Monday, 12 December 2011
(पौष कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०६८, सोमवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 1
बुराई-रहित होने में सब स्वतन्त्र हैं ही । बुराई करना या न करना आपके वश की बात है । अगर आप बुराई करना पसन्द न करें तो बुराई आपके पास अपने आप थोड़े ही आ जाएगी । तो संसार की सेवा करने में मानव सर्वथा स्वाधीन और समर्थ है । यथाशक्ति भलाई करने में भी समर्थ है और की हुई भलाई का फल न चाहने में भी समर्थ है । की हुई बुराई को न दोहराने में भी समर्थ है और जानी हुई बुराई को न करने में भी समर्थ है ।
यह तो संसार की सेवा हुई । फिर हमारी सेवा कैसी होगी? हमारी सेवा होगी अचाह होने से । "मुझे कुछ नहीं चाहिए", इसके द्वारा हम अपनी सेवा कर सकेंगे । कैसे ? अचाह होने से जब हम अप्रयत्न हो जाएँगे तब । अप्रयत्न होने पर हमारा स्थूल शरीर स्थूल संसार से, सूक्ष्म शरीर सूक्ष्म संसार से, कारण शरीर कारण संसार से सम्बन्ध टूट जाएगा ।
जब हमारा और संसार का सम्बन्ध टूट जाएगा, तब हममें अपने में संतुष्ट होने की सामर्थ्य आ जाएगी । और जब हममें अपने में संतुष्ट रहने की सामर्थ्य आ जाएगी तब अपने में जो अपना परमात्मा है, उसका अनुभव हो जाएगा । ऐसा प्रभु-विश्वासी ही कह सकता है, क्योंकि परमात्मा को सभी ईश्वर-विश्वासियों ने अपना स्वीकार किया है, सदैव स्वीकार किया है, सर्वत्र स्वीकार किया है ।
किसी भी परमात्मा को माननेवाले ने यह नहीं कहा कि परमात्मा समर्थ नहीं है, सदैव नहीं है, सर्वत्र नहीं है, अद्वितीय नहीं है । तो सदैव होने से अभी है, सर्वत्र होने से अपने में है, सभी का होने से अपना है, समर्थ है और अद्वितीय है । अब ये तीन बातें आपके सामने आईं कि परमात्मा अभी है, अपना है, अपने में है । तीन बातें ये हुईं ।
जो चीज अभी है, उसके लिए भविष्य की आशा करेंगे क्या? और जो चीज अपने में है, उसे कहीं बाहर ढूँढोगे क्या ? और जो चीज अपनी है, उससे प्रियता उदित नहीं होगी क्या ? जो समर्थ है, वह हमें अपनाएगा नहीं क्या ? जो चीज अपनी है, उसे भूल जाएँगे क्या ? जो अद्वितीय है, उसकी पहचान करनी पड़ेगी क्या? अद्वितीय वस्तु की पहचान थोड़े ही करनी पड़ती है ।
इससे सारांश क्या निकला ? इससे तात्पर्य यह निकला कि जब हमें परमात्मा की पहचान नहीं करना है, तो बुद्धि की आवश्यकता क्या ? और अपना है तो प्रिय क्यों नहीं लगेगा? और जब अपने में है, तो अपने से दूर हो ही कैसे सकता है ?
- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी, भाग - 8' पुस्तक से । (Page No. 10-11)
यह तो संसार की सेवा हुई । फिर हमारी सेवा कैसी होगी? हमारी सेवा होगी अचाह होने से । "मुझे कुछ नहीं चाहिए", इसके द्वारा हम अपनी सेवा कर सकेंगे । कैसे ? अचाह होने से जब हम अप्रयत्न हो जाएँगे तब । अप्रयत्न होने पर हमारा स्थूल शरीर स्थूल संसार से, सूक्ष्म शरीर सूक्ष्म संसार से, कारण शरीर कारण संसार से सम्बन्ध टूट जाएगा ।
जब हमारा और संसार का सम्बन्ध टूट जाएगा, तब हममें अपने में संतुष्ट होने की सामर्थ्य आ जाएगी । और जब हममें अपने में संतुष्ट रहने की सामर्थ्य आ जाएगी तब अपने में जो अपना परमात्मा है, उसका अनुभव हो जाएगा । ऐसा प्रभु-विश्वासी ही कह सकता है, क्योंकि परमात्मा को सभी ईश्वर-विश्वासियों ने अपना स्वीकार किया है, सदैव स्वीकार किया है, सर्वत्र स्वीकार किया है ।
किसी भी परमात्मा को माननेवाले ने यह नहीं कहा कि परमात्मा समर्थ नहीं है, सदैव नहीं है, सर्वत्र नहीं है, अद्वितीय नहीं है । तो सदैव होने से अभी है, सर्वत्र होने से अपने में है, सभी का होने से अपना है, समर्थ है और अद्वितीय है । अब ये तीन बातें आपके सामने आईं कि परमात्मा अभी है, अपना है, अपने में है । तीन बातें ये हुईं ।
जो चीज अभी है, उसके लिए भविष्य की आशा करेंगे क्या? और जो चीज अपने में है, उसे कहीं बाहर ढूँढोगे क्या ? और जो चीज अपनी है, उससे प्रियता उदित नहीं होगी क्या ? जो समर्थ है, वह हमें अपनाएगा नहीं क्या ? जो चीज अपनी है, उसे भूल जाएँगे क्या ? जो अद्वितीय है, उसकी पहचान करनी पड़ेगी क्या? अद्वितीय वस्तु की पहचान थोड़े ही करनी पड़ती है ।
इससे सारांश क्या निकला ? इससे तात्पर्य यह निकला कि जब हमें परमात्मा की पहचान नहीं करना है, तो बुद्धि की आवश्यकता क्या ? और अपना है तो प्रिय क्यों नहीं लगेगा? और जब अपने में है, तो अपने से दूर हो ही कैसे सकता है ?
- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी, भाग - 8' पुस्तक से । (Page No. 10-11)