Monday 7 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 7 January 2013  
(पौष कृष्ण दशमी, वि.सं.-२०६९, सोमवार)

अशुद्धि क्या है ?

चित्त की शुद्धि का भले ही किसी को ज्ञान न हो, पर चित्त की अशुद्धि का तो ज्ञान मानव-मात्र को है; क्योंकि यदि ऐसा न होता तो चित्त की शुद्धि का प्रश्न ही उत्पन्न न होता । विचार यह करना है कि हमारी अपनी दृष्टि में अपने में क्या अशुद्धि प्रतीत होती है ? 

जब हम अपने चित्त को अपने अधीन नहीं पाते हैं तब यह भास होता है कि चित्त में कोई दोष है । यदि हमारा चित्त हमारे अधीन होता, तो हम चित्त के लगाने और हटाने में अपने को सर्वदा स्वाधीन पाते । पर ऐसा करने में हम अपने को असमर्थ पाते हैं, हमारी असमर्थता ही हमें यह बता देती है कि हमारे चित्त में कोई अशुद्धि है ।

किसी भी अस्वाभाविकता का आ जाना ही अशुद्धि है । इस दृष्टि से हमें अनुभूति के आधार पर यह जान लेना है कि हमारे चित्त में क्या अस्वाभाविकता आ गई है, जिससे हम अपने चित्त को अपने अधीन नहीं रख पाते हैं । संकल्पों की उत्पत्ति तथा पूर्ति को ही हम अपना जीवन मान बैठें हैं । 

यद्यपि संकल्पों की उत्पत्ति से पूर्व भी जीवन है और संकल्प-पूर्ति के पश्चात् भी जीवन है; परन्तु हम उस स्वाभाविक जीवन की ओर ध्यान नहीं देते और संकल्प की उत्पत्ति तथा उसकी पूर्ति की द्वंद्वात्मक परिस्थिति को ही जीवन मान लेते हैं, यही अस्वाभाविकता है । इस अस्वाभाविकता के प्रभाव से ही चित्त अशुद्ध हो गया है । इस दृष्टि से संकल्पों की उत्पत्ति-पूर्ति में ही जीवन-बुद्धि स्वीकार करना और संकल्पों से अतीत के जीवन की जिज्ञासा तथा लालसा जाग्रत न होना ही चित्त की अशुद्धि है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'चित्त-शुद्धि भाग-1' पुस्तक से, (Page No. 13) ।