Friday, 6 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 06 April 2012
(चैत्र पूर्णिमा, श्रीहनुमान जयन्ती, वि.सं.-२०६९, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 4

        तो भगवान एक दिन कहने लगे कि क्या बताएँ रुक्मिणीजी, हमारे सिर में बड़े जोर की पीड़ा हो रही है । तो आप जानते हैं कि प्रिय की पीड़ा सुनकर सभी का हृदय अधीर हो जाता है । तो रुक्मिणीजी अधीर हो गईं और कहने लगीं कि हे प्यारे, आपके सिर में पीड़ा हो रही है, तो आप कोई उपचार बताइये, कि क्या करें ? क्योंकि प्रिय की जो पीड़ा है, अपनी पीड़ा से अधिक वेदना देनेवाली होती है ।

        श्यामसुन्दर कहने लगे - रुक्मिणीजी, उपचार तो है, पर यहाँ औषधि कहाँ ? रुक्मिणीजी ने कहा, महाराज, आपकी द्वारकापुरी में अष्ट सिद्धि नवनिधि निवास करती है । यहाँ औषधि नहीं मिलेगी । श्रीकृष्ण ने कहा - रुक्मिणीजी, यहाँ औषधि कहाँ ? महाराज आप बताएँ तो सही, ऐसी क्या औषधि है, जो यहाँ नहीं मिलेगी । श्यामसुन्दर ने कहा, रुक्मिणीजी, औषधि तो केवल इतनी-सी है कि कोई हमारा प्रेमी हो और अपने चरणकी रज यदि हमारे मस्तक पर लगा देता तो हमारी पीड़ा बन्द हो जाती ।

        रुक्मिणीजी सोचने लगीं कि प्रेमी तो हम भी हैं, लेकिन हम इनकी पत्नी हैं, ये हमारे पति हैं । भला हम अपने पतिदेव के मस्तक पर अपने चरण की रज लगाएँगी, तो हमें नरकमें जाना पड़ेगा । तो रुक्मिणीजी का साहस नहीं हुआ । नारद बाबा सोचने लगे कि प्रेमी तो हम भी हैं, लेकिन हमारा दास्य भाव है । यदि दास अपने स्वामी के मस्तक पर अपनी चरण-रज लगाएगा, तो नरक भोगना पड़ेगा । तो नारद बाबा का भी साहस नहीं हुआ। परन्तु प्रेमी तो थे ही । प्रिय की वेदनाका दुःख तो था ही । 

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 54-55) ।