Tuesday, 6 March 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 06 March 2012
(फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सन्त हृदयोद्गार

76.    जब आप अकेले हो जाएँगे, तब भगवान् की कृपा से ही भगवान् को जान लेंगे। प्यारे, कोई भी प्रेमी अपने प्रेमपात्र से किसी के सामने नहीं मिलता, तो फिर जबतक आप शरीर आदि अनेक सम्बन्धियों को साथ लिए हुए हैं, आपका प्रेमपात्र आपसे कैसे मिल सकता है ? भगवान् कैसे हैं ? यदि यह जानना चाहते हो तो अकेले हो जाओ ।

77.    किसी को बुलाओ मत; क्योंकि जो आपका है, वह आपके बिना रह नहीं सकता अर्थात् अपने प्रेमपात्र को निरन्तर अपने में ही अनुभव करो । .......... अपने सिवाय अपने लिए अपने से भिन्न की आवश्यकता नहीं है ।

78.    ईश्वर-प्राप्ति के लिए वनमें जाने की जरूरत नहीं है । जो घर में आराम से रहकर भजन नहीं कर सकता, वह वनमें कष्ट सहकर कैसे कर सकता है ? वनमें रहना तो तप के लिए आवश्यक होता है ।

79.    जिसके मन में शरीर को बनाये रखने की रूचि है, जो शरीर को ही अपना स्वरूप मानता है, वह ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता ।

80.    परमात्मा है तो, पर न जाने कब मिलेगा ? अरे भले आदमी, जब तुम कहते हो कि सदैव है, सर्वत्र है, सभी का है; तो कब मिलेगा कि अभी मिला है ? कितने आश्चर्य की बात है! इससे बड़ा और कोई पागलपन हो सकता है क्या, यह सोचना कि न जाने परमात्मा कब मिलेगा ? जबकि परमात्मा से आप कभी अलग हो सकते नहीं, हैं नहीं ।

81.    जिसको तुम प्राप्त करना चाहते हो, उसकी आवश्यकता अनुभव करो । उसको बलपूर्वक पकड़ने की कोशिश मत करो, केवल आवश्कता अनुभव करो । 

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'सन्त हृदयोद्गार' पुस्तक से ।