Wednesday, 28 March 2012
(चैत्र शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०६९, बुधवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 4
यद्यपि प्रेम अपवित्र नहीं है, स्वरूप से पवित्र ही है, किन्तु इसका अर्थ यह है कि प्रेम का वह भाव जिसमें प्रेमी प्रेम-पात्र को ही रस देने की सोचता है, वह पवित्र प्रेम है । आप कहेंगे कि यह रहस्य हमारी समझ में नहीं आया । तो भाई इस रहस्य को समझने के लिए कुछ प्रेमियों के चरित्र पर दृष्टि डालनी होगी ।
आप भले ही उसे कहानी मानें, इतिहास मानें, चरित्र मानें, यह आपकी रूचि । अपना तात्पर्य तो केवल पवित्र प्रेम को समझाने के सम्बन्ध में है । तात्पर्य तो यह है, कि जो घटना आपके सामने निवेदन किया जाए, आप उस घटना पर विचार न करें आप उसे मान लें, यह तात्पर्य नहीं है । तात्पर्य केवल इतना है, कि घटना के द्वारा आप पवित्र प्रेम के वास्तविक रहस्य को जान लें ।
एक बार की बात है कि जब हमारे श्री नन्दजी श्यामसुन्दर को मथुरा छोड़ कर वापस लौटे और माता यशोदा ने यह देखा कि नन्दजी तो आ गए पर कन्हैया नहीं है । तो यशोदाजी को कन्हैया के बिना नन्दजी को देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ । आश्चर्य यह हुआ कि लाला नहीं आए और नन्दजी प्राण-सहित आ गए ।
इस आश्चर्य से चकित होकर माता यशोदा ने कहा कि हे नन्दजी, लाला जब रामावतार में वन को गए थे, तो महाराजा दशरथ ने लाला के वियोग में अपने प्राणों को नहीं रखा था । और आप लाला के बिना आ गए और प्राण-सहित आ गए ।
नन्दजी ने कहा - हे यशोदे, तुम ठीक कहती हो, कि रामावतार में राजा दशरथ ने लाला के वियोग में प्राणों को नहीं रखा, किन्तु यशोदे, तुम्हें मालूम है कि जब राम वन से लौटे थे, तो उन्होंने महाराजा दशरथ के न होने का दुःख अनुभव किया था।
ये अभागे प्राण केवल इसलिए हैं कि लाला कभी ब्रज में आए और मेरे न होने का दुःख अनुभव करे, तो यह मुझसे सहन नहीं होगा । यद्यपि लाला के वियोग की असह्य वेदना है, पर मैं यह सह सकता हूँ, किन्तु लाला को मेरे बिना दुःख हो, यह में नहीं सह सकता । यह क्या है ? यह है पवित्र प्रेम ।
- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 51-52) ।