Saturday, 5 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 5 January 2013  
(पौष कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०६९, शनिवार)

चित्त की अशुद्धि के मूल कारण

1. सामर्थ्य का दुरूपयोग चित्त की अशुद्धि है ।

2. दोष की वेदना का न होना चित्त की अशुद्धि है ।

3. कर्तव्य का ज्ञान न करना, विश्राम न पाना और जिसको अपना माना, उसको प्यार न करना अस्वाभाविकता है । इससे चित्त अशुद्ध होता है ।

4. किसी भी की हुई, सुनी हुई और देखी हुई भूतकाल की बुराई के आधार पर अपने को, अथवा दुसरे को सदा के लिए बुरा मान लेना चित्त की अशुद्धि है ।

5. वर्तमान की नीरसता चित्त की अशुद्धि का परिचायक है ।

6. व्यर्थ चिन्तन, चित्त को शान्त नहीं होने देता ।

7. वस्तु, अवस्था एवं परिस्थिति के आधार पर अपना मुल्यांकन करने से चित्त अशुद्ध होता है ।

8. संयोग की दासता और वियोग का भय चित्त की अशुद्धि है ।

9. करने में सावधान और होने में प्रसन्न नहीं रहने से चित्त अशुद्ध होता है ।

10. ज्ञान और जीवन में भेद होना चित्त की अशुद्धि है ।

11. साधक अपने व्यक्तित्व के मोह में आबद्ध होकर चित्त को अशुद्ध कर लेता है ।

12. चित्त को दबाए रखना चित्त की अशुद्धि का पोषक है ।

13. संकल्पों की उत्पत्ति और पूर्ति में ही जीवन-बुद्धि स्वीकार कर लेना चित्त की अशुद्धि है ।

14. अहम्-भाव का महत्व चित्त की अशुद्धि है ।

15. चित्त-शुद्धि की साधना में श्रम और कठिनाई का अनुभव एक अस्वाभाविकता है । यह चित्त की अशुद्धि है ।

16. सिमित गुणों का भोग चित्त की अशुद्धि है ।

17. साधन-मार्ग की प्राप्त सिद्धियों में सन्तुष्टि चित्त की शुद्धि में बाधा है ।

18. सिमित अहम्-भाव का नाश न होना मौलिक एवं अन्तिम चित्त की अशुद्धि है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'चित्त-शुद्धि भाग-1' पुस्तक से, (Page No. 5-6) ।