Saturday, 24 March 2012
(चैत्र शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०६९, शनिवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
प्रवचन - 4
अब आप देखेंगे कि जिससे हम प्रार्थना कर रहे हैं, जो हमारे अपने हैं, जिससे हमारा नित्य सम्बन्ध है, उससे ही पवित्र प्रेम की प्रार्थना हम करते हैं । अब आप सोचिए, जिससे हम प्रार्थना करने जाएँ और उससे कहें कि हम आपके पवित्र प्रेम को चाहते हैं, तो क्या अपना प्रेम किसी को अच्छा नहीं लगेगा । क्या अपना प्रेम देने में किसी को कठिनाई होगी । तो आपको मानना ही पड़ेगा कि प्रेम एक ऐसा अलौलिक तत्व है, जिसका आदान-प्रदान रसरूप है । प्रेम देने में भी रस है और प्रेम पाने में भी रस है ।
अब आप कहेंगे कि जब प्रेम का आदान-प्रदान रसरूप है तो फिर भाई, प्रेम तो कोई अपवित्रता नहीं होती । तो आपने पवित्र प्रेम का विशेषण क्यों लगाया ?
इस सम्बन्ध में विचार करने से आपको एक बात पर ध्यान देना होगा । प्रेम अपवित्र तो नहीं है, परन्तु प्रेम का पवित्र विशेषण लगाया क्योंकि प्रेम के दो भाव होते हैं । प्रेम का एक भाव यह है, जिसमें कोई प्रेम-पात्र की समीपता स्वीकार करके अपने रस को सुरक्षित रखता है, किन्तु प्रेम का एक दूसरा भाव यह भी है कि प्रेमी प्रेम-पात्र के रस की बात सोचता है, अपने सुख की बात नहीं सोचता । तो जहाँ प्रेमी प्रेमास्पद के रस की बात सोचता है, वहाँ प्रेम के साथ 'पवित्र' विशेषण लगाया जाता है ।
- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 51) ।