Monday 20 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Monday, 20 April 2015 
(वैशाख शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०७२, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

यह सभी का अनुभव है कि अपराध करने पर जब उसे भय होता है, तब उसमें स्वभाव से ही यह संकल्प उत्पन्न होता है कि  'अब मैं भूल नहीं करूँगा' । इस स्वाभाविक प्रेरणा से यह सिद्ध हो जाता है कि अपराध करने से पूर्व व्यक्ति निरपराध था और अब भी निरपराध रहना चाहता है । आदि और अन्त में निर्दोषता ही निर्दोषता है । मध्य में उत्पन्न किये दोषों के आधार पर आदि और अन्त में सदैव रहने वाली निर्दोषता मिट नहीं सकती । यदि किसी प्रकार निर्दोषता मिट जाती, तो जीवन में उसकी माँग ही न होती । किन्तु निर्दोषता की माँग मानव-मात्र के जीवन में रहती है ।

अब यदि कोई यह कहे कि निर्दोषता तो थी ही, तो फिर दोषों की उत्पत्ति ही क्यों हुई ? इस समस्या पर विचार करने से ऐसा विदित होता है कि समस्त दोषों की उत्पत्ति का कारण विवेक-विरोधी कर्म, सम्बन्ध तथा विश्वास को अपनाना है, जो वास्तव में जाने हुए असत् का संग है । असत् के संग से ही अकर्त्तव्य की उत्पत्ति होती है; किन्तु प्राकृतिक विधान के अनुसार अकर्त्तव्य के अन्त में स्वभाव से ही कर्त्तव्य की माँग जाग्रत होती है । इससे यह स्पष्ट विदित हो जाता है कि व्यक्ति ने जाने हुए असत् को अपनाकर इस को जन्म दिया है । यदि जाने हुए असत् का त्याग कर दिया जाय, तो सदा के लिए अकर्त्तव्य का नाश अपने आप हो जाता है । अकर्त्तव्य का नाश हो जाने पर ही उसके कारण का यथेष्ट ज्ञान होता है । अकर्त्तव्य के रहते हुए उसके कारण का ज्ञान सम्भव नहीं है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 33-34)