Friday 17 April 2015

।। हरिः शरणम् !।।

Friday, 17 April 2015 
(वैशाख कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०७२, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
दर्शन और नीति

भूतकाल के दोषों की स्मृति ने ही वर्तमान की ‘निर्दोषता' को ढक दिया है । यदि भूतकाल की स्मृति के आधार पर किए हुए दोष को न दोहराने का महाव्रत ले लिया जाए, तो स्मृति से असहयोग करने की सामर्थ्य आ जाती है और अपने में से अपराधी-भाव का विनाश हो जाता है, जिसके होते ही वर्तमान की निर्दोषता का स्पष्ट बोध हो जाता है और फिर उसका प्रभाव शरीर इन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि आदि पर स्वत: होने लगता है । इतना ही नहीं उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति निर्दोषता से युक्त होने लगती है, जिससे समाज में निर्दोषता विभु हो जाती है । उसके न चाहने पर भी उसे आदर तथा प्यार मिलने लगता है; क्योंकि निर्दोषता की माँग मानवमात्र को है । उसका जीवन दोष-युक्त, प्राणियों को निर्दोष बनाने में पथ-प्रदर्शन करता है ।

अपनी निर्दोषता को सुरक्षित रखने के लिए दूसरों को दोषी न मानना अनिवार्य है । प्राकृतिक नियम के अनुसार किसी को बुरा समझना सबसे बड़ी बुराई है; क्योंकि किसी को बुरा समझने का परिणाम उसकी वर्तमान निर्दोषता में बुराई की दृढ़ स्थापना करना है । किसी को बुरा मानना बुराई को व्यापक कर देना है । की हुई बुराई सीमित है, असीम नहीं । किन्तु किसी को बुरा मानकर तो बुराई की उत्तरोत्तर वृद्धि ही करना है । किसी का बुरा चाहना बुराई करने की अपेक्षा कहीं अधिक बुराई है, और किसी को बुरा समझना बुरा चाहने की अपेक्षा भी कहीं अधिक बुराई है । इस कारण किसी को बुरा समझने के समान और कोई बुराई हो ही नहीं सकती । जो किसी को बुरा समझता है, उसके जीवन में से अशुद्ध संकल्पों का नाश ही नहीं होता । अशुद्ध संकल्पों की उत्पत्ति अशुद्ध कर्म को जन्म देती है । अतः दूसरे को बुरा समझकर कोई भी व्यक्ति अशुद्ध कर्म से बच नहीं सकता । इस दृष्टि से दूसरों को बुरा समझना अपने को बुरा बनाने में मुख्य हेतु है । किसी को बुरा समझने का किसी भी मानव को कोई अधिकार नहीं है । इतना ही नहीं, यहाँ तक कि कोई स्वयं ही अपनी बुराई स्वीकार करे, तब भी उससे उसकी वर्तमान निर्दोषता की चर्चा करते हुए उसे यह विश्वास दिलाना चाहिए कि वर्तमान सभी का निर्दोष है । हाँ, यह अवश्य है कि वर्तमान की निर्दोषता को सुरक्षित रखने के लिए किये हुए दोषों का त्याग अनिवार्य है ।


 - (शेष आगेके ब्लागमें) दर्शन और नीति पुस्तक से, (Page No. 30-31)