Friday, 9 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 09 March 2012
(चैत्र कृष्ण प्रतिपदा, होली वसंतोत्सव, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)

सन्त उद्बोधन

1.    शरणागत विश्वासी साधक अपने सभी आत्मीयजनों को समर्थ के हाथों समर्पित करके, निश्चिन्त तथा निर्भय हो जाता है ।

2.    किसी भी विश्वासी शरणागत साधक को कभी भी अधीर नहीं होना चाहिए, कारण कि वह सनाथ है, अनाथ नहीं ।

3.    कुछ नहीं चाहने से ही मोक्ष मिलता है । चाहना ही बन्धन होता है । अगर मालूम होता है कि मेरा कुछ है, मुझे कुछ चाहिए, तो बस बँध गए । अगर तुम्हें यह अनुभव हो जाय कि मेरा कुछ नहीं है, मुझे कुछ नहीं चाहिए, बस मुक्त हो गए ।

4.    जो होती है, उसको मुक्ति थोड़े ही कहते हैं, जो है, उसे मुक्ति कहते हैं । बन्धन बनाने की सामर्थ्य आप ही में है और मुक्त होने की सामर्थ्य भी आप में ही है ।

5.    परमात्मा को जानना चाहिए या मानना चाहिए?......परमात्मा माना जाता है, जाना नहीं जाता । माना हुआ वह परमात्मा माना हुआ नहीं रहता, प्राप्त हो जाता है ।

6.    श्रम और विश्राम जीवन के दो पहलू हैं । श्रम है संसार के लिए और विश्राम है अपने लिए ।

7.    जब कोई काम करने चलो, तो यह मानकर मत चलो कि मुझे क्या लाभ होगा ? बल्कि यह सोचकर चलो कि इससे परिवार को क्या लाभ होगा, संसार को क्या लाभ होगा । बल का जब उपयोग करो तो इस बात को सामने रखो कि किसी दूसरे को उससे हानि तो नहीं होती । यदि हानि है तो वह नहीं करूँगा । तो दूसरों के हित के लिए काम करो, उसको कहते हैं श्रम और अपने लिए विश्राम करो । विश्राम में अमर जीवन है, विश्राम में स्वाधीन जीवन है, विश्राम में सरस जीवन है ।

8.    विश्राम का अर्थ होता है - काम रहित होना । विश्राम सहज है, स्वाभाविक है । सभी के लिए समान रूप से सम्भव है ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - ‘सन्त उद्बोधन’ पुस्तक से (Page no. 7-11)