. 17)

Sunday 7 September 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Sunday, 07 September 2014 
(भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०७१, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं” का विवेचन

अपने में ब्रह्मभाव की स्थापना साधन-रूप है; किन्तु क्या ब्रह्म ने ब्रह्मभाव की स्थापना की ? यह भ्रम है कि 'मैं' पहले ब्रह्म था, अब नहीं हूँ; किन्तु जब मुझे किसी ने स्मरण दिलाया, तब मुझे यह अनुभव हुआ कि 'मैं ब्रह्म हूँ' । तो क्या ब्रह्म में ब्रह्म की विस्मृति हुई और फिर ब्रह्म ने ही मुझसे भिन्न होकर मुझे ब्रह्म की स्मृति दिलाई ? यदि ब्रह्म का यह अपमान अभीष्ट है, तब तो यह मानना उचित ही है कि मैं ब्रह्म हूँ, पर भूल से अपने को जीव मानता था । माया और अविद्या ने मुझे भुला दिया, अर्थात् माया और अविद्या ब्रह्म से सबल हो गई । 'मैं' क्या हूँ ? इसका उत्तर आस्था के आधार पर देना दर्शन नहीं है। दर्शन में आस्था अपेक्षित नहीं है । दर्शन का प्रादुर्भाव सन्देह की वेदना से होता है । सन्देह की वेदना जिसमें होती है, वह मानव है और उसी में आसक्ति, जिज्ञासा तथा आस्था है । आसक्ति प्रमाद-जनित है । इस कारण उसका नाश होता है और जिज्ञासा की पूर्ति विचार-सिद्ध है, इस कारण उसकी पूर्ति होती है । सन्देह की वेदना को देख, जिज्ञासा की पूर्ति के लिए विचार के स्वरूप में किसी की अहैतुकी कृपा अवतरित होती है, जो अविचार का अन्त कर निस्सन्देहता प्रदान कर स्वत: विलीन हो जाती है । निस्सन्देहता की प्राप्ति में ही दर्शन की पूर्णता है ।

निस्सन्देहता स्वत: प्रीति प्रदान करती है, जो वास्तविक जीवन है । सन्देह के रहते हुए प्रीति जाग्रत नहीं होती । सन्देह अपनी ही भूल से होता है । भूल अविवेक सिद्ध है । अत: जाने हुए का अनादर करने से भूल उत्पन्न होती है । मानव-दर्शन यह प्रेरणा देता है कि अपने पर अपने जाने हुए का प्रभाव अपना लेना अनिवार्य है । जाने हुए का प्रभाव न तो प्रतीत होने वाले दृश्य में अहम्-बुद्धि को जन्म देता है और न स्वीकृतियों में ही अहम्-बुद्धि होने देता है । जाने हुए का प्रभाव प्रतीति से असंग कर, जो 'है' उससे अभिन्न करता है । अभिन्नता में ही अगाध, अनन्त प्रियता है । प्रतीति की आसक्ति जिसमें भासित है उसी में अगाध प्रियता की माँग है । आसक्ति के नाश में माँग की पूर्ति स्वत: सिद्ध है । इस दृष्टि से अगाधप्रियता ही 'मैं' का वास्तविक स्वरूप है । प्रियता का क्रियात्मक रूप सेवा है और विवेकात्मक रूप त्याग है, अर्थात् स्थान भेद से प्रीति ही सेवा, त्याग तथा प्रेम के रूप में है । सेवा जगत् के लिए, त्याग अपने लिए एवं प्रेम अनन्त के लिए उपयोगी है । इस दृष्टि से मानव-दर्शन में ही मानव-जीवन की पूर्णता निहित है ।


 - “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 21-22)

Thursday 4 September 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Thursday, 04 September 2014 
(भाद्रपद शुक्ल दशमीं, वि.सं.-२०७१, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं” का विवेचन

नित-नव रस की भूख ज्यों-ज्यों सबल तथा स्थायी होती जाती है, त्यों-त्यों स्वाधीनता-जनित रस से असंगता होती जाती है । असंगता की पूर्णता स्वत: प्रीति में परिणत होती है । इस दृष्टि से मानव की पूर्णता एकमात्र प्रीति से अभिन्न होने में ही है । आसक्ति का नाश होते ही शान्ति, शक्ति, मुक्ति स्वत: प्राप्त होती है । किन्तु शक्ति, मुक्ति आदि का आश्रय अहम् को परिच्छिन्नता के रूप में जीवित रखता है । परिच्छिन्नता के रहते हुए भेद और भिन्नता का नाश नहीं होता और उसके नाश हुए बिना नित-नव रस की अभिव्यक्ति नहीं होती, जो वास्तविक जीवन है । यद्यपि शान्ति, शक्ति और स्वाधीनता स्वभाव से ही प्रिय है, पर प्रियता का रस ऐसा विलक्षण है कि उसके लिए स्वाधीनता आदि का न्यौछावर करना सहज तथा स्वाभाविक हो जाता है । अशान्ति की व्यथा मिटाने में शान्ति और असमर्थता की वेदना को मिटाने में शक्ति एवं पराधीनता की पीड़ा के नाश में स्वाधीनता बड़े ही महत्त्व की वस्तु है ।

मानव बुद्धि-दृष्टि तथा इन्द्रिय-दृष्टि से अपने को अशान्ति, असमर्थता एवं पराधीनता में आबद्ध पाता है । इस कारण शान्ति, शक्ति और स्वाधीनता को महत्त्व देता है । वास्तव में तो शान्ति, सामर्थ्य और स्वाधीनता स्वत: प्रीति में परिणत होती है; कारण, कि शान्ति, शक्ति और स्वाधीनता में 'निज-रस' है । निज-रस में सन्तुष्ट हो जाना, अपनेपन को जीवित रखना है । अपनापन कितना ही महान् क्यों न हो, किन्तु उसमें किसी न किसी रूप में परिच्छिन्नता रहती है । जो यह अनुभव करता था कि 'मैं अशान्त हूँ', 'मैं असमर्थ हूँ', ‘पराधीन हूँ', वही अनुभव करता है कि 'मैं शान्त हूँ', 'समर्थ हूँ', 'स्वाधीन हूँ' । पराधीनता आदि दोषों की अपेक्षा स्वाधीनता आदि बड़े ही महत्त्व की वस्तुएँ हैं, परन्तु 'मैं' स्वाधीन हूँ, इस प्रकार की सीमा तो रहती ही है । परिच्छिन्नता रहते हुए किसी न किसी प्रकार की माँग रहती ही है, जिसके रहते हुए पूर्णता कैसी ? प्रीति का प्रादुर्भाव होने पर माँग का अन्त हो जाता है । इस दृष्टि से प्रेम के प्रादुर्भाव में ही मानव की पूर्णता है । यह मानव का अपना दर्शन है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 20-21)

Tuesday 2 September 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Tuesday, 02 September 2014 
(भाद्रपद शुक्ल राधा-अष्टमी, वि.सं.-२०७१, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं” का विवेचन

ममता का नाश, जिज्ञासा की पूर्ति और आस्था में आत्मीयता होने पर एक-मात्र प्रेम-तत्त्व ही शेष रहता है । प्रीति में अस्तित्व उसी का है, जिसकी वह प्रीति है । प्रीति सतत् गतिशील तत्त्व है; ‘यह' की ओर गति होने पर आसक्ति के रूप में भासती है, 'यह' से विमुख होने पर विरक्ति तथा 'वह' की ओर गतिशील होने पर अनुरक्ति होती है । यदि प्रतीति का स्वतन्त्र अस्तित्व होता, तो आसक्ति विरक्ति में परिणत न होती और यदि कोई स्वतन्त्र सत्ता न होती, तो विरक्ति अनुरक्ति में परिणत न होती । पर मानव-दर्शन से यह स्पष्ट विदित होता है कि आसक्ति विरक्ति में और विरक्ति अनुरक्ति में परिणत होती है । सर्वांश में आसक्ति का नाश होते ही विरक्ति का भास होता है और विरक्ति की पूर्णता होते ही अनुरक्ति का प्रादुर्भाव होता है । आसक्ति, विरक्ति और अनुरक्ति उसी समय तक अलग-अलग प्रतीत होती हैं, जिस समय तक सर्वांश में आसक्ति का नाश नहीं होता । पराधीनताजनित वेदना आसिक्त के नाश में हेतु है ।

आसक्ति का नाश होते ही विरक्ति की अभिव्यक्ति होती है, जो स्वाधीनता की जननी है । विरक्ति की पूर्णता स्वाधीनता-जनित रस में सन्तुष्ट नहीं रहने देती। बस, उसी काल में विरक्ति स्वत: अनन्त की अनुरक्ति हो, अनन्त को रस प्रदान करती है । आसक्ति सुख-लोलुपता और विरक्ति स्वाधीनता में परिणत होती है । किन्तु स्वाधीनता-जनित रस अखण्ड होने पर भी नित-नव नहीं है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 19-20)

Monday 1 September 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Monday, 01 September 2014 
(भाद्रपद शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०७१, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं” का विवेचन

यदि आस्था के आधार पर ‘यह' की सत्ता स्वीकार कर ली जाय, तो 'यह' की आसक्ति का अन्त होते ही 'वह' की अनुरक्ति स्वत: जाग्रत होती है । आसक्ति और अनुरक्ति में एक बड़ा भेद यह है कि आसक्ति पराधीनता-जनित सुख-लोलुपता को जन्म देती है और अनुरक्ति जिसके प्रति होती है, उसके लिए रस-रूप होती है । इस दृष्टि से अनुरक्ति का बड़ा ही महत्त्व है । आसक्ति का अत्यन्त अभाव बिना हुए अनुरक्ति के साम्राज्य में प्रवेश ही नहीं होता । इस कारण आसक्ति का सर्वांश में नाश करना अनिवार्य है, जो एकमात्र विरक्ति से ही साध्य है । विरक्ति घृणा नहीं है, अपितु पराधीनता का अन्त करने में साधनरूप है। इस दृष्टि से विरक्तिपूर्वक ही अनुरक्ति प्राप्त होती है । आसक्ति, विरक्ति और अनुरक्ति - इनसे जिसका सम्बन्ध है वह 'यह' और 'वह' से रहित है । संकेत भाषा में आसक्ति, विरक्ति और अनुरक्ति 'मैं' का कार्य है, 'मैं' नहीं; कारण, कि आसक्ति और विरक्ति दोनों ही अनुरक्ति से अभिन्न होती हैं । अनुरक्ति ने उससे भिन्न का अनुभव ही नहीं किया, जिसकी वह अनुरक्ति है । अत: 'मैं' अनुरक्ति से अभिन्न हो, अनन्त को रस प्रदान करने में समर्थ है । जिस प्रकार 'मैं' आसक्ति से युक्त होकर पराधीनता, अभाव आदि में आबद्ध होता है, उसी प्रकार 'मैं' विरक्ति से अभिन्न होकर अपने ही में सन्तुष्ट होता है और अनुरक्ति से अभिन्न होने पर 'मैं' अनन्त को रस प्रदान करता है । इस दृष्टि से 'मैं' के सम्बन्ध में जितना कहा जाय, कम है, जो ‘कुछ नहीं' होकर 'सब कुछ' है और 'सब कुछ' होकर 'कुछ नहीं' है । यही 'मैं' की विलक्षणता है ।

यह नियम है कि जो, कुछ नहीं होता, अर्थात् जिसमें किसी प्रकार की सीमा, नाप-तौल नहीं है, वह सभी से अभिन्न हो सकता है और उसमें सभी की स्थापना हो सकती है । इसी कारण अहम् में शरीर-भाव, जीव-भाव, ब्रह्म-भाव आदि की स्थापना हो सकती है; क्योंकि यदि 'मैं' कोई ऐसा पदार्थ होता, जिसका विवेचन बुद्धि आदि के द्वारा सम्भव होता, तो उसमें किसी और की स्थापना सम्भव न होती । किन्तु अहम् में ही जगत् का बीज, तत्त्व की जिज्ञासा और अनन्त की प्रियता विद्यमान है । ममता, कामना एवं तादात्म्य का अन्त होने पर अहम् में जगत् का बीज शेष नहीं रहता, अर्थात् अहम् का दृश्य से सम्बन्ध नहीं रहता । इतना ही नहीं, दृश्य अहम् में विलीन हो जाता है और फिर तत्त्व-जिज्ञासा की पूर्ति तथा प्रीति की जाग्रति स्वत: हो जाती है । प्रीति दूरी तथा भेद को शेष नहीं रहने देती । दूरी के नाश में ही योग की और भेद के नाश में ही बोध की अभिव्यक्ति निहित है । इस दृष्टि से योग, बोध और प्रेम अहम् के ही रूपान्तर हैं । अर्थात् अहम् योग, बोध और प्रेम से अभिन्न हो जाता है । अहम् का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, अपितु ममता, जिज्ञासा एवं आस्था की स्वीकृति जिसमें भासित होती है वही अहम् है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 18-19)

Saturday 30 August 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Saturday, 30 August 2014 
(भाद्रपद शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०७१, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं” का विवेचन

आसक्ति दृश्य की रुचि को जीवित रखती है और विरक्ति दृश्य से अरुचि उत्पन्न करती है । अरुचि रुचि को खाकर स्वत: अनुरक्ति से अभिन्न कर देती है । रुचि और अरुचि द्वन्दात्मक स्थिति है । जिस प्रकार अग्नि काष्ठ को भस्मीभूत कर स्वत: शान्त हो जाती है, उसी प्रकार विरक्ति आसक्ति का अत्यन्त अभाव कर स्वयं अनुरक्ति से अभिन्न हो जाती है । अनूरक्ति द्वन्द्वात्मक नहीं है । द्वन्दात्मक स्थिति ही सीमित अहम् भाव को जीवित रखती है, जिसके रहते हुए यह समस्या हल नहीं होती कि 'में’ क्या है ? अनुरक्ति के प्रादुर्भाव में ही द्वन्दात्मक  स्थिति का नाश है, जिसके होते ही 'मैं' क्या है ? यह प्रश्न स्वत: हल हो जाता है । 'यह' से परे 'में' है - यह 'मैं' का परिचय नहीं है । 'मैं' के प्रति इतना मोह हो गया है कि उसको अस्वीकार करना बडा ही भय उत्पन्न करता है । इस भय से बचने के लिए मानव यह स्वीकार कर लेता है कि 'मैं’ शरीर आदि दृश्य से अतीत
हूँ ।

किसी की वास्तविकता का बोध तभी सम्भव होगा, जब उसके प्रति राग तथा द्वेष लेश-मात्र भी न हो । 'मैं' के न होने की बात सुनकर जो भय उत्पन्न होता है, यह 'मैं' का राग है और इस प्रश्न को हल किये बिना चैन से रहना, 'मैं' के प्रति द्वेष है । राग और द्वेष दोनों ही सम्बन्ध पुष्ट करते हैं । सम्बन्ध के रहते हुए बोध सम्भव नहीं है । कारण, कि सम्बन्ध स्वयं अस्तित्व के रूप में भासित होने लगता है । इसी कारण 'यह' के सम्बन्ध से 'मैं' ‘यह' जैसा प्रतीत होता है और 'मैं' अपने में 'यह' की आसक्ति अनुभव करता है । और ‘यह' से सम्बन्ध स्वीकार करने पर 'मैं', 'वह' जैसा तथा 'वह' की अनुरक्ति अनुभव करता है । 'यह' और 'वह', दोनों में यदि एकता स्वीकार की जाय, तो दो स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं हो सकते । 'यह' के अस्तित्व को स्वीकार कर लिया जाय, तो स्वीकृति के कारण 'यह' की प्रतीति भले ही हो, पर उसकी प्राप्ति नहीं होती । जिसकी प्राप्ति नहीं होती, उसका न तो स्वतन्त्र अस्तित्व ही होता है और न वह अपने को अपने आप प्रकाशित ही करता है । इस दृष्टि से ‘यह' के अस्तित्व को स्वीकार करना 'यह' की आसक्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । आसक्ति जीवन नहीं है, अपितु पराधीनता, जड़ता तथा अभाव की जननी है, जो किसी भी मानव को अभीष्ट नहीं है । अत: ‘यह' की सत्ता स्वीकार करना भूल के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 17-18)

Thursday 28 August 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Thursday, 28 August 2014 
(भाद्रपद शुक्ल हरितालिका तीज व्रत, वि.सं.-२०७१, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं” का विवेचन

'यह' करके जिसको सम्बोधन करते हैं, उसे 'मैं' नहीं कह सकते । इस दृष्टि से कोई भी दृश्य 'मैं' नहीं है । 'वह' करके जिसमें आस्था करते हैं, उसे भी 'मैं' कहना भूल है । 'यह' और 'वह' से विलक्षण 'मैं' हो सकता है । यह भी अनुमान मात्र है, अनुभव नहीं । अब विचार यह करना है कि 'यह' की ममता तथा 'तत्त्व' की जिज्ञासा, क्या 'यह' में हो सकती है ? कदापि नहीं । 'यह' की ममता तथा 'तत्त्व' की जिज्ञासा जिसमें है, क्या उसे 'वह' कह सकते हैं ? नहीं । इस दृष्टि से 'यह' और 'वह' से रहित 'मैं' होना चाहिये। पर अब भी स्पष्ट बोध नहीं हुआ कि 'मैं' क्या है ? आस्था और बोध में भेद है । आस्था में बोध का आरोप करना ज्ञान नहीं है और बोध में आस्था करना आस्था नहीं है । आस्था उसमें होती है, जिसका बोध नहीं है । अर्थात् सुने हुए में आस्था होती है, जाने हुये में नहीं । जाने हुए में न तो आस्था ही होती है और न सन्देह ही। सन्देह देखे हुए में होता है, बोध जाने हुए का होता है और आस्था सुने हुए में होती है ।  'मैं’ देखा हुआ नहीं है और न जाना हुआ है । अत : 'मैं' के प्रति सन्देह नहीं होता और उसका बोध भी नहीं । 'मैं' किसी अन्य के द्वारा सुना भी नहीं है, उसका तो भास है । इस दृष्टि से किसी आस्था के आधार पर 'मैं' का निर्णय देना 'मैं' का वास्तविक परिचय नहीं है और प्रतीति का आश्रय लेकर 'मैं' का विवेचन करना 'मैं' का बोध नहीं है । 'मैं' के ही द्वारा 'मैं ' की खोज करना, 'मैं' के परिचय में हेतु है ।

प्रतीत होने वाला ‘यह' और सुना हुआ 'वह', इन दोनों का सम्बन्ध किसमें है ? जिसमें है, क्या उसे 'मैं' नहीं कह सकते ? परन्तु ऐसा कहने से भी तो 'मैं' के कार्य का परिचय होता है, स्वरूप का नहीं । कार्य कर्त्ता का विशेषण भले ही हो, पर स्वरूप नहीं है । 'यह' की प्रतीति में ‘यह' का राग हेतु है और 'वह' की आस्था में 'वह' की माँग हेतु है । राग-रहित होने पर 'यह' से असंगता स्वत: होती है, जिसके होते ही 'वह' से अभिन्नता भी होती है । जिसने रागपूर्वक  'यह' से तादात्म्य स्वीकार किया था, उसी ने असंगतापूर्वक 'वह' से अभिन्नता प्राप्त की । ‘यह' की आसक्ति और 'वह' की अनुरक्ति किसी एक ही में है । क्या उसी का नाम 'मैं' है ? यदि यह मान लिया जाय, तो आसक्ति की तो निवृत्ति होती है और अनुरक्ति की जाग्रति । आसक्ति रहते हुए अनुरक्ति जाग्रत नहीं होती और अनुरक्ति जाग्रत होने पर आसक्ति नहीं रहती । आसक्ति के रहते हुए अनुरक्ति की माँग भले ही रहे, पर अनुरक्ति जाग्रत नहीं होती । अनुरक्ति जाग्रत होने पर आसक्ति का लेश भी नहीं रहता, अर्थात् आसक्ति के अभाव में ही अनुरक्ति की जाग्रति है । क्या अनुरक्ति आसक्ति के समान नाशवान है ? क्या अनुरक्ति में भी आसक्ति के समान पराधीनता, जड़ता तथा अभाव है ? कदापि नहीं । अनुरक्ति अविनाशी है और जड़ता, पराधनिता, अभाव से रहित है । आसक्ति का परिणाम किसी भी मानव को अभीष्ट नहीं है । इस कारण आसक्ति के नाश का प्रश्न मानव-मात्र में है। आसक्ति का मूल, दृश्य के अस्तित्व को स्वीकार कर, उसमें सत्यता तथा सुन्दरता का आरोप करना है । दृश्य में सत्यता तथा सुन्दरता का आरोप करना अविचार-सिद्ध है । विचार का उदय होते ही दृश्य में सत्यता तथा सुन्दरता शेष नहीं रहती और फिर आसक्ति विरक्ति के रूप में परिणत हो जाती है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 15-17)

Wednesday 27 August 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Wednesday, 27 August 2014 
(भाद्रपद शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०७१, बुधवार)

“मैं” का विवेचन

'मैं' का भास तथा 'यह' की प्रतीति मानव-मात्र को स्वभाव से होती है, पर उसका अर्थ यह नहीं है कि भास-मात्र से ही  'मैं' की वास्तविकता का परिचय होता है । 'मैं' का भास होने पर भी  'मैं' क्या है ? यह प्रश्न स्वत: उत्पन्न होता है । अपने सम्बन्ध में दूसरों के द्वारा जो कुछ सुना है, वह 'मैं' की वास्तविकता का परिचय नहीं है । ऐसी दशा में अपने सम्बन्ध में अपना क्या निर्णय है, इसका स्पष्टीकरण करना अनिवार्य है । जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों ही अवस्थाओं में 'मैं' का भास है । इससे यह स्पष्ट विदित होता है कि  'मैं' कोई ऐसी वस्तु है, जो अवस्थाओं से विलक्षण है । अवस्थाओं की प्रतीति है और 'मैं' का भास है । अवस्थाओं से तादात्म्य रखते हुए  'मैं' का बोध सम्भव नहीं है । अवस्थाओं से असंग होने पर ही 'मैं' का वास्तविक परिचय सम्भव है । जाग्रत और स्वप्न के सम्बन्ध से मानव अपने को सुखी और दुखी अनुभव करता है । इससे यह विदित होता है कि सुख-दुःख का भोग दृश्य के सम्बन्ध से सिद्ध होता है । सुषुप्ति में सुख-दुःख का भास नहीं है ।

इससे यह मानना ही पड़ता है कि प्रतीति अर्थात् दृश्य से असंग होने पर ही 'मैं' की वास्तविकता का अनुभव हो सकता है, अर्थात् जब तक जाग्रत में सुषुप्तिवत् न हो जायँ, तब तक 'मैं' के सम्बन्ध में कुछ भी अनुभव सम्भव नहीं है । जाग्रत में सुषुप्तिवत् होने के लिए क्रियाशीलता तथा चिन्तन से रहित होना अनिवार्य है । वह तभी सम्भव होगा, जब जिज्ञासा-पूर्ति के लिए वर्तमान कर्त्तव्यकर्म विधिवत्, फलासक्ति रहित पूरा कर दिया जाय । ऐसा करने से आवश्यक संकल्पों की पृर्ति और अनावश्यक संकल्पों का त्याग करने की सामर्थ्य आ जायगी । आवश्यक संकल्प की पूर्ति विद्यमान राग की निवृत्ति में हेतु है और संकल्प-पूर्ति के सुख का भोग न करने पर नवीन राग की उत्पत्ति नहीं होती । विद्यमान राग की निवृत्ति हो जाय और नवीन राग उत्पन्न न हो, तब मानव राग-रहित होकर जाग्रत में ही सुषुप्ति का अनुभव कर सकता है । जाग्रत-सुषुप्ति में जड़ता का दोष नहीं रहता और सुषुप्ति के समान दृश्य से सम्बन्ध टूट जाता है । जाग्रत में जब दृश्य से सम्बन्ध नहीं रहता, तब स्वत: 'मैं' क्या हूँ ? यह प्रश्न हल हो जाता है । 'मैं' का वर्णन किसी करण अर्थात् इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि के द्वारा सम्भव नहीं है; कारण, कि यह सब तो दृश्य ही हैं । दृश्य के सहयोग से उसका वर्णन नहीं हो सकता, जिसको दृश्य की प्रतीति है । दृश्य से सम्बन्ध-विच्छेद होने पर ही अपने द्वारा अपना परिचय होता है । बस, यही 'मैं' क्या हूँ ? इस प्रश्न को हल करने का उपाय है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 14-15)

Tuesday 26 August 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Tuesday, 26 August 2014 
(भाद्रपद शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०७१, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं” का स्वरूप

जिज्ञासु और भक्त में अन्तर केवला इतना है कि जिज्ञासु दृश्य के स्वरूप को जानकर दृश्य से विमुख होता है और भक्त उसे अपना न मानकर । दृश्य से विमुख होने में दोनों समान हैं । जिज्ञासु जानने के पश्चात् किसी की सत्ता स्वीकार करता है और भक्त बिना ही जाने, विश्वास के आधार पर ही अपने प्रभु की सत्ता स्वीकार कर लेता है ।

जिज्ञासु जिज्ञासा होकर उस अनन्त से अभिन्न हो जाता है जिसकी वह जिज्ञासा थी और भक्त भक्ति होकर अपने प्रभु से अभिन्न हो जाता है । जिज्ञासु जिज्ञासापूर्ति होने पर अमरत्व को प्राप्त करता है और भक्त भक्ति होकर अपने प्रेमास्पद के प्रेम को प्राप्त करता है । जिज्ञासु का 'मैं' अमरत्व से अभिन्न हो जाता है और भक्त का 'मैं' प्रेमास्पद का प्रेम हो जाता है ।

विषयी का 'मैं' एकमात्र विषयों की आसक्ति के रूप में ही प्रतीत होता है, जिज्ञासु का ‘मैं' अमरत्व से अभिन्न हो जाता है और भक्त का ‘मैं' प्रेम हो जाता है । जो ‘मैं' विषयों की आसक्ति के रूप में प्रतीत होता है, वह अभावरूप है, क्योंकि विषयासक्ति में जीवन नहीं है । जिज्ञासु का 'मैं' जिज्ञासाकाल में केवल जिज्ञासा है और जिज्ञासा की पूर्ति में उसका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है; क्योंकि जिज्ञासा उससे अभिन्न हो जाती है, जिसकी वह जिज्ञासा थी । भक्त का ‘मैं' आरम्भ में तो प्रभु का विश्वास और प्रभु के सम्बन्ध के रूप में प्रतीत होता है, पर अन्त में प्रभु का प्रेम हो जाता है । प्रेम और प्रेमास्पद में जातीय एकता है । इस दृष्टि से 'मैं' अभाव, अमरत्व या प्रेम ही है, और कुछ नहीं है ।

(मानव सेवा संघ के ग्रन्थ 'जीवन दर्शन' से साभार)


 - (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 13)

Monday 25 August 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Monday, 25 August 2014 
(भाद्रपद कृष्ण अमावस्या, वि.सं.-२०७१, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं” का स्वरूप

जिज्ञासा की पूर्ति वर्तमान जीवन का प्रश्न है, भविष्य का नहीं । अत: जिज्ञासा जाग्रत - होने पर जब तक हल न हो जाय, तब तक किसी अन्य प्रवृत्ति का जन्म नहीं होना चाहिये । यदि किसी की जिज्ञासा इतनी सबल तथा स्थायी नहीं है, जो वर्तमान की वस्तु हो, तो ऐसे जिज्ञासुओं को चाहिये कि वे जिज्ञासा को सबल और स्थायी बनाने के लिये निरन्तर इन्द्रिय-दृष्टि पर बुद्धि-दृष्टि को लगाये रखें । उन्हें इन्द्रिय-ज्ञान पर बुद्धिज्ञान से विजय प्राप्त करनी होगी । जिस काल में बुद्धि का ज्ञान इन्द्रिय-ज्ञान को खा लेगा, उसी काल में जिज्ञासा वर्तमान जीवन की वस्तु हो जायेगी । फिर 'मैं' क्या हूँ ? यह प्रश्न स्वत: हल हो जायेगा । बुद्धि के ज्ञान का अनादर होने पर जिज्ञासा की जागृति नहीं हो सकती, क्योंकि बुद्धि के ज्ञान के अनादर से इन्द्रिय-ज्ञान का आदर होने लगता है, जो राग को उत्पन्न करने में हेतु है । राग की उत्पत्ति हो जाने पर इन्द्रियाँ विषयों के अधीन, मन इन्द्रियों के अधीन और बुद्धि मन के अधीन हो जाती है । इससे बेचारा प्राणी जड़ता में आबद्ध हो जाता है; परन्तु बुद्धि के ज्ञान का आदर होने पर इन्द्रियाँ विषयों से विमुख होकर मन में विलीन हो जाती हैं, मन निर्विकल्प होकर बुद्धि में विलीन हो जाता है और बुद्धि सम हो जाती है । उससे जिज्ञासा की पूर्ण जागृति और उसकी पूर्ति की सामर्थ्य स्वत: आ जाती है ।

बुद्धि के ज्ञान का आदर होने पर दृश्य के स्वरूप का और अपने कर्त्तव्य का भी ज्ञान हो जाता है, अर्थात् बुद्धि के ज्ञान में कर्त्तव्य का तथा दृश्य के स्वरूप का ज्ञान भी निहित है । जो साधक दृश्य के स्वरूप को भलीभाँति जान लेते हैं, वे रागरहित होकर प्रत्येक दशा में जिज्ञासु हो सकते हैं, अर्थात् उनके लिये कोई प्रवृत्ति अपेक्षित नहीं रहती । किन्तु जो साधक दृश्य के स्वरूप को पूर्णरूप से नहीं जान पाते, वे पहले कर्त्तव्यनिष्ठ होकर पीछे जिज्ञासु होते हैं । जिज्ञासा की जागृति के लिए रागरहित होना अनिवार्य है, चाहे प्रवृत्ति द्वारा हो अथवा दृश्य के वास्तविक स्वरूप को जानकर । जो साधक सरल विश्वास के आधार पर अपने को भक्त मान लेता है, वह स्वभाव से ही समस्त विश्व से सम्बन्ध-विच्छेद कर देता है और अपने प्रभु से नित्य सम्बन्ध स्वीकार कर लेता है । उसमें न तो अपना कोई बल रहता है और न किसी प्रकार का संदेह ही रहता है । जिनसे उसने सम्बन्ध स्वीकार किया है, उनके विश्वास और उनकी प्रीति को ही वह अपना जीवन मानता है । देह, गेह आदि किसी से उसका सम्बन्ध नहीं रहता । वह प्रत्येक कार्य अपने प्रभु के नाते ही स्वीकार करता है । कार्य के अन्त में स्वभाव से ही प्रभु की वह स्मृति उदित होती है, जो प्रीति के स्वरूप में बदलकर उसे प्रियता से अभिन्न कर देती है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 11-13)

Sunday 24 August 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Sunday, 24 August 2014 
(भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०७१, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं” का स्वरूप

अनित्य जीवन का और नित्य जीवन का आश्रय बिना लिये 'मैं' जैसी कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है । अनित्य जीवन के साथ मिलाने से 'मैं' अनेक मान्यताओं के रूप में प्रतीत होता है और मान्यता के अनुरूप ही कर्त्तव्य तथा राग का जन्म होता है । कर्त्तव्य राग-निवृत्ति का साधन है । अत: जिस प्रकार औषधि की आवश्यकता रोग-काल में होती है, आरोग्य-काल में नहीं, उसी प्रकार कर्त्तव्य की प्रेरणा राग-निवृत्ति के लिये ही होती है । राग-रहित होते ही अनित्य जीवन से तो सम्बन्ध टूट जाता है और नित्य जीवन से अभिन्नता हो जाती है; क्योंकि अनित्य जीवन और नित्य जीवन में देश-काल की दूरी नहीं है । अनित्य जीवन की भिन्नता और नित्य जीवन की अभिन्नता के मध्य में  'मैं' जैसी कोई स्वतन्त्र वस्तु कभी देखने में नहीं आती । हाँ, यह अवश्य है कि अनित्य जीवन के सम्बन्ध से जो आसक्ति उत्पन्न हो गयी थी, वह नित्य जीवन से अभिन्नता होते ही प्रीति के रूप में बदल जाती है । जिस प्रकार पहले अनित्य जीवन और उसकी आसक्ति प्रतीत होती थी, उसी प्रकार तब नित्य जीवन और उसकी प्रीति ही रह जाती है । अन्तर केवल इतना ही है कि अनित्य जीवन और उसकी आसक्ति तो विनाशी है तथा नित्य जीवन और उसकी प्रीति अविनाशी है ।

जिज्ञासा के उदय में साधक अकाम होता है और पूर्ति में आप्तकाम हो जाता है, यही वास्तविक जीवन है । अब यदि कोई कहे कि जिज्ञासापूर्ति के लिये साधक को किस साधन की अपेक्षा है ? तो कहना होगा कि भोग के परिणाम की अनुभूति के आधार पर तो जिज्ञासा जाग्रत होती है और समस्त दृश्य से विमुख होने पर जिज्ञासा की पूर्ति होती है । समस्त दृश्य से विमुख होने की सामर्थ्य उस अनन्त की अहैतुकी कृपा से स्वत: प्राप्त होती है, जो स्वभाव से ही सभी का परम सुहृद है । अथवा यों कहो कि जो उत्पत्ति, विनाश और देश-काल की दूरी से रहित है, उसी की अहैतुकी कृपा से दृश्य से विमुख होने की सामर्थ्य जिज्ञासु को प्राप्त होती है । अत: दृश्य की विमुखता ही जिज्ञासा की पूर्ति का सुगम और अन्तिम साधन है । जब किसी कारण से जिज्ञासु मिली हुई सामर्थ्य का सदुपयोग नहीं कर पाता, तब वही कृपा सद्गुरु के स्वरूप में मूर्तिमान-होकर जिज्ञासा की पूर्ति कर देती है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 10-11)

Friday 22 August 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Friday, 22 August 2014 
(भाद्रपद कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७१, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं” का स्वरूप

साधनरूप 'मैं' यद्यपि तीन भागों में विभाजित है - विषयी, जिज्ञासु तथा भक्त । उनमें से विषयी भाव की मान्यता तो दृश्य से सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होने देती; किन्तु जिज्ञासा तथा भक्तभाव की मान्यताएँ दृश्य से सम्बन्ध-विच्छेद करने में समर्थ हैं । अपने को विषयी मान लेने में उत्कृष्ट भोगों की ही रुचि दृढ़ होती है, जो दृश्य से सम्बन्ध जोड़ती है । दृश्य से सम्बन्ध रहते हुए 'मैं क्या हूँ' ? यह प्रश्न हल नहीं हो सकता ।

ज्ञान, विज्ञान एवं कलाओं के द्वारा परिवर्तनशील जीवन को सुन्दर बनाने का अर्थ यह है कि उस व्यक्तित्व की आवश्यकता समाज को हो जाय और उसे समाज की आवश्यकता न रहे । अथवा यों कहो कि उसकी आवश्यकता को समाज अपनी ही आवश्यकता समझने लगे । यदि समाज की उदारता, सेवा एवं स्नेह के आधार पर व्यक्तित्व का मोह सुरक्षित रहा, तो भी - यह प्रश्न हल नहीं होगा कि 'मैं क्या हूँ’ ? 'मैं क्या हूँ' ? इस प्रश्न को वही साधक हल कर सकता है, जो समाज का ऋणी न हो और समाज की उदारता की दासता में आबद्ध न हो । समाज का ऋणी न रहने पर व्यक्ति का मूल्य समाज से अधिक हो जाता है और समाज की उदारता का भोग न करने पर वह व्यक्तित्व के मोह से रहित हो जाता है । व्यक्तित्व के मोह का अन्त होते ही तीव्र जिज्ञासा जाग्रत होती है, जो 'मैं क्या हूँ'? इस समस्या को हल करने में समर्थ है । जिस काल में जिज्ञासा माने हुए सभी सम्बन्धों को खा लेती है, उसी काल में उसकी पूर्ति हो जाती है । तब 'मैं' नित्य जीवन से अभिन्न हो जाता है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 09-10)

Thursday 21 August 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Thursday, 21 August 2014 
(भाद्रपद कृष्ण एकादशी, वि.सं.-२०७१, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं” का स्वरूप

देह के साथ अपने को मिला लेना ही दृश्य के साथ मिल जाना है, पर उस देह के प्रति भी अनेक मान्यताएँ होती हैं, जो साधन-रूप हैं । जैसे 'मैं हिन्दुस्तानी हूँ ', अत: हिन्दुस्तान का ह्रास-विकास मेरा ह्रास-विकास है । उसी प्रकार देश, जाति, मत, सम्प्रदाय, पद, कुटुम्ब और कार्यक्षेत्र के अनुरूप अनेक मान्यताओं के साथ हम अपने को मिला लेते हैं, पर सभी मान्यताओं की भूमि केवल देह है । इस दृष्टि से देह साधन का क्षेत्र है; परन्तु अन्तर यह हो जाता है कि केवल देह के साथ मिले रहने से तो पशुता के समान केवल भोग की ही रुचि उत्पन्न होती है, पर साधनरूप मान्यताओं के साथ मिलने से भोग-प्रवृत्ति में भी एक मर्यादा आती है और उसके साथ-साथ भोग-निवृत्ति की लालसा भी जाग्रत हो जाती है; क्योंकि भोग-प्रवृत्ति का परिणाम किसी को अभीष्ट नहीं है ।

साधनरूप समस्त मान्यताएँ दो भागों में विभाजित हैं । एक भाग तो वह है, जिसमें अपने को सुन्दर बनाने वाली मान्यताएँ हैं और दूसरा वह भाग है, जिसमें दूसरों के अधिकार की रक्षा करने वाली मान्यताएँ हैं । अथवा यों कहो कि अपने को सुन्दर बनाकर दूसरों के अधिकारों की रक्षा करना है । दूसरों के अधिकार की रक्षा से जब राग की निवृत्ति हो जाती है, तब स्वत: समस्त दृश्य से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । दृश्य से सम्बन्ध-विच्छेद होते ही जिज्ञासा की पूर्ति अपने आप हो जाती है । फिर यह प्रश्न कि मैं क्या हूँ ? हल हो जाता है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 08-09)

Wednesday 20 August 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Wednesday, 20 August 2014 
(भाद्रपद कृष्ण दशमीं, वि.सं.-२०७१, बुधवार)

“मैं” का स्वरूप

जीवन का अध्ययन करने पर यह प्रश्न स्वाभाविक उत्पन्न होता है कि मैं क्या हूँ ? यह नियम है कि प्रश्न की उत्पत्ति अधूरी जानकारी में ही होती है । जिसके सम्बन्ध में कुछ नहीं जानते, अथवा पूरा जानते हैं, उसके सम्बन्ध में प्रश्न की उत्पत्ति नहीं होती । इस दृष्टि से यह सिद्ध होता है कि 'मैं क्या हूँ ', इस सम्बन्ध में प्रत्येक व्यक्ति कुछ-न-कुछ अवश्य जानता है । हाँ, यह अवश्य है कि वह जानना विवेकपूर्वक न हो, अपितु विश्वास के आधार पर हो; क्योंकि विवेकपूर्वक जान लेने पर तो निस्संदेहता आ जाती है, फिर प्रश्न की उत्पत्ति ही नहीं हो सकती ।

विकल्परहित विश्वास ज्ञान न होने पर भी ज्ञान - जैसा प्रतीत होता है । उसी विश्वास के कारण यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि 'मैं क्या हूँ’ ? क्योंकि 'मैं' की अस्वीकृति किसी को नहीं है । यद्यपि केवल स्वीकृति को 'मैं' नहीं कह सकते, तो भी हम स्वीकृति के स्वरूप में अपने को मानते हैं । कभी-कभी तो दृश्य के साथ मिलकर अपने को मान लेते हैं और कभी श्रवण की हुई स्वीकृति को भी 'मैं' मान लेते हैं । जब हम दृश्य के साथ मिलकर अपने को मानते हैं, तब कामनाओं का उदय होता है और वे सभी कामनाएँ इन्द्रियजन्य स्वभाव के अनुरूप होती हैं, अर्थात् इन्द्रियों को विषयों में प्रवृत्त कराने वाली होती हैं । यद्यपि विषय-प्रवृत्ति के अन्त में प्राप्ति कुछ नहीं होती, अपितु शक्तिहीनता, जड़ता एवं परतंत्रता की अनुभूति होती है । उस अनुभूति के आधार पर ही जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि 'मैं' क्या हूँ ? अथवा यों कहो कि सामर्थ्य, चिन्मयता एवं स्वाधीनता की माँग उत्पन्न होती है । इस दृष्टि से 'मैं ' का अर्थ हो जाता है, उसकी लालसा, जिसमें जीवन है, सामर्थ्य है, स्वाधीनता है ।

जब तक भोग प्रवृत्ति के परिणाम की वेदना नहीं होती, तब तक तो 'मैं' का अर्थ रहता है, भोगवासनाओं का समूह । यद्यपि भोग-वासनाएँ जिज्ञासा को मिटा नहीं पातीं, परन्तु उसमें शिथिलता अवश्य आ जाती है । उसी स्थिति में प्राणी को कभी भोगवासनाएँ और कभी जिज्ञासा, दोनों ही अपने में प्रतीत होती हैं, अथवा यों कहो कि जिज्ञासा और भोगवासनाओं का द्वन्द्व रहता है । उस द्वन्द्व का अन्त करने के लिये ही प्राणी अपने को साधक मानता है, अथवा यों कहो कि उसमें साधन की रुचि जाग्रत होती है । साधन की रुचि जाग्रत होने पर सर्वप्रथम 'मैं' दृश्य नहीं हूँ, यह विचार उदित होता है । उसका उदय होते ही 'मैं क्या हूँ?' यह समस्या सामने आती है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 07-08)

Tuesday 19 August 2014

।। हरिः शरणम् !।।

Tuesday, 19 August 2014 
(भाद्रपद कृष्ण नवमीं, वि.सं.-२०७१, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
“मैं” क्या है ?

'मैं' और 'विश्व' एक है, यह मान्यता भी साधनरूप मान्यता हो सकती है, साध्यरूप नहीं; अर्थात् निर्णयात्मक नहीं । इस साधनरूप मान्यता से हमें सीमित प्यार का अन्त करना है एवं देह के मोह से और उसकी तद्रूपता से रहित होना है । विश्व से एकता स्वीकार करते ही सामूहिक सुख-दुःख अपना सुख-दुःख हो जाता है, जो हृदय में करुणा और प्रसन्नता प्रदान करने में समर्थ है । करुणा भोग-प्रवृत्ति को और प्रसन्नता भोग-वासनाओं को खा लेती है; ऐसा होते ही समस्त कामनाओं का अन्त हो जायेगा । कामनाओं का अन्त होते ही निर्दोषता आ जायेगी और गुणों का अभिमान गल जायेगा, जिसके गलते ही परिच्छिन्नता तथा संकीर्णता सदा के लिये मिट जायेगी। उसके मिटते ही अनन्त से अभिन्नता हो जायेगी । फिर सीमित प्यार - जैसी कोई वस्तु नहीं रहेगी, अर्थात् सभी आसक्तियाँ मिटकर उस अनन्त की प्रीति बन जायेंगी ।

प्रीति तथा आसक्ति में बड़ा अन्तर है । आसक्ति में जड़ता और प्रीति में चिन्मयता होती है । आसक्ति मिट सकती है, पर प्रीति नित्य होती है । आसक्ति का जन्म किसी अविवेकयुक्त प्रवृत्ति से तथा अभ्यास से होता है; परन्तु प्रीति अभ्यासजन्य नहीं है, स्वभाव है, श्रमरहित है, जीवन है । यह अविवेकसिद्ध नहीं है, अपितु विवेकसिद्ध है । आसक्ति की पूर्ति तथा निवृत्ति होती है; परन्तु प्रीति की न पूर्ति होती है, न निवृत्ति । आसक्ति घटती-बढ़ती तथा मिटती है; किन्तु प्रीति की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है । यह घटती या मिटती नहीं है । आसक्ति वस्तु, व्यक्ति, अवस्था आदि में सीमित रहती है; परन्तु प्रीति विभु होती है । आसक्ति बन्धन उत्पन्न करती है और मृत्यु की ओर ले जाती है; परन्तु प्रीति स्वाधीन बनाती है और अमरत्व प्रदान करती है । आसक्ति एक में अनेकता का दर्शन कराती है और प्रीति अनेकता को एकता में विलीन करती है; क्योंकि प्रीति की दृष्टि में प्रीतम से भिन्न कुछ नहीं रहता ।

इस दृष्टि से 'मैं' का अर्थ विश्व के साथ एकता अथवा अनन्त से अभिन्नता अथवा अनन्त की प्रीति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । अथवा यों कहो 'मैं' का अर्थ कुछ नहीं, या सब कुछ है, या केवल प्रीति ही है ।

(मानव सेवा संघ, वृन्दावन के ग्रन्थ “जीवन दर्शन'' से साभार)


 - “मैं” की खोज पुस्तक से, (Page No. 05-06)