Thursday, 31 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 31 January 2013  
(माघ कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०६९, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता

        अपनी ओर देखने का प्रयत्न क्या है ? अपनी ओर देखने के लिए प्राणी को सबसे प्रथम अपनी स्वभाविक अभिलाषा को स्थायी करना होगा । ज्यों-ज्यों स्वाभाविक अभिलाषा स्थायी होती जाएगी, त्यों-त्यों अस्वभाविक इच्छाएँ उसी प्रकार स्वाभाविक अभिलाषा में गलकर विलीन होती जाएँगी, जिस प्रकार बर्फ गलकर जल हो जाता है । जिस प्रकार बर्फ गलकर नदी हो, स्वयं अपने प्रेमपात्र समुद्र से मिलकर अभिन्न हो जाती है, उसी प्रकार सब अस्वभाविक इच्छाएँ स्वभाविक नित्यानन्द की अभिलाषा में बदल जाती हैं और स्वाभाविक अभिलाषा अपने प्रेमपात्र आनन्द से अभिन्न हो जाती है । उसको अपने प्रेमपात्र तक पहुँचने के लिए अपने से भिन्न किसी और की सहायता की आवश्यकता कदापि नहीं होती अर्थात् वह स्वतन्त्रतापूर्वक परम स्वतन्त्र तत्व से अभिन्न हो जाती है, क्योंकि स्वतन्त्रता प्राप्त करने का साधन कभी परतन्त्र नहीं हो सकता । अर्थात् स्वतन्त्रता प्राप्त करने का साधन भी स्वतन्त्र है, क्योंकि स्वतन्त्रता प्राणी की निज की वस्तु है । वह हमारा त्याग कर ही नहीं सकती ।

        हमारा त्याग वही करता है, जो वास्तव में हमारा नहीं है, अर्थात् जिससे जातीय भिन्नता है । यदि आनन्द से जातीय भिन्नता होती, तो हमको आनन्द की स्वाभाविक अभिलाषा किसी प्रकार नहीं हो सकती थी । और यदि परतन्त्रता अर्थात् दुःख से जातीय भिन्नता न होती, तो हमको उससे अरुचि न होती । आनन्द की स्वाभाविक अभिलाषा आनन्द से जातीय एकता सिद्ध करने में स्वयं समर्थ है । स्वाभाविक अभिलाषा स्वयं अपनी अनुभूति के बिना नहीं होती और अनुभूति जातीय एकता के बिना नहीं होती । अतः आनन्द अर्थात् स्वतन्त्रता से आनन्द के अभिलाषी को जातीय एकता स्वीकार करना परम अनिवार्य है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 13) ।

Wednesday, 30 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 30 January 2013  
(माघ कृष्ण तिल-चौथ व्रत, वि.सं.-२०६९, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता

        जब हम विचार करते हैं, तो यही ज्ञात होता है कि हमारी प्रत्येक प्रवृति हमारी स्वीकार की हुई अहंता के अनुरूप ही होती है; क्योंकि बेचारी प्रवृति तो अन्त में केवल स्वीकार की हुई अहंता को ही पुष्ट करती है । अतः अहंता से भिन्न प्रवृति नहीं हो सकती । जबतक हम दोषयुक्त अहंता को स्वीकार करते रहेंगे, तबतक दोषयुक्त प्रवृति होती ही रहेगी अर्थात् मिट नहीं सकती । स्वीकृत की हुई अहंता को अपने से अतिरिक्त और कोई परिवर्तित नहीं कर सकता, अर्थात् अस्वभाविक काल्पनिक सदोष स्वीकृति को हम स्वयं स्वतन्त्रतापूर्व मिटा सकते हैं । दोषयुक्त अहंता के मिट जाने पर दोषयुक्त प्रवृति शेष नहीं रहती; क्योंकि कारण के बिना कार्य किसी भी प्रकार नहीं हो सकता । अतः यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि हम अपने बनाए हुए दोष का स्वयं अन्त कर सकते हैं, अर्थात् किसी और के बनाए हुए दोष को कोई और नहीं मिटा सकता ।

        जब हम अपने बनाए दोष का अन्त कर डालेंगे, तब आनन्दघन भगवान एवं जगत् हमारे साथ अवश्य होंगे, क्योंकि 'निर्दोषता सभी को प्रिय होती है ।' अथवा यों कहो कि इस प्रतीत होने वाले जगत् और उस परमात्मा को, जिसकी खोज जगत् करता है, हम अपने में ही पाएँगे; क्योंकि स्वभाविक अभिलाषा 'है' (अस्ति) की ही होती है । अस्ति-तत्व ही ईश्वर-भक्तों का ईश्वर, जिज्ञासुओं का ज्ञान, तत्व-वेत्ताओं का निज-स्वरूप तथा प्रेमियों का प्रेमपात्र है; क्योंकि 'सच्चाई में कल्पना-भेद भले ही हो, वस्तु-भेद नहीं हो सकता ।' 

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 12) ।

Tuesday, 29 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 29 January 2013  
(माघ कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०६९, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता

        कोई भी प्राणी तबतक उन्नति नहीं कर सकता, जबतक उसे स्वयं अपनी दृष्टि से अपनी कमी का अनुभव न हो। विचारशील प्राणी कमी का अनुभव कर उसका नितान्त अन्त करने के लिए घोर प्रयत्न करते हैं । अतः हमको अपनी कमी का अन्त करने के लिए अखण्ड प्रयत्न करना चाहिए ।

        हम कब तक दुखी होते रहते हैं ? जबतक हम किसी को भी अपने से सबल, स्वतन्त्र तथा श्रेष्ठ पाते हैं । अतः हमारी पूर्ण स्वतन्त्र, सबल तथा श्रेष्ठ होने की स्वभाविक अभिलाषा है । जो स्वतन्त्र है, वही सबल तथा श्रेष्ठ है । यह नियम है कि 'क्रिया से भिन्न कर्ता का स्वरूप कुछ नहीं होता ।' जैसे, देखने की क्रिया से भिन्न नेत्र कुछ नहीं है । अभिलाषा क्रिया है । अतः जो हमारी अभिलाषा है, वही हमारा स्वरूप है । इस दृष्टि से यह सिद्धान्त निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि हम पूर्ण स्वतन्त्र, सबल तथा श्रेष्ठ हो सकते हैं, क्योंकि अपने को अपने स्वरूप से कोई भी भिन्न नहीं कर सकता । अतएव स्वभाविक अभिलाषा का पूर्ण होना अनिवार्य है ।

        क्या हमारी स्वभाविक अभिलाषा की पूर्ति के लिए यह संसार, जो प्रतीत होता है, समर्थ है ? यदि बेचारा संसार समर्थ होता, तो क्या हम इसके होते हुए भी निर्बलता एवं परतन्त्रता आदि बन्धनों में बँधें रहते ? कदापि नहीं । हमको परतन्त्रता, निर्बलता आदि बन्धनों से छुटकारा पाने के लिए केवल अपनी ओर देखना होगा । हम उसी दोष का अन्त कर सकते हैं, जो हमारा बनाया हुआ है; क्योंकि किसी और की बनाई हुई वस्तु को कोई और नहीं मिटा सकता है । 

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 11-12) ।

Monday, 28 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 28 January 2013  
(माघ कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०६९, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता

        काल्पनिक सम्बन्ध भी दो प्रकार के होते हैं - भेद-भाव का सम्बन्ध तथा अभेद-भाव का सम्बन्ध। माना हुआ 'मैं' अभेद भाव का सम्बन्ध है और माना हुआ 'मेरा' भेद-भाव का सम्बन्ध है। अभेद भाव का सम्बन्ध केवल अपनी स्वीकृति के आधार पर जीवित रहता है और भेद-भाव का सम्बन्ध माने हुए सम्बन्ध के अनुरूप चेष्टा करने पर प्रतीत होता रहता है । प्रतीति निज-सत्ता के बिना किसी और की सत्ता के आधार पर भी किसी कारणवश हो सकती है - जैसे, मृगतृष्णा का जल ।

        जिस प्रकार प्रत्येक मित्र अपने मित्र के सुख-दुःख से मैत्री सम्बन्ध के कारण दुखी-सुखी होकर अपने को दुखी-सुखी समझने लगता है, उसी प्रकार हम शरीर के सुख-दुःख आदि स्वभाव को अपने में आरोपित करने लगते हैं । किन्तु हमारी स्वभाविक अभिलाषा शरीर-सम्बन्ध से पूर्ण नहीं हो पाती। अतः हमको अपने लिए अपने प्रेमपात्र अर्थात् नित्य-जीवन की आवश्यकता शेष रहती है । उसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए हमको अनित्य जीवन से भिन्न नित्य-जीवन की ओर जाना अनिवार्य हो जाता है ।

        अब हम अपने नित्य-जीवन को कैसे जानें ? यह प्रश्न स्वभाविक उत्पन्न होता है । यद्यपि प्रत्येक प्राणी अपनी स्वीकृति करता है, परन्तु अपने वास्तविक निज-स्वरूप, नित्य-जीवन को जानने से इन्कार करता है । यह कैसे आश्चर्य की बात है! 'स्वभाविक अभिलाषा से भिन्न अभिलाषी का निज-स्वरूप कुछ नहीं हो सकता ।'

        अब विचार यह करना है कि हमारी स्वभाविक अभिलाषा क्या है ? प्रत्येक प्राणी अपने में किसी प्रकार की कमी रखना नहीं चाहता; क्योंकि कमी का अनुभव होते ही दुःख का अनुभव होता है। यद्यपि दुःख किसी भी प्राणी को प्रिय नहीं है, फिर भी अपने-आप आता है । जो अपने-आप आता है, उससे हमारा हित अवश्य होगा, यदि उसका सदुपयोग किया जाय । क्योंकि यदि दुःख न आता, तो हम अस्वभाविक अनित्य जीवन से विरक्त नहीं हो सकते थे । अथवा यों कहो कि हमारी स्वभाविक अभिलाषा, जो अस्वभाविक इच्छाओं द्वारा दबाकर निर्बल बना दी गई थी, सबल न हो पाती । अतः दुःख की कृपा से हम जाग्रत हो जाते हैं । इस दृष्टि से दुःख आदरणीय अवश्य है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 10-11) ।

Sunday, 27 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 27 January 2013  
(पौष स्नान-दान पूर्णिमा, वि.सं.-२०६९, रविवार)

हमारी आवश्यकता

        'अपने लिए अपने से भिन्न की आवश्यकता कदापि नहीं हो सकती', क्योंकि भिन्नता से एकता होना सर्वदा असम्भव है। जिस प्रकार श्रवण ने शब्द से भिन्न कुछ नहीं सुना, नेत्र ने रूप से भिन्न किसी भी काल में कुछ नहीं देखा तथा त्वचा ने स्पर्श से भिन्न, रसना ने रस से भिन्न एवं नासिका ने गन्ध से भिन्न किसी का अनुभव नहीं किया; क्योंकि श्रवण की आकाश तथा शब्द से, नेत्र की अग्नि तथा रूप से, त्वचा की वायु तथा स्पर्श से, रसना की जल तथा रस से और नासिका की पृथ्वी तथा गन्ध से जातीय एकता है। मन-बुद्धि आदि आन्तरिक इन्द्रियों की श्रवण-नेत्र आदि बाह्य इन्द्रियों से एवं प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय की प्रत्येक कर्मेन्द्रिय से जातीय एकता है ।

        यदि ऐसा न होता, तो आन्तरिक इन्द्रियों के अनुरूप बाह्य इन्द्रियाँ चेष्टा न करतीं । आन्तरिक एवं बाह्य इन्द्रियों का कारण-कार्य का सम्बन्ध है । प्रत्येक कार्य अपने कारण में विलीन होता है । कारण कार्य के बिना भी रह सकता है, किन्तु कार्य कारण के बिना नहीं रह सकता । कारण में स्वतन्त्रता अधिक होती है और कार्य में गुणों की विशेषता होती है । कारण सूक्ष्म एवं अव्यक्त होता है और कार्य स्थूल एवं व्यक्त होता है । जो सूक्ष्म एवं अव्यक्त होता है, वह स्थूल एवं व्यक्त की अपेक्षा अधिक विभु होता है। इसी कारण आन्तरिक इन्द्रियों की प्रेरणा से ही बाह्य इन्द्रियाँ प्रवृत होती हैं ।

        उसी प्रकार हमारी अपने निज-स्वरूप, नित्य-जीवन से एकता है । अतः हमारे लिए नित्य-जीवन का अनुभव करना परम अनिवार्य है । शरीर विश्व से भिन्न नहीं हो सकता और हमारी शरीर से काल्पनिक सम्बन्ध के अतिरिक्त जातीय एकता कदापि नहीं हो सकती अर्थात् 'शरीर विश्व के और हम विश्वनाथ से ही अभिन्न हो सकते हैं'; क्योंकि हम स्वभाविक रूप से यही कथन और चिन्तन करते हैं कि शरीर हमारा है; 'हम शरीर हैं', ऐसा कोई भी प्राणी कथन नहीं करता । 

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 9-10) ।

Saturday, 26 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 26 January 2013  
(पौष पूर्णिमा, गणतंत्र दिवस, वि.सं.-२०६९, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेचन

        प्रत्येक व्यक्ति का जीवन उस अनन्त जीवन का एक अंशमात्र है। प्रत्येक अंश उससे अभिन्न हो सकता है, जिसका वह अंश है; पर उसके सम्बन्ध में कोई निर्णय नहीं दे सकता । जिस सीमित परिवर्तनशील योग्यता से हम निर्णय देते हैं, वह योग्यता क्या हमारी अपनी वस्तु है? यदि हमारी वस्तु है, तो उसमें परिवर्तन क्यों है ? और उसका विनाश क्यों है ? यदि हमारी नहीं है, तो क्या हमें जिससे मिली है, उसकी ओर गतिशील होने का कभी प्रयत्न किया ? यदि नहीं किया, तो हमें किसी प्रकार के निर्णय करने का क्या अधिकार है ? व्यक्ति मिली हुई योग्यता का सदुपयोग ही कर सकता है; किसी प्रकार का अनर्गल निर्णय देकर खीझना व्यर्थ है ।

        दुःख उतनी बुरी वस्तु नहीं, जितना हम मान लेते हैं। दुःख के आधार पर ही हम आनन्द की प्राप्ति कर सकते हैं। जिस प्रकार भूख ही भोजन-प्राप्ति में हेतु है, उसी प्रकार दुःख तथा मृत्यु ही अमरत्व तथा आनन्द की प्राप्ति में हेतु है । पर ऐसा तभी हो सकता है, जब हम दुःख होने पर विचार करें, भयभीत न हों। दुःख हमारे बिना ही बुलाए आया है, हम उसे रोक नहीं सकते। जिसे रोक नहीं सकते और जो अपने-आप आता है, वह किसी ऐसे की देन है, जो अनन्त है ।

        उस अनन्त की देन में सभी का हित विद्यमान है । उससे भयभीत होना हमारी अपनी भूल है । जिस काल में दुःख पूर्ण जागृत होता है, उसी काल में सब प्रकार की आस्क्तियाँ अपने-आप मिट जाती है, जिनके मिटते ही हम उस अनन्त की महिमा देखने के अधिकारी हो जाते हैं । अथवा यों कहो कि उसकी महिमा का आश्रय लेकर ही उससे नित्य-सम्बन्ध स्वीकार कर लेते हैं । अतः जो कुछ हो रहा है, वह हमें 'नहीं' से 'है' की ओर गतिशील करने में समर्थ है । 'नहीं' का अर्थ अभाव है और 'है' का अर्थ अभाव-का-अभाव । इस दृष्टि से प्रत्येक 'अभाव', अभाव-का-अभाव करने में समर्थ है और प्रत्येक रचना उस अनन्त की लालसा जागृत करने में हेतु है । अतः जो हो रहा है; उसमें सब कुछ मिल सकता है ।

- 'जीवन-दर्शन भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 26-27) ।

Friday, 25 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 25 January 2013  
(पौष शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०६९, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेचन

       जो हो रहा है, उससे तो हमें प्रेम तथा जीवन की ही उपलब्द्धि होती है । इस दृष्टि से जो हो रहा है, उसमें सभी का हित विद्यमान है । अतः 'होने' में प्रसन्न तथा 'करने' में सावधान रहने के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए ।

        अब यदि कोई यह कहे कि वस्तु आदि के सौन्दर्य को देखकर हमारे जीवन में काम की उत्पत्ति होती है और दुःख-मृत्यु आदि को देखकर भय उत्पन्न होता है । तो कहना होगा कि हमारे देखने में दोष है । हम सीमित सौन्दर्य को देखकर ही उसमें आबद्ध हो जाते हैं और उसका भोग करने लगते हैं, अनन्त और नित्य सौन्दर्य की लालसा को सबल नहीं होने देते। प्रत्येक भोग के परिणाम में भयंकर रोग उत्पन्न होता है, जो जिज्ञासा जागृत करने में हेतु है । पर हम जिज्ञासु न होकर उस रोग-शोक आदि को देखकर खीझने लगते हैं और मनमाना कोई-न-कोई निर्णय कर बैठते हैं कि उस अनन्त की रचना में इतना दुःख क्यों है!

        इतना ही नहीं, कभी-कभी तो यहाँ तक कहने लगते हैं कि सृष्टि का कोई कर्ता नहीं है, घटनाएँ अकस्मात हो रही हैं, मृत्यु-ही-मृत्यु है, जीवन जैसी कोई वस्तु है ही नहीं; जहाँ तक सुख सम्पादित सकें, करते रहें । यद्यपि सुख-सम्पादन के परिणाम में दुःख-ही-दुःख भोगते रहते हैं और खीझते रहते हैं; परन्तु न तो घटनाओं के अर्थों पर विचार करते हैं, न उस कर्ता की कारीगरी को देखते हैं और न अपने को उसका जिज्ञासु अथवा भक्त ही मानते हैं । अपितु भोगी तथा रोगी बनकर ही जीवित रहते हैं। दुःख तथा मृत्यु के दर्शन से तो हमारे जीवन में अमरत्व त्तथा आनन्द की लालसा जागृत होनी चाहिए थी, पर ऐसा नहीं होता। उसका कारण यह है कि हम मनमाना निर्णय कर लेते हैं, जो हमारा अपना ही दोष है । हमारा निर्णय ऐसा ही होता है, जैसे कोई जल-कण सागर के विषय में मनमाना निर्णय कर ले ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'जीवन-दर्शन भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 25-26) ।

Thursday, 24 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 24 January 2013  
(पौष शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०६९, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेचन

        जो हो रहा है, उसके दो रूप दिखाई देते हैं - एक तो सीमित सौन्दर्य और दूसरा प्रत्येक वस्तु आदि का सतत परिवर्तन । वस्तु आदि के सौन्दर्य को देखकर हमें उस अनन्त सौन्दर्य की महिमा का अनुभव स्वतः होने लगता है । जिस प्रकार किसी सुंदर वाटिका को देखकर वाटिका के माली की स्मृति स्वतः जागृत होती है, उसी प्रकार प्रत्येक रचना को देखकर संसाररूपी वाटिका के माली की स्मृति स्मृति जागृत होती है, क्योंकि किसी की रचना का दर्शन रचयिता की महिमा को प्रकाशित करता है । इस दृष्टि से प्रत्येक वस्तु हमें उस अनन्त की ओर ले जाने में हेतु बन जाती है और हम उसकी रचना देख-देखकर नित-नव प्रसन्नता का अनुभव करने लगते हैं । यहाँ तक कि प्रत्येक रचना में उस कलाकार का ही दर्शन होने लगता है। ऐसा प्रतीत होने लगता है कि यह सब उस अनन्त की लीला ही है, और कुछ नहीं ।

        अनन्त की लीला भी अनन्त ही है और उसका दर्शन भी अनन्त है । लीला का बाह्य स्वरूप भले ही सीमित तथा परिवर्तनशील हो, पर उसके मूल में तो अनन्त नित्य चिन्मय तत्व ही विद्यमान है । उनकी अनुपम लीला का दर्शन उनकी चिन्मय दिव्य प्रीति जागृत करने में समर्थ है । अतः जो हो रहा है, उसका प्रभाव प्रेमी बनाकर प्रेमास्पद से अभिन्न करने में हेतु है।

        अब रहा वस्तु आदि में परिवर्तन के दर्शन का प्रभाव परिवर्तन का दर्शन होते ही स्वभावतः अविनाशी की जिज्ञासा जागृत होती है । ज्यों-ज्यों जिज्ञासा सबल तथा स्थाई होती जाती है, त्यों-त्यों कामनाएँ स्वतः मिटने लगती हैं । कामनाओं का अन्त होते ही जिज्ञासा की पूर्ति हो जाती है और जिज्ञासा की पूर्ति में ही अमर जीवन निहित है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'जीवन-दर्शन भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 24-25) ।

Wednesday, 23 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 23 January 2013  
(पौष शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०६९, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेचन

        इन्द्रिय-दृष्टि की सत्यता का प्रभाव राग उत्पन्न करता है और राग भोग में प्रवृत करता है; किन्तु बुद्धि-दृष्टि की सत्यता राग को वैराग्य में और भोग को योग में परिवर्तित करने में समर्थ है । जब राग वैराग्य में और भोग योग में बदल जाता है, तब दृष्टा में मान्यताओं से अतीत होकर देखने की योग्यता आती है। उससे पूर्व हम जो कुछ देखते हैं, वह किसी-न-किसी मान्यता में आबद्ध होकर ही देखते हैं, अर्थात् उस समय हमारी दृष्टि सीमित रहती है, दूरदर्शिनी नहीं रहती । इस कारण जो वस्तु जैसी है, उसे वैसी ही नहीं जान पाते। अतः हम अनेक प्रकार के प्रभाओं में आबद्ध रहते हैं ।

        यह तो सभी को मान्य होगा कि कर्तृत्वकाल में भोग हो सकता है, देखना नहीं; क्योंकि जब हम कुछ करते हैं, तब देखते नहीं और जब देखते हैं, तब करते नहीं । इस दृष्टि से विषयों के उपभोगकाल में विषयों को देख नहीं पाते और जब विषयों को देखते हैं, तब उनका उपभोग नहीं कर सकते । अतः देखना तभी सम्भव हो सकता है, जब उपभोगकाल न हो । 

        भोग-प्रवृति भोग का देखना नहीं, अपितु भोग के आरम्भ का सुख और परिणाम का दुःख भोगना है । सुख-दुःख का भोग करते हुए हम जो स्वतः हो रहा है, उसे यथार्थ देख नहीं सकते। अतः जो हो रहा है, उसको देखने के लिए हमें रागरहित दृष्टि की अपेक्षा है, जो विवेकसिद्ध है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'जीवन-दर्शन भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 23) ।

Tuesday, 22 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 22 January 2013  
(पौष शुक्ल पुत्रदा एकादशी, वि.सं.-२०६९, मंगलवार)

(गत ब्लाग से आगेका)
कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेचन

        इन्द्रियों की दृष्टि से समस्त विषय सुखद तथा सत्य प्रतीत होते हैं। जबतक इन्द्रिय-दृष्टि का प्रभाव मन पर रहता है, तबतक मन इन्द्रियों के अधीन होकर विषयों की और गतिशील रहता है और जब मन पर बुद्धि-दृष्टि का प्रभाव होने लगता है, तब इन्द्रियों का प्रभाव मिटने लगता है; क्योंकि जो वस्तु इन्द्रिय-दृष्टि से सत्य और सुंदर मालूम होती है, वही वस्तु बुद्धि-दृष्टि से असत्य और असुन्दर मालूम होती है।

        बुद्धि-दृष्टि का प्रभाव होते ही मन विषयों से विमुख हो जाता है । उसके विमुख होते ही इन्द्रियां स्वतः विषयों से विमुख होकर मन में विलीन हो जाती हैं और मन बुद्धि में विलीन हो जाता है । उसके विलीन होते ही बुद्धि सम हो जाती है । फिर उस समता का जो दृष्टा है, वह किसी मान्यता में आबद्ध नहीं हो सकता । उस दृष्टा की दृष्टि में सृष्टि जैसी कोई वस्तु ही नहीं है; क्योंकि समस्त सृष्टि तो बुद्धि के सम होते ही विलीन हो जाती है; केवल समता रह जाती है । उस समता का प्रकाशक जो नित्य-ज्ञान है, उसमें सृष्टि जैसी कोई वस्तु ही नहीं प्रतीत होती, अथवा यों कहो कि उस ज्ञान से अभिन्न होने पर सब प्रकार के अभाओं का अभाव हो जाता है; अर्थात् कामनाओं की निवृति तथा जिज्ञासा की पूर्ति हो जाती है, जो वास्तव में जीवन है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'जीवन-दर्शन भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 22-23) ।

Monday, 21 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 21 January 2013  
(पौष शुक्ल दशमी, वि.सं.-२०६९, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेचन

        यह सभी को मान्य होगा कि जो देख रहा है, वह स्वयं नहीं कर रहा है, अर्थात् कर्ता और दृष्टा एक नहीं होते । हाँ, यह अवश्य जानना है कि जो देख रहा है, उस पर देखने का प्रभाव क्या है ? देखनेवाला अपने को कुछ मानकर देख रहा है अथवा सभी मान्यताओं से रहित होकर देख रहा है ? अब विचार यह करना है कि मान्यताओं से आबद्ध होकर देखना क्या है और सभी मान्यताओं से रहित होकर देखना क्या है ? तो कहना होगा कि अपने को इन्द्रियाँ मानकर हम विषयों को देखते हैं, अपने को मन मानकर इन्द्रियों को देखते हैं, बुद्धि होकर मन को देखते हैं और इन सबके अभिमानी होकर बुद्धि को देखते हैं तथा सभी मान्यताओं से रहित होकर उस अभिमानी को देखते हैं, जो सीमित है ।

        जब हम अपने को कुछ मानकर देखते हैं, तब देखे हुए में हमारी आसक्ति हो जाती है अथवा अरुचि । अरुचि और आसक्ति के कारण हम उस देखे हुए में बँध जाते हैं । फिर जो कुछ देखने में आता है, उसकी वास्तविकता हम नहीं जान पाते । पर जब विवेक दृष्टि से देखते हैं, तब जो कुछ हमें दिखाई देता है, वह सब या तो अनित्य प्रतीत होता है अथवा केवल अभाव-ही-अभाव या दुःख-ही-दुःख ।

        इन्द्रियाँ विषयों की दृष्टा हैं, मन इन्द्रियों का दृष्टा है, बुद्धि मन की दृष्टा है और अभिमानी बुद्धि का भी दृष्टा है । जबतक हम उसे ही दृष्टा मान लेते हैं, जो दृश्य है, तबतक जो सर्व का दृष्टा है, उसको अथवा यों कहो कि जो सभी मान्यताओं से अतीत दृष्टा है, उसको नहीं जान पाते ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'जीवन-दर्शन भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 21-22) ।

Sunday, 20 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 20 January 2013  
(पौष शुक्ल नवमी, वि.सं.-२०६९, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेचन

        कर्तृत्व के स्थल पर एक बात और विचारणीय है, वह यह कि हम जो कुछ करते हैं, उसका परिणाम हमीं तक सिमित नहीं रहता, अपितु समस्त विश्व में फैलता है; क्योंकि कर्म बिना संगठन के नहीं होता । अतः संगठन से उत्पन्न होनेवाले कर्म का परिणाम व्यापक होना स्वाभाविक है । इस दृष्टि से हम जो कुछ करें, वह इस उद्देश्य को सामने रखकर करना चाहिए कि हमारे द्वारा दूसरों का अहित तो नहीं हो रहा है ।

        यदि हमारे द्वारा होने वाले कर्मों से दूसरों का अहित हो रहा है, तो हमारा भी अहित निश्चित है; क्योंकि दूसरों के प्रति जो कुछ किया जाता है, वह कई गुना अधिक होकर हमारे प्रति स्वतः होने लगता है । अतः इस कर्म-विज्ञान की दृष्टि से हमें वह नहीं करना चाहिए, जिसमें किसी अन्य का अहित हो, अपितु वह अवश्य करना चाहिए, जिसमें सभी का हित हो ।

        अब यदि कोई यह पूछे कि हम यह कैसे जानें कि किसमें दुसरे का अहित है ? तो इसका निर्णय करने के लिए हमें एक ही बात पर ध्यान देना चाहिए कि हम जो कुछ दूसरों के प्रति कर रहे हैं, क्या वही दूसरों के द्वारा अपने प्रति किये जाने की आशा करते हैं ? दूसरों के द्वारा अपने प्रति हम वही आशा करते हैं, जो करने योग्य है; क्योंकि हम अपने प्रति दूसरों से न्याय, प्रेम, उदारता, आदर, करुणा एवं क्षमा आदि व्यवहार की ही आशा रखते हैं । जो अपने प्रति चाहते हैं, वही हमें दूसरों के प्रति करना है । ऐसा करने से 'करना', 'होने' में विलीन हो जाता है । फिर हम, जो हो रहा है, उसे देखने लगते हैं । 

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'जीवन-दर्शन भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 20-21) ।

Saturday, 19 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 19 January 2013  
(पौष शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०६९, शनिवार)

कर्तव्य-अकर्तव्य का विवेचन

        वस्तुस्थिति पर विचार करने से ये दो प्रश्न उत्पन्न होते हैं - प्रथम यह कि क्या हम वही कर रहे हैं, जो हमें करना चाहिए अथवा वह भी करते हैं, जो नहीं करना चाहिए ? और दूसरा यह कि जो स्वतः हो रहा है, उसका हम पर क्या प्रभाव है ? अब विचार यह करना है कि हम जो कुछ करते हैं, उसकी उत्पत्ति का कारण क्या है ? तो कहना होगा कि कुछ कार्य तो हम ऐसे करते हैं, जिनका कारण अपने को देह मान लेना है और कुछ कार्य ऐसे होते हैं जिनका सम्बन्ध बाह्य सम्पर्क से है, अथवा यों कहो कि करने का उदय हमारी मान्यता में तथा हमारे सम्बन्धों में निहित है ।

        हाँ एक बात और है, कुछ क्रियाएँ ऐसी भी होती हैं, जिन्हें हम देहजनित कह सकते हैं । वे क्रियाएँ कर्म नहीं, प्रत्युत देह का स्वभाव हैं । देह के स्वभाव से अतीत की ओर जाने के लिए कर्तव्य का विधान बना है, क्योंकि यदि ऐसा न होता, तो विवेक की कोई अपेक्षा ही न होती । विवेकयुक्त जीवन में ही यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या करने योग्य है और क्या नहीं करने योग्य है ? 

        विवेकरहित जीवन में तो यह प्रश्न ही नहीं उठता कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए । जहाँ यह प्रश्न ही नहीं है कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं, उस जीवन में तो केवल स्वतः आनेवाले सुख-दुःख का भोग है, सदुपयोग अथवा दुरूपयोग नहीं । इस दृष्टि से अब हमें अपने द्वारा होने वाली सभी चेष्टाओं को निज-विवेक के प्रकाश में देखना है कि क्या हम वही करते हैं, जो करने योग्य है, अथवा निज-ज्ञान का अनादर करके वह भी कर बैठते हैं, जो नहीं करना चाहिए, उसको करने से अपना तथा दूसरों का अहित ही होता है । 

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'जीवन-दर्शन भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 19-20) ।

Friday, 18 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 18 January 2013  
(पौष शुक्ल सप्तमी, वि.सं.-२०६९, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
साधन में शिथिलता क्यों आती है ?

        सत् की खोज असत् के त्याग में है, असत् के द्वारा नहीं । असत् का त्याग वर्तमान में हो सकता है । अतः सत् की प्राप्ति वर्तमान जीवन की वस्तु है, क्योंकि जब अपने द्वारा अपने प्रियतम को अपने ही में पाना है, तब उसके लिए श्रम तथा काल की अपेक्षा ही क्या है ? जिस साधन के लिए श्रम तथा काल अपेक्षित नहीं है, वही निवृति का साधन है । वह निवृति का साधन उन्हीं को प्राप्त होता है, जो अपने को समर्पण कर देते है ।

        सर्वहितकारी वृतियों का स्फुरण ही 'प्रवृति-मार्ग' है और वृतियों का स्फुरण न होना ही 'निवृति-मार्ग' है । सिमित बल तथा सामर्थ्य के द्वारा असीम तथा अनन्त की प्राप्ति सम्भव नहीं है । इस कारण समर्पण ही अन्तिम साधन है । पर वह उन्हीं साधकों को प्राप्त होता है, जो निर्बल हैं तथा जो गुणों के अभिमान से रहित हैं ।

        गुणों के अभिमान से रहित होते ही अनन्त की कृपाशक्ति स्वतः सब कुछ करने लगती है । फिर न साधन में शिथिलता आती है और न असफलता के लिए ही कोई स्थान रहता है; क्योंकि साधन में शिथिलता और असफलता तभी तक जीवित है, जब तक साधक अपने सिमित बल, योग्यता एवं गुणों के द्वारा सफलता की आशा करता है । 

- 'जीवन-दर्शन भाग-1' पुस्तक से, (Page No. 136) ।

Thursday, 17 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 17 January 2013  
(पौष शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०६९, गुरुवार)

(गत ब्लाग से आगेका)
साधन में शिथिलता क्यों आती है ?

       जिस साध्य की उपलब्द्धि संकल्प-पूर्ति पर निर्भर है, उसके लिए प्रवृति अपेक्षित है और जिसके लिए प्रवृति अपेक्षित है, उसके लिए भविष्य की आशा अनिवार्य है, परन्तु जो साध्य संकल्प-निवृति तथा उत्कण्ठा एवं लालसा जाग्रति से प्राप्त होता है, उसके लिए भविष्य की आशा तथा किसी अप्राप्त वस्तु, परिस्थिति आदि की अपेक्षा नहीं है ।

        जिसके लिए किसी वस्तु, अवस्था आदि की अपेक्षा नहीं है, उसके लिए तो उत्तरोत्तर उत्कण्ठा बढ़ते रहना ही स्वभाविक है अथवा यों कहो कि उसके लिए शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि की समस्त शक्तियाँ अपने-अपने स्वभाव का त्याग करके साध्य की लालसा बन जाती हैं अर्थात् अनेक इच्छाएँ एक लालसा में, अनेक सम्बन्ध एक सम्बन्ध में और अनेक विश्वास एक विश्वास में विलीन हो जाते हैं ।

        समस्त जीवन एक विश्वास, एक सम्बन्ध और एक लालसा के रूप में ही शेष रह जाता है अर्थात् साध्य की लालसा के अतिरिक्त और कोई अपना अस्तित्व ही शेष नहीं रहता । फिर वही लालसा जिज्ञासा होकर तत्व-ज्ञान से और प्रेम होकर प्रेमास्पद से अभिन्न हो जाती है । अथवा यों कहो कि जो लालसा अनेक कामनाओं को गलाकर उदय होती है, वह दिव्य तथा चिन्मय हो जाती है, क्योंकि चिन्मय प्रेम ही प्रेमास्पद से अभिन्न हो सकता है । इस दृष्टि से प्रेमी, प्रेम और प्रेमास्पद में एकता हो जाती है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'जीवन-दर्शन भाग-1' पुस्तक से, (Page No. 135-136) ।

Wednesday, 16 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 16 January 2013  
(पौष शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०६९, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
साधन में शिथिलता क्यों आती है ?

       सहज निवृति के बिना साधन वस्तु, अवस्था एवं परिस्थिति पर ही आश्रित रहता है, जो वास्तव में परतन्त्रता है । ऐसी साधना उपर से तो साधन का अभिमान उत्पन्न करती है और भीतर से असाधन को जन्म देती है अथवा यों कहो कि साधन और असाधन में द्वन्द्व होने लगता है । बस, यही असफलता का हेतु है।

        जब तक साधक अपनी प्राप्त शक्ति को लगाकर साध्य के लिए पूर्ण उत्कण्ठा जाग्रत नहीं कर लेता, तबतक साधन में सजीवता नहीं आती, जिसके बिना यंत्रवत् साधन होता रहता है। यद्यपि साधन और साध्य दोनों ही वर्तमान जीवन की वस्तु है, परन्तु साधन की शिथिलता हमें भविष्य की आशा में आबद्ध करती है । 

        पूरी शक्ति लगाना और उत्कण्ठा की जागृति तभी सम्भव है, जब हम साधन और साध्य को वर्तमान की वस्तु मान लें । साधन उसके लिए नहीं करना है, जो उत्पत्ति-विनाशयुक्त है और न उसके लिए करना है, जिससे देश-काल की दूरी है । तो फिर साध्य को वर्तमान की वस्तु मानने में आपत्ति क्या है ? 

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'जीवन-दर्शन भाग-1' पुस्तक से, (Page No. 135) ।

Tuesday, 15 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 15 January 2013  
(पौष शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०६९, मंगलवार)

साधन में शिथिलता क्यों आती है ?

        वस्तुस्थिति का अध्ययन करने पर यह प्रश्न स्वभावतः उत्पन्न होता है कि साधन में शिथिलता तथा असफलता का हेतु क्या है, जबकि वर्तमान जीवन साधनयुक्त जीवन है ? तो कहना होगा कि जब स्वार्थभाव सर्वहितकारी प्रवृति में और सर्वहितकारी प्रवृति सहज निवृति में विलीन नहीं होती, तभी साधन में शिथिलता आती है और असफलता का दर्शन होता है; अर्थात् वर्तमान में सिद्धि नहीं होती।

        जब साधन अपनी योग्यता के अनुरूप नहीं होता और साध्य वर्तमान से सम्बन्धित नहीं रहता, तब नित-नव उत्कण्ठा जाग्रत नहीं होती । उत्कण्ठा के बिना साधन में शिथिलता का आ जाना स्वाभाविक है । साधन में शिथिलता आ जाने पर, उत्साहहीनता और निराशा आदि दोष उत्पन्न होने लगते हैं ।

        यद्यपि किया हुआ साधन कभी नष्ट नहीं होता, क्योंकि साधन-तत्व नित्य है; परन्तु जिसकी उपलब्द्धि वर्तमान में हो सकती है, उसके लिए भविष्य की आशा होने लगती है, जिससे साधन का अभिमान तो रहता है, परन्तु साधन साधक का समस्त जीवन नहीं हो पाता; अर्थात् साधन जीवन का एक अंग-मात्र रह जाता है, जो कालान्तर में फल देता है ।

        अब विचार यह करना है कि साधन का आरम्भ कब होता है? विचार करने पर पता लगेगा कि जब स्वार्थभाव अर्थात् दूसरों से सुख लेने की आशा मिटने लगती है और सर्वहितकारी प्रवृति होने लगती है, तब साधन का आरम्भ होता है; परन्तु जब साधक सर्वहितकारी प्रवृति को ही जीवन मान लेता है, तब गुणों का अभिमान उत्पन्न होता है, जो सहज प्रवृति को प्राप्त नहीं होने देता । यही साधन में विघ्न है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'जीवन-दर्शन भाग-1' पुस्तक से, (Page No. 134-135) ।

Monday, 14 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 14 January 2013  
(पौष शुक्ल तृतीया, मकर संक्रान्ति पर्व, वि.सं.-२०६९, सोमवार)

(गत ब्लाग से आगेका)
अशुद्धि क्या है ?

        विवेकपूर्वक शरीर से तद्रूपता मिट जाने पर संकल्प की उत्पत्ति ही नहीं होती । संकल्पों की निवृति होते ही सुख-दुःख से अतीत, शान्ति के साम्राज्य में प्रवेश हो जाता है, जिसके होते ही भोक्ता, भोग की रूचि और भोग्य वस्तुएँ - इन तीनों का भेद मिट जाता है, क्योंकि भोक्ता से भिन्न भोग की रूचि और भोग की रूचि के बिना भोग्य वस्तु की प्रतीति ही सम्भव नहीं है, अथवा यों कहो कि भोग की रूचि का जो समूह है उसमें जिसने अहम्-बुद्धि को स्वीकार किया, उसी को भोक्ता कह सकते हैं ।

        भोक्ता में ही संकल्पों की उत्पत्ति होती है और संकल्पों की उत्पत्ति ही भोग्य वस्तुओं से सम्बन्ध जोड़ती है, जो वास्तव में चित्त की अशुद्धि है । संकल्प की उत्पत्ति जिन भोग्य वस्तुओं से सम्बन्ध जोड़ देती है, उन वस्तुओं का अस्तित्व क्या है ? ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है कि जिसकी प्राप्ति अप्राप्ति में स्वतः न बदल जाय ।

        अप्राप्ति उसी की हो सकती है, जिसका स्वतन्त्र अस्तित्व न हो । इस दृष्टि से किसी भी वस्तु का स्वतन्त्र अस्तित्व ही सिद्ध नहीं होता । स्वतन्त्र अस्तित्व उसी का हो सकता है, जिससे वस्तुओं की उत्पत्ति हो और जिसमें वस्तुएँ विलीन हों । वस्तुओं की उत्पत्ति के मूल में जो अनुत्पन्न-तत्व है, उसी की स्वतन्त्र सत्ता हो सकती है । उस स्वतन्त्र सत्ता को जो स्वीकार कर लेता है, वह बड़ी ही सुगमतापूर्वक वस्तुओं से असंग हो जाता है ।

        वस्तुओं से असंग होते ही चित्त स्वतः शुद्ध हो जाता है। वस्तुओं से संग की स्थापना कब हुई थी, इसका ज्ञान सम्भव नहीं है; किन्तु वस्तुओं से असंगता हो सकती है । इससे यह मान ही लेना पड़ता है कि वस्तुओं का संग स्वीकार किया गया है और उसका परिणाम यह हुआ है कि चित्त अशुद्ध हो गया है, जिसके होने से जीवन पराधीनता, जड़ता आदि दोषों में आबद्ध हो गया है, जो किसी को भी स्वभाव से प्रिय नहीं है ।

        इसी कारण चित्त-शुद्धि का प्रश्न जीवन का प्रश्न है । उसे वर्तमान में ही हल करना है । वह तभी सम्भव होगा, जब संकल्प की उत्पत्ति और पूर्ति के द्वन्द्वात्मक सुख-दुःख युक्त जीवन से अतीत के जीवन को प्राप्त करें, जो विवेक सिद्ध है ।  

- 'चित्त-शुद्धि भाग-1' पुस्तक से, (Page No. 17-18) ।

Sunday, 13 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 13 January 2013  
(पौष शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०६९, रविवार)

(गत ब्लाग से आगेका)
अशुद्धि क्या है ?

        वस्तुओं की दासता ने ही हमें संकल्पों की उत्पत्ति और पूर्ति के जीवन से तद्रूप कर दिया है । प्राणी वस्तुओं से ममता भले ही बनाये रखे, पर उनका वियोग तो स्वभाव से ही हो जाता है । अतः वस्तुओं के रहते हुए ही हमें उनसे असंग हो जाना चाहिए, तभी लोभ-मोह आदि दोषों की निवृति हो सकती है, जिसके होते ही चित्त स्वतः शुद्ध हो जाता है।

     अब विचार यह करना है कि संकल्प तथा वस्तु में सम्बन्ध क्या है ? वस्तुओं से संकल्प की उत्पत्ति होती है अथवा संकल्प में वस्तुएँ विद्यमान रहती हैं ? यदि कोई कहे कि वस्तुओं से संकल्प की उत्पत्ति होती है, तो संकल्प बिना वस्तुओं की प्रतीति कैसे हुई? और यदि कोई यह कहे कि संकल्प से वस्तुएँ उत्पन्न होती है, तो संकल्प-अपूर्ति का प्रश्न ही जीवन में क्यों आया ? 

        अतः न तो वस्तुओं से संकल्प की उत्पत्ति सिद्ध होती है और न संकल्प से ही वस्तुओं की । परन्तु प्राणी संकल्प के द्वारा ही वस्तुओं से सम्बन्ध स्थापित करता है । सम्बन्ध उसी से हो सकता है, जिससे किसी न किसी प्रकार की एकता तथा भिन्नता हो । इस दृष्टि से संकल्प तथा वस्तुओं में किसी न किसी प्रकार की एकता और भिन्नता अवश्य है । वस्तुओं के द्वारा सुख की आशा ने संकल्प को जन्म दिया और संकल्प-पूर्ति ने वस्तु को महत्व प्रदान किया ।

      अब विचार यह करना है कि वस्तुओं के द्वारा सुख की आशा का जन्म कैसे हुआ ? शरीररूपी वस्तु में अहम्-बुद्धि हो जाने पर वस्तुओं की कामना स्वतः उत्पन्न होती है; क्योंकि शरीर और सृष्टि के गुणों की भिन्नता और स्वरूप की एकता है । इसी कारण शरीर से तद्रूप होने पर सृष्टि से सुख की आशा उत्पन्न होती है ।

       शरीर की तद्रूपता न तो वस्तु है और न संकल्प, अपितु अविवेक है । इस दृष्टि से यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि अविवेक से ही संकल्प और वस्तु में सम्बन्ध की स्थापना हुई । 

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'चित्त-शुद्धि भाग-1' पुस्तक से, (Page No. 16-17) ।

Saturday, 12 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 12 January 2013  
(पौष शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०६९, शनिवार)

(गत ब्लाग से आगेका)
अशुद्धि क्या है ?

        संकल्प-पूर्ति के सुख की दासता और संकल्प-उत्पत्ति के दुःख के भय से मुक्त होने के लिए यह जान लेना अनिवार्य है कि संकल्प क्या है? वस्तुओं की सत्यता, सुन्दरता एवं सुख-रूपता का आकर्षण ही संकल्प का स्वरूप है, अथवा यों कहो कि अपने से वस्तुओं का अधिक महत्व स्वीकार करना संकल्पों में आबद्ध होना है ।

        अतः संकल्परहित होने के लिए यह आवश्यक है कि सभी वस्तुओं से अपने को विमुख कर लिया जाय । वस्तुओं से विमुख होते ही वस्तुओं की सत्यता तथा सुन्दरता शेष नहीं रहती, कारण, कि वस्तुओं की असंगता प्राणी को निर्लोभी बना देती है । निर्लोभता के आते ही वस्तुओं का मूल्य घट जाता है और फिर वस्तुओं की दासता शेष नहीं रहती । वस्तुओं की दासता मिटते ही भोग की रूचि स्वतः ही मिट जाती है और योग की लालसा जाग्रत होती है ।

        अब विचार यह करना है कि वस्तु का स्वरूप क्या है ? वस्तु उसे कहते हैं जो उत्पत्ति-विनाशयुक्त हो, परिवर्तनशील एवं पर-प्रकाश्य हो । इस दृष्टि से शरीर, इन्द्रिय, प्राण, मन, बुद्धि आदि सभी वस्तुओं के अर्थ में आ जाते हैं । इतना ही नहीं, जिसे हम सृष्टि कहते हैं, वह भी एक वस्तु ही है, क्योंकि सृष्टि, अपने को अपने आप  प्रकाशित नहीं करती ।

         हम भले ही किसी वस्तु से ममता करें, पर वस्तु भी अपनी ओर से हमें अपना नहीं कहती । इस दृष्टि से वस्तुओं से हमारी भिन्नता है, एकता नहीं । जिससे एकता नहीं है उसे अपना मान लेना, उसकी दासता में आबद्ध होना है और कुछ नहीं ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'चित्त-शुद्धि भाग-1' पुस्तक से, (Page No. 16) ।

Friday, 11 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 11 January 2013  
(पौष अमावस्या, वि.सं.-२०६९, शुक्रवार)

(गत ब्लाग से आगेका)
अशुद्धि क्या है ?

         प्राकृतिक नियम के अनुसार चित्त स्वभाव से ही शुद्धि की और गतिशील होता है । इसी कारण चित्त में चंचलता प्रतीत होती है । जब उसे अपना अभीष्ट रस, प्रसन्नता तथा जीवन मिल जाता है, तब वह सदा के लिए शुद्ध, शान्त एवं स्वस्थ हो जाता है । इस दृष्टि से चित्त हमारा हितैषी है, विरोधी नहीं । उसकी निन्दा करना अपने प्रति घोर अन्याय है। 

         चित्त-शुद्धि की जिज्ञासा तथा लालसा उत्तरोत्तर सबल तथा स्थायी रहनी चाहिए । उससे कभी निराश नहीं होना चाहिए; अपितु चित्त-शुद्धि के लिए नित नव उत्कंठा तथा उत्साह बढ़ता रहना चाहिए । यह नियम है कि उत्साह तथा उत्कंठा में एक अपूर्व रस है और रस चित्त को स्वभाव से ही प्रिय है । ज्यों-ज्यों रस की वृद्धि होती जाती है, त्यों-त्यों चित्त का मनोराज्य गलता जाता है, जिसके गलते ही चिरविश्रान्ति स्वतः आ जाती है, जो सभी को अभिष्ट है । 

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'चित्त-शुद्धि भाग-1' पुस्तक से, (Page No. 15-16) ।

Thursday, 10 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 10 January 2013  
(पौष कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०६९, गुरुवार)

(गत ब्लाग से आगेका)
अशुद्धि क्या है ?

        संकल्प-पूर्ति के सुख की दासता और संकल्प-अपूर्ति का भय मिट जाने पर संकल्प उत्पत्ति-पूर्ति के जीवन से तद्रूपता नहीं रहती है। तद्रूपता के मिटते ही चित्त स्वतः शुद्ध होने लगता है । पर चित्त इतनी गहरी खाई है कि उसके शुद्ध, शान्त तथा स्वस्थ होते समय भुक्त-अभुक्त संकल्पों के प्रभाव से प्रेरित होकर संकल्पों का प्रवाह चलने लगता है । उसे देखकर साधक भयभीत हो जाता है और स्वयं अपने आप अपनी तथा चित्त की निन्दा करने लगता है ।

        यद्यपि चित्त निन्दनीय नहीं है, उसमें जो भुक्त-अभुक्त संकल्पों का प्रवाह अंकित हो गया है वही त्याज्य है, जो चित्त के शुद्ध होते समय मिटने के लिए स्वयं प्रकट होता है । पर साधक भयभीत होकर उसे दबाने का प्रयास करता है अथवा सुखद मनोराज्य का मिथ्या रस लेने लगता है । उसका परिणाम यह होता है कि वह प्रभाव स्थिर हो जाता है, मिट नहीं पाता और साधक चित्त-शुद्धि से निराश होने लगता है । 

        अनेक प्रकार की युक्तियों से, प्रमाणों से इस धारणा को पुष्ट कर लेता है कि भला हमारा चित्त कैसे शुद्ध हो सकता है, जो स्वभाव से ही चंचल है । पर ऐसी बात नहीं है कि चित्त शुद्ध नहीं हो सकता । 

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'चित्त-शुद्धि भाग-1' पुस्तक से, (Page No. 15) ।

Wednesday, 9 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 9 January 2013  
(पौष कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०६९, बुधवार)

(गत ब्लाग से आगेका)
अशुद्धि क्या है ?

संकल्पों की उत्पत्ति-पूर्ति के जीवन में सभी किसी न किसी प्रकार का अभाव अनुभव करते हैं। यही समस्या इस जीवन से अतीत के जीवन की ओर प्रेरित करती है । वह प्रेरणा जिसका प्रकाश है उसकी सत्ता स्वीकार करना और संकल्प उत्पत्ति-पूर्ति के जीवन को केवल राग निवृति का साधन मानना चित्त की अशुद्धि मिटाने में समर्थ है। इस दृष्टि से संकल्प उत्पत्ति-पूर्ति का जीवन अभाव रूप है और उससे अतीत का जीवन भावरूप है । 

अभाव का प्रकाशन भावरूप सत्ता से ही होता है । यदि अभाव की अनुभूति को वास्तविक जीवन की लालसा मान लिया जाय, तो अभाव की अनुभूति भी वास्तविक जीवन की ओर अग्रसर करने में हेतु बन जाती है । इस दृष्टि से संकल्प उत्पत्ति-पूर्ति का जीवन वास्तविक जीवन का साधन मात्र है और कुछ नहीं । अतः संकल्प उत्पत्ति-पूर्ति को ही जीवन स्वीकार करना चित्त को अशुद्ध रखना है । 

यद्यपि इस स्वीकृति में निज-अनुभूति का विरोध है, फिर भी उसका प्रभाव चित्त पर अंकित रहना चित्त की अशुद्धि का स्वरूप है। इस दृष्टि से चित्त की अशुद्धि जो जीवन में दिखाई देती है वह ऐसी वस्तु नहीं है कि मिट न सके । अवश्य मिट सकती है। पर कब ? जब संकल्प-पूर्ति के सुख का महत्व न रहे, अपितु उसमें पराधीनता का दर्शन हो और संकल्प-अपूर्ति का क्षोभ भयभीत न कर सके ।  

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'चित्त-शुद्धि भाग-1' पुस्तक से, (Page No. 14-15) ।

Tuesday, 8 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 8 January 2013  
(पौष कृष्ण सफला एकादशी, वि.सं.-२०६९, मंगलवार)

(गत ब्लाग से आगेका)
अशुद्धि क्या है ?

संकल्पों की उत्पत्ति जिसमें होती है और उनकी पूर्ति जिन साधनों से होती है, उन दोनों का जो प्रकाशक है अथवा जिससे उन दोनों को सत्ता मिलती है, उसमें जीवन-बुद्धि स्वीकार न करना अनुभूति का विरोध है, और संकल्पों की उत्पत्ति-पूर्ति में ही जीवन बुद्धि स्वीकार करना, यह निज अनुभूति का अनादर करना है । इस भूल से ही चित्त अशुद्ध हो गया है । 

अब विचार यह करना है कि संकल्पों की उत्पत्ति का उद्गम स्थान क्या है और उन संकल्पों की पूर्ति जिन साधनों से होती है, उनका स्वरूप क्या है ? जिन मान्यताओं से किसी न किसी प्रकार के भेद की उत्पत्ति होती है, उन मान्यताओं में अहम्-बुद्धि स्वीकार करने पर ही संकल्पों की उत्पत्ति होती है और जिन वस्तुओं से संकल्पों की पूर्ति होती है, वे सभी वस्तुएँ पर-प्रकाश्य हैं, परिवर्तनशील हैं और उत्पत्ति-विनाशयुक्त हैं । 

इसी कारण संकल्प-पूर्ति का सुख संकल्प-उत्पत्ति का हेतु बन जाता है । उत्पत्ति-पूर्ति का क्रम सतत चलता रहता है । उससे तद्रूप होकर प्राणी अनेक प्रकार के अभाओं में आबद्ध होकर दीनता तथा अभिमान की अग्नि में दग्ध होता रहता है । संकल्पों की उत्पत्ति-पूर्ति से अतीत के जीवन पर विश्वास हो जाय अथवा उसका अनुभव हो जाय तो प्राणी बड़ी ही सुगमतापूर्वक चिर-विश्राम पाकर कृतकृत्य हो जाता है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'चित्त-शुद्धि भाग-1' पुस्तक से, (Page No. 13-14) ।

Monday, 7 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 7 January 2013  
(पौष कृष्ण दशमी, वि.सं.-२०६९, सोमवार)

अशुद्धि क्या है ?

चित्त की शुद्धि का भले ही किसी को ज्ञान न हो, पर चित्त की अशुद्धि का तो ज्ञान मानव-मात्र को है; क्योंकि यदि ऐसा न होता तो चित्त की शुद्धि का प्रश्न ही उत्पन्न न होता । विचार यह करना है कि हमारी अपनी दृष्टि में अपने में क्या अशुद्धि प्रतीत होती है ? 

जब हम अपने चित्त को अपने अधीन नहीं पाते हैं तब यह भास होता है कि चित्त में कोई दोष है । यदि हमारा चित्त हमारे अधीन होता, तो हम चित्त के लगाने और हटाने में अपने को सर्वदा स्वाधीन पाते । पर ऐसा करने में हम अपने को असमर्थ पाते हैं, हमारी असमर्थता ही हमें यह बता देती है कि हमारे चित्त में कोई अशुद्धि है ।

किसी भी अस्वाभाविकता का आ जाना ही अशुद्धि है । इस दृष्टि से हमें अनुभूति के आधार पर यह जान लेना है कि हमारे चित्त में क्या अस्वाभाविकता आ गई है, जिससे हम अपने चित्त को अपने अधीन नहीं रख पाते हैं । संकल्पों की उत्पत्ति तथा पूर्ति को ही हम अपना जीवन मान बैठें हैं । 

यद्यपि संकल्पों की उत्पत्ति से पूर्व भी जीवन है और संकल्प-पूर्ति के पश्चात् भी जीवन है; परन्तु हम उस स्वाभाविक जीवन की ओर ध्यान नहीं देते और संकल्प की उत्पत्ति तथा उसकी पूर्ति की द्वंद्वात्मक परिस्थिति को ही जीवन मान लेते हैं, यही अस्वाभाविकता है । इस अस्वाभाविकता के प्रभाव से ही चित्त अशुद्ध हो गया है । इस दृष्टि से संकल्पों की उत्पत्ति-पूर्ति में ही जीवन-बुद्धि स्वीकार करना और संकल्पों से अतीत के जीवन की जिज्ञासा तथा लालसा जाग्रत न होना ही चित्त की अशुद्धि है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'चित्त-शुद्धि भाग-1' पुस्तक से, (Page No. 13) ।

Sunday, 6 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 6 January 2013  
(पौष कृष्ण नवमी, वि.सं.-२०६९, रविवार)

चित्त की शुद्धि का सूक्ष्म विवेचन

1. चित्त का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है ।

2. चित्त 'करण' है, 'कर्ता' नहीं।

3. चित्त की अशुद्धि अपना बनाया हुआ दोष है, इसलिए अपने द्वारा मिटाया जा सकता है ।

4. जब चित्त का ही स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, तो अशुद्धि स्थायी हो ही नहीं सकती, इसलिए अशुद्धि का नाश अवश्यम्भावी है ।

5. सर्वांश में चित्त किसी का अशुद्ध नहीं है ।

6. विवेक के अनादर से चित्त की अशुद्धि उत्पन्न हुई है । अतः विवेक के आदर से इसका नाश निश्चित है ।

7. विवेक प्रत्येक मानव को सदा से प्राप्त है ।

8. निज-विवेक के आदर द्वारा प्रत्येक साधक युग-युग की अशुद्धि को वर्तमान में मिटाने में समर्थ है ।

9. अशुद्धि के मिटते ही वास्तविक जीवन की प्राप्ति का साधन सुलभ हो जाता है, अर्थात् साधन और जीवन में अभिन्नता हो जाती है ।

10. चित्त-शुद्धि साधक का पहला और अन्तिम पुरुषार्थ है ।

11. अशुद्धि के ज्ञान में शुद्धि का उपाय निहित है ।

12. एक बार शुद्धि आ जाने पर फिर अशुद्धि नहीं आती ।

13. चित्त शुद्धि के मूल उपाय :--
- आस्तिक दृष्टि से विश्वासपूर्वक अनन्त की अहैतुकी कृपा का आश्रय लेना ।
- अध्यात्म दृष्टि से विवेकपूर्वक अचाह होना ।
- भौतिक दृष्टि से वर्तमान कार्य को पवित्र भाव से, पूरी शक्ति लगाकर, लक्ष्य पर दृष्टि रखते हुए विधिपूर्वक सम्पादित करना ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'चित्त-शुद्धि भाग-1' पुस्तक से, (Page No. 7-10) ।

Saturday, 5 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 5 January 2013  
(पौष कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०६९, शनिवार)

चित्त की अशुद्धि के मूल कारण

1. सामर्थ्य का दुरूपयोग चित्त की अशुद्धि है ।

2. दोष की वेदना का न होना चित्त की अशुद्धि है ।

3. कर्तव्य का ज्ञान न करना, विश्राम न पाना और जिसको अपना माना, उसको प्यार न करना अस्वाभाविकता है । इससे चित्त अशुद्ध होता है ।

4. किसी भी की हुई, सुनी हुई और देखी हुई भूतकाल की बुराई के आधार पर अपने को, अथवा दुसरे को सदा के लिए बुरा मान लेना चित्त की अशुद्धि है ।

5. वर्तमान की नीरसता चित्त की अशुद्धि का परिचायक है ।

6. व्यर्थ चिन्तन, चित्त को शान्त नहीं होने देता ।

7. वस्तु, अवस्था एवं परिस्थिति के आधार पर अपना मुल्यांकन करने से चित्त अशुद्ध होता है ।

8. संयोग की दासता और वियोग का भय चित्त की अशुद्धि है ।

9. करने में सावधान और होने में प्रसन्न नहीं रहने से चित्त अशुद्ध होता है ।

10. ज्ञान और जीवन में भेद होना चित्त की अशुद्धि है ।

11. साधक अपने व्यक्तित्व के मोह में आबद्ध होकर चित्त को अशुद्ध कर लेता है ।

12. चित्त को दबाए रखना चित्त की अशुद्धि का पोषक है ।

13. संकल्पों की उत्पत्ति और पूर्ति में ही जीवन-बुद्धि स्वीकार कर लेना चित्त की अशुद्धि है ।

14. अहम्-भाव का महत्व चित्त की अशुद्धि है ।

15. चित्त-शुद्धि की साधना में श्रम और कठिनाई का अनुभव एक अस्वाभाविकता है । यह चित्त की अशुद्धि है ।

16. सिमित गुणों का भोग चित्त की अशुद्धि है ।

17. साधन-मार्ग की प्राप्त सिद्धियों में सन्तुष्टि चित्त की शुद्धि में बाधा है ।

18. सिमित अहम्-भाव का नाश न होना मौलिक एवं अन्तिम चित्त की अशुद्धि है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'चित्त-शुद्धि भाग-1' पुस्तक से, (Page No. 5-6) ।