Monday, 19 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 19 March 2012
(चैत्र कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

प्रवचन - 4

        सुख-भोग की रूचि का नाश होते ही सुख के सदुपयोग करने की सामर्थ्य आ जाती है। सुख का सदुपयोग करते ही सुख की दासता मिट जाती है और सुख की दासता मिटते ही दूसरों का जो सुख है, वह हमारा सुख बन जाता है और दूसरों का जो दुःख है, वह हमारा दुःख बन जाता है । अर्थात् सेवक के हृदय में करुणा और प्रसन्नता निवास करती है । 

        आप देखिए और गम्भीरता से विचार कीजिए इस बात पर, की जब आपका हृदय किसी के दुःख से भर जाता है तब आपके हृदय में करुणा का रस बहने लगता है और जब आप किसी सुखी को देखकर प्रसन्न हो जाते हैं तब आपके जीवन में प्रसन्नता छा जाती है । सच्ची प्रसन्नता सुखियों को देखकर ही मिल सकती है, जो सुख भोगने से नहीं मिलती ।

        सुख भोगने से तो भोगने की शक्ति का ह्रास और भाई, भोग्य वस्तु का विनाश होता है । भोग्य वस्तु का विनाश और भोगने की शक्ति का ह्रास यह सुख-भोग की बात है । जब हम सुखियों को देखकर प्रसन्न होते हैं तो न तो भोगने की शक्ति का ही ह्रास होता है और न भोग्य वस्तु का ही विनाश होता है अपितु बिना ही भोगे भोग से भी अधिक प्रसन्नता प्राप्त होती है । 

        इस दृष्टि से यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि भाई, सुखी का कर्तव्य है सेवा । सेवा क्या ? दुखियों के दुःख में दुखी होना और सुखियों के सुख में प्रसन्न होना । करुणा और प्रसन्नता का जीवन में जो आ जाना है, उसी का नाम सच्ची सेवा है । 

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 47-48) ।