Monday 28 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 28 January 2013  
(माघ कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०६९, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता

        काल्पनिक सम्बन्ध भी दो प्रकार के होते हैं - भेद-भाव का सम्बन्ध तथा अभेद-भाव का सम्बन्ध। माना हुआ 'मैं' अभेद भाव का सम्बन्ध है और माना हुआ 'मेरा' भेद-भाव का सम्बन्ध है। अभेद भाव का सम्बन्ध केवल अपनी स्वीकृति के आधार पर जीवित रहता है और भेद-भाव का सम्बन्ध माने हुए सम्बन्ध के अनुरूप चेष्टा करने पर प्रतीत होता रहता है । प्रतीति निज-सत्ता के बिना किसी और की सत्ता के आधार पर भी किसी कारणवश हो सकती है - जैसे, मृगतृष्णा का जल ।

        जिस प्रकार प्रत्येक मित्र अपने मित्र के सुख-दुःख से मैत्री सम्बन्ध के कारण दुखी-सुखी होकर अपने को दुखी-सुखी समझने लगता है, उसी प्रकार हम शरीर के सुख-दुःख आदि स्वभाव को अपने में आरोपित करने लगते हैं । किन्तु हमारी स्वभाविक अभिलाषा शरीर-सम्बन्ध से पूर्ण नहीं हो पाती। अतः हमको अपने लिए अपने प्रेमपात्र अर्थात् नित्य-जीवन की आवश्यकता शेष रहती है । उसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए हमको अनित्य जीवन से भिन्न नित्य-जीवन की ओर जाना अनिवार्य हो जाता है ।

        अब हम अपने नित्य-जीवन को कैसे जानें ? यह प्रश्न स्वभाविक उत्पन्न होता है । यद्यपि प्रत्येक प्राणी अपनी स्वीकृति करता है, परन्तु अपने वास्तविक निज-स्वरूप, नित्य-जीवन को जानने से इन्कार करता है । यह कैसे आश्चर्य की बात है! 'स्वभाविक अभिलाषा से भिन्न अभिलाषी का निज-स्वरूप कुछ नहीं हो सकता ।'

        अब विचार यह करना है कि हमारी स्वभाविक अभिलाषा क्या है ? प्रत्येक प्राणी अपने में किसी प्रकार की कमी रखना नहीं चाहता; क्योंकि कमी का अनुभव होते ही दुःख का अनुभव होता है। यद्यपि दुःख किसी भी प्राणी को प्रिय नहीं है, फिर भी अपने-आप आता है । जो अपने-आप आता है, उससे हमारा हित अवश्य होगा, यदि उसका सदुपयोग किया जाय । क्योंकि यदि दुःख न आता, तो हम अस्वभाविक अनित्य जीवन से विरक्त नहीं हो सकते थे । अथवा यों कहो कि हमारी स्वभाविक अभिलाषा, जो अस्वभाविक इच्छाओं द्वारा दबाकर निर्बल बना दी गई थी, सबल न हो पाती । अतः दुःख की कृपा से हम जाग्रत हो जाते हैं । इस दृष्टि से दुःख आदरणीय अवश्य है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 10-11) ।