Saturday, 10 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 10 December 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल पूर्णिमा, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार

89.    प्रवृति के द्वारा जिस किसी को कुछ मिलता है, वह कालान्तर में स्वतः मिट जाता है ।

90.    प्रार्थना इसलिए नहीं की जाती कि आप कहेंगे, तब परमात्मा सुनेंगे। प्रार्थना का असली रूप है - अपनी आवश्यकता ठीक-ठीक अनुभव करना।

91.    जिस प्रकार प्यास लगना ही पानी का माँगना है, उसी प्रकार अभाव की वेदना ही प्रार्थना है ।

92.    जो तुम्हारे सम्बन्ध में तुमसे भी अधिक जानते हैं, क्या उनसे भी कुछ कहना है ?

93.    जिस प्रकार माँ को शिशु की सभी आवश्कताओं का ज्ञान है एवं शिशु के बिना कहे ही माँ वह करती है, जो उसे करना चाहिए, उसी प्रकार आनन्दघन भगवान् हमारे बिना कहे ही वह अवश्य करते हैं, जो उन्हें करना चाहिए । परन्तु हम उनकी दी हुई शक्ति का सदुपयोग नहीं करते और निर्बलता मिटाने के लिए बनावटी प्रार्थना करते रहते हैं ।

94.    प्रभु की महिमा सुनकर जो ईश्वरवादी होते हैं, वे कामी हैं, प्रेमी नहीं ।

95.    योग की प्राप्ति में, बोध की प्राप्ति में, प्रेम की प्राप्ति में कुछ न चाहना ही मूल मन्त्र है ।

96.    अपने प्रियतम को अपने से भिन्न किसी और में अनुभव मत करो ।

97.    जिनके सम्बन्धमात्र में ही देहाभिमान गल जाता है, उनके प्रेम की प्राप्ति में भला देहादि की क्या अपेक्षा होगी ?

- 'सन्त हृदयोद्गार' पुस्तक से ।