Sunday, 6 January 2013
(पौष कृष्ण नवमी, वि.सं.-२०६९, रविवार)
चित्त की शुद्धि का सूक्ष्म विवेचन
1. चित्त का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है ।
2. चित्त 'करण' है, 'कर्ता' नहीं।
3. चित्त की अशुद्धि अपना बनाया हुआ दोष है, इसलिए अपने द्वारा मिटाया जा सकता है ।
4. जब चित्त का ही स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, तो अशुद्धि स्थायी हो ही नहीं सकती, इसलिए अशुद्धि का नाश अवश्यम्भावी है ।
5. सर्वांश में चित्त किसी का अशुद्ध नहीं है ।
6. विवेक के अनादर से चित्त की अशुद्धि उत्पन्न हुई है । अतः विवेक के आदर से इसका नाश निश्चित है ।
7. विवेक प्रत्येक मानव को सदा से प्राप्त है ।
8. निज-विवेक के आदर द्वारा प्रत्येक साधक युग-युग की अशुद्धि को वर्तमान में मिटाने में समर्थ है ।
9. अशुद्धि के मिटते ही वास्तविक जीवन की प्राप्ति का साधन सुलभ हो जाता है, अर्थात् साधन और जीवन में अभिन्नता हो जाती है ।
10. चित्त-शुद्धि साधक का पहला और अन्तिम पुरुषार्थ है ।
11. अशुद्धि के ज्ञान में शुद्धि का उपाय निहित है ।
12. एक बार शुद्धि आ जाने पर फिर अशुद्धि नहीं आती ।
13. चित्त शुद्धि के मूल उपाय :--
- आस्तिक दृष्टि से विश्वासपूर्वक अनन्त की अहैतुकी कृपा का आश्रय लेना ।
- अध्यात्म दृष्टि से विवेकपूर्वक अचाह होना ।
- भौतिक दृष्टि से वर्तमान कार्य को पवित्र भाव से, पूरी शक्ति लगाकर, लक्ष्य पर दृष्टि रखते हुए विधिपूर्वक सम्पादित करना ।
- (शेष आगेके ब्लागमें) 'चित्त-शुद्धि भाग-1' पुस्तक से, (Page No. 7-10) ।