Tuesday, 6 December 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 06 December 2011
(मार्गशीर्ष शुक्ल मोक्षदा एकादशी, गीता जयंती, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार

63.    वे (संसार के रचयिता) अपनी वस्तु को सदैव देखते रहते हैं। उन्होंने कभी भी तुम्हें अपनी आँख से ओझल नहीं किया । ........... साधक भले ही उन्हें भूल जाय, पर वे नहीं भूलते। ........... जिसकी जो वस्तुएँ हैं, उसे वह देखता ही है, सम्भालता ही है । ............ अपनी रचना से क्या रचयिता अपरिचित होता है? कदापि नहीं ।  
      
64.    भगवान् का कोई एक ठिकाना नहीं है । ऐसा नहीं है कि संसार अलग हो, तत्वज्ञान अलग हो, भक्ति अलग हो और भगवान् अलग हो । सब मिलकर जो चीज है, उसी का नाम भगवान् है ।
             
65.    जो किसी का नहीं तथा जिसका कोई नहीं, उसके भगवान् अपने-आप हो जाते हैं; क्योंकि वे अनाथ के नाथ हैं ।

66.    भगवान् के होकर 'भगवान् का स्वरूप क्या है ?' यह प्रश्न क्या अर्थ रखता है ? गहराई से देखिए, प्यासने कभी नहीं पूछा, 'पानी क्या है ?' भूख ने किसी से नहीं पूछा, 'भोजन क्या है?' पानी पाकर प्यास तृप्त हो गई, भोजन पाकर भूख तृप्त हो गई। तृप्ति होनेपर पानी और प्यास की भिन्नता तथा भूख और भोजन की भिन्नता शेष नहीं रहती ।

67.    जब हम अपने में शरीर-भाव का अभिनय स्वीकार करते हैं, तब हमारे प्यारे (प्रभु) विश्वरूप होकर लीला करते हैं । शरीर होकर किसी भी खिलाड़ी (प्राणी) ने विश्व से भिन्न कुछ नहीं जाना । .......... हम शरीर बनकर तो केवल उनको विश्वरूप में ही देख सकते हैं ।
 
68.    ईश्वर मानव की स्वाधीनता छिनना नहीं चाहता, इसलिए मानव जबतक स्वयं अपनी ओर से ईश्वर के सम्मुख नहीं होता, तबतक ईश्वर उसके पीछे ही रहता है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्त हृदयोद्गार' पुस्तक से ।