Tuesday, 20 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 20 March 2012
(चैत्र कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका) 
प्रवचन - 4

        देखिए सेवा का अर्थ यह भी नहीं है कि जिसकी हम सेवा करते हैं वह हमारा नहीं है अथवा जिन साधनों से सेवा करते हैं, वे उसके नहीं हैं, जिसकी हम सेवा करते हैं। अगर किसी वस्तु को हम अपनी मानकर सेवा करते हैं तो उसका अर्थ सेवा नहीं है; उसका अर्थ है पुण्यकर्म ।

        पुण्यकर्म और सेवा में एक बड़ा अन्तर यह है कि पुण्यकर्म जो है, उसका आरम्भ होता है कामना से और जिसका आरम्भ कामना से होता है, उसका परिणाम भोग होता है । उसका परिणाम करुणा नहीं होती, उसका परिणाम प्रसन्नता नहीं होती। और भोग का परिणाम सदैव रोग होता है । ऐसा कोई भोग है ही नहीं, जिसका परिणाम रोग न हो । ऐसा कोई भोग है ही नहीं जिसका परिणाम जड़ता न हो । ऐसा कोई भोग है ही नहीं, जो हमें पराधीन न बना दे । 

        भोग प्राणी को पराधीनता में, जड़ता में आबद्ध करता है किन्तु सेवा पराधीन नहीं बनाती, जड़ता में आबद्ध नहीं करती, अपितु एक चेतना प्रदान करती है । सेवा जो है, वह हमें स्वाधीन बनाती है, पराधीन नहीं बनाती । सेवा जो है, वह हमें जड़ता से चेतना की ओर ले जाती है, अशान्ति से शान्ति की ओर ले जाती है, पराधीनता से स्वाधीनता की ओर ले जाती है और असत्य से सत्य की ओर ले जाती है । इस दृष्टि से सेवा बड़े ही महत्व की वस्तु है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्तवाणी प्रवचनमाला, भाग-8' पुस्तक से, (Page No. 48-49) ।