Wednesday, 4 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 04 April 2012
(चैत्र शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०६९, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 4

पवित्र प्रेम में प्रेमास्पद को रस देने की ही बात रहती है, अपने सुख लेने की बात नहीं होती। आप देखिए और विचार करके देखिए, कि जहाँ अपना रस है - चाहे प्रेमास्पद की सेवा का ही रस हो, चाहे प्रेमास्पद के दर्शन का ही रस हो - अपने रस में और प्रेमास्पद के रस में कितना अन्तर होता है । 

अपना जो रस होता है वह अपने अहं को पुष्ट करता है और अहं जब होता है, तो वह भेद को जन्म देता है । जातीय एकता होने पर भी, नित्य सम्बन्ध होने पर भी, आत्मीयता होने पर भी अगर किसी प्रकार का अहं रहता है - चाहे चिन्मय अहं क्यों न हो, नित्य अहं क्यों न हो - किसी प्रकार का भेद ही न रहता है ?

तो भाई इस दृष्टि से सोचने पर यह पता चलता है कि पवित्र प्रेम और प्रेम में बहुत बड़ा अन्तर नहीं है, किन्तु पवित्र प्रेम जो है, प्रेमी के अहं को गलाकर 'प्रेम' बना देता है । अर्थात् प्रेमी का अस्तित्व नहीं रहता, अपितु प्रेम का अस्तित्व रहता है । तो प्रेमी के अस्तित्व से रहित प्रेम का जो अस्तित्व है, अरे भाई, वही पवित्र प्रेम है । इस  सम्बन्ध में अनेक प्रेमियों के चरित्र हैं ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 52-53) ।