Thursday 16 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Thursday, 16 April 2015 
(वैशाख कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७२, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

दूसरों के प्रति उत्पन्न हुई घृणा समीपता में भी दूरी उत्पन्न कर देती है, अर्थात् बाह्य दृष्टि से दो व्यक्ति, दो वर्ग, दो देश समीप रहते हुए भी, आन्तरिक दृष्टि से एक दुसरे से दूर होते जाते हैं । इसका परिणाम बड़ा ही भयंकर होता है । परस्पर बैर-भाव की बड़ी ही गहरी खाई बन जाती है । वैर-भाव अपने और दूसरे के विनाश में हेतु है और समस्त संघर्षो का मूल है । वैर-भाव व्यक्ति के मस्तिष्क को इतना अस्वस्थ कर देता है कि वह वस्तुस्थिति का यथेष्ट परिचय नहीं कर पाता । उसे विपक्षी में दोष ही दोष प्रतीत होने लगते हैं । यह द्वेष की महिमा है कि गुण का दर्शन नहीं होने देता । यह नियम है कि किसी का द्वेष किसी का राग बन जाता है । जिस प्रकार द्वेष गुण का दर्शन नहीं होने देता, उसी प्रकार राग दोष का दर्शन नहीं होने देता । वैर-भाव अपना दोष और विपक्षी का गुण देखने नहीं देता ।

अपने दोष को जाने बिना उसका त्याग नहीं होता और दूसरे के गुण को जाने बिना उससे एकता नहीं हो सकती । इस कारण वैर-भाव कभी भी न तो परस्पर एकता ही होने देता है और न संघर्ष का नाश ही । वैर-भाव के समान और कोई अपना वैरी नहीं है, जिसकी उत्पत्ति दूसरों को बुरा समझने से होती है । अत: किसी को बुरा समझना अपना बुरा करना है । यदि मानव निर्दोष होना चाहता है, तो उसे अपने को और दूसरों को वर्तमान में निर्दोष मानना ही पडेगा; क्योंकि यह विवेक-सिद्ध है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 29-30)