Saturday, 3 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 03 March 2012
(फाल्गुन शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार 

56.    जिस समय अपने दोष का दर्शन हो जाय, समझ लो कि तुम जैसा विचारशील कोई नहीं । और जिस समय परदोष-दर्शन हो जाय, उस समय समझ लो कि हमारे जैसा कोई बेसमझ नहीं ।

57.    अपने दोष का दर्शन अपने को निर्दोष बनाने में समर्थ है और परदोष-दर्शन अपने को दोषी बनाने में हेतु है ।

58.    भगवान् के खिलाफ जो आवाज उठती है न, वह तर्क से नहीं उठती है । वह आवाज उठती है भगवान् को माननेवालों के दुश्चरित्र से, और कोई बात नहीं है । भगवान् को माननेवाले अगर ठीक आदमी हों तो भगवान् के खिलाफ कोई बोल ही नहीं सकता ।

59.    परमात्मा को 'अभी' न मानना बड़ी भारी भूल होगी, 'अपना' न मानना उससे बड़ी भूल होगी, और 'अपने में' न मानना सबसे बड़ी भूल होगी ।

60.    प्रभु अपने में हैं, अभी हैं और अपने हैं - इससे परमात्मा मिल जाएँगे ।

61.    याद रहे, और कुछ भी अपना है और परमात्मा भी अपना है - ये दोनों बातें एक साथ नहीं होतीं । जबतक हम और कुछ भी अपना मानते हैं, तबतक तो मुख से कहते हुए भी हमने सच्चे हृदय से भगवान को अपना नहीं माना । यही इसकी पहचान है।

62.    सर्वसमर्थ प्रभु साधक का भूतकाल नहीं देखते । उसकी वर्तमान वेदना से ही करुणित हो अपना लेते हैं ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्त हृदयोद्गार' पुस्तक से ।