Thursday, 05 April 2012
(चैत्र शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०६९, गुरुवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 4
आप सोचिए, एक बार नारद बाबा को मजाक सुझा। और उन्होंने रुक्मिणीजी से कहा कि, हे रुक्मिणीजी, तुम श्यामसुन्दर की इतनी सेवा करती हो, इतना प्रेम करती हो लेकिन ये तो जब देखो तब 'राधे-राधे' रटा करते हैं । ये ब्रज-वासियों को कभी नहीं भूलते हैं । रुक्मिणी ने कहा, बाबा, बात तो ठीक है कि श्यामसुन्दर कभी नहीं भूलते हैं ब्रज को । मैंने अनेक बार देखा है कि इनके मन में राधे, राधे की ध्वनि निकलती ही रहती है ।
तो एक बिल्कुल प्राकृतिक बात है कि जब किसी पत्नी के मन में यह बात आ जाय कि मेरे पति किसी और से प्रेम करते हैं, तो उसके जीवन में उतना रस नहीं रहता । यद्यपि प्रेम के साम्राज्य में नीरसता की गन्ध नहीं है किन्तु हमको जब बात को सोचना पड़ता है, समझना पड़ता है तो अपनी भौतिक दृष्टि से समझना पड़ता है ।
जब देखा श्यामसुन्दर ने कि नारद बाबा ने तो रुक्मिणी के मन में भेद पैदा कर दिया । प्रेम में सबकुछ सहन होता है, किन्तु भेद नहीं सहन होता, विस्मृति नहीं सहन होती । प्रेम के साम्राज्य में भेद और विस्मृति का कोई स्थान नहीं है । सब कुछ प्रेमी सह सकता है, पर भेद और विस्मृति नहीं सह सकता । तो भगवान ने सोचा कि भाई, नारद ने तो मजाक किया ही है, किन्तु रुक्मिणीजी का भी समाधान करना है ।
- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 53-54) ।