Saturday 17 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 17 December 2011
(पौष कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 1

        एक बार एक अंग्रेज युवक हमारे मानव सेवा संघ आश्रम में आया । भिखारी वेश समझिए, साधु वेश समझिए। हम लोगों जैसे तो कपड़े नहीं थे। तो वह आश्रम में ठहरा रहा। हमारे यहाँ नियम है कि कोई ठहरना चाहे तो ठहर सकता है। हमने उससे कुछ नहीं कहा कि तुम हमारे सत्संग में बैठो या हमारी बात मानो । कोई उसपर पाबन्दी नहीं डाली । तो उससे हमने प्रश्न किया । हमने कहा कि तुमने कोई ऐसा देश देखा है कि जिसके पास कुछ भी न हो और वह आराम से रह ले, जैसा कि हिन्दुस्तान में रहता है । ईमानदार आदमी था । उसने कहा, हमने ऐसा कोई देश नहीं देखा । यह हमारे गरीब देश की महिमा है।

        अमेरिका में जाओ, इंग्लैण्ड में जाओ, चीन में जाओ। या तो सरकार की पेंशन खाओ या भूखे मर जाओ । एक आदमी अपरिचित चला जाय । एक आदमी ऐसा चला जाय जिसका सरकार से कोई सम्बन्ध न हो, तो वह भूखा मर जाएगा। तो अकेली सरकार अमीर हो गयी और सब गरीब हो गए । सरकार दिन-रात माँग रही है । टैक्स पर टैक्स बढ़ते जाते हैं, टैक्स पर टैक्स बढ़ते चले जा रहे हैं ।
               
        मैं तो आपसे यह निवेदन करना चाहता हूँ कि यह गरीबी मिटाने का उपाय नहीं है । जो आप यूरोप (Urope) की नकल कर रहे हैं । टैक्स बढ़ाना तो आपने सीख लिया, सुविधा देना नहीं सीख पाया । अधिकार माँगना तो सीख लिया, क्या कर्तव्यपरायणता को भी अपनाया ? अधिकार माँगनेवाला सदा ही दरिद्र रहेगा । कभी उसकी दरिद्रता मिट नहीं सकती। कर्तव्यनिष्ठ की दरिद्रता मिटती है । कर्तव्यनिष्ठता का अर्थ है दूसरों के अधिकारों की रक्षा करो । यह कर्तव्यपरायणता का अर्थ है। अगर तुम दूसरों के काम आते रहोगे तो तुम्हारी दरिद्रता मिट जाएगी । अगर स्वयं काम-रहित (कामना-रहित) हो जाओगे, तो तुम्हारी गरीबी मिट जाएगी ।  

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी, भाग - 8' पुस्तक से । (Page No. 15-16)