Monday, 14 January 2013
(पौष शुक्ल तृतीया, मकर संक्रान्ति पर्व, वि.सं.-२०६९, सोमवार)
(गत ब्लाग से आगेका)
अशुद्धि क्या है ?
विवेकपूर्वक शरीर से तद्रूपता मिट जाने पर संकल्प की उत्पत्ति ही नहीं होती । संकल्पों की निवृति होते ही सुख-दुःख से अतीत, शान्ति के साम्राज्य में प्रवेश हो जाता है, जिसके होते ही भोक्ता, भोग की रूचि और भोग्य वस्तुएँ - इन तीनों का भेद मिट जाता है, क्योंकि भोक्ता से भिन्न भोग की रूचि और भोग की रूचि के बिना भोग्य वस्तु की प्रतीति ही सम्भव नहीं है, अथवा यों कहो कि भोग की रूचि का जो समूह है उसमें जिसने अहम्-बुद्धि को स्वीकार किया, उसी को भोक्ता कह सकते हैं ।
भोक्ता में ही संकल्पों की उत्पत्ति होती है और संकल्पों की उत्पत्ति ही भोग्य वस्तुओं से सम्बन्ध जोड़ती है, जो वास्तव में चित्त की अशुद्धि है । संकल्प की उत्पत्ति जिन भोग्य वस्तुओं से सम्बन्ध जोड़ देती है, उन वस्तुओं का अस्तित्व क्या है ? ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है कि जिसकी प्राप्ति अप्राप्ति में स्वतः न बदल जाय ।
अप्राप्ति उसी की हो सकती है, जिसका स्वतन्त्र अस्तित्व न हो । इस दृष्टि से किसी भी वस्तु का स्वतन्त्र अस्तित्व ही सिद्ध नहीं होता । स्वतन्त्र अस्तित्व उसी का हो सकता है, जिससे वस्तुओं की उत्पत्ति हो और जिसमें वस्तुएँ विलीन हों । वस्तुओं की उत्पत्ति के मूल में जो अनुत्पन्न-तत्व है, उसी की स्वतन्त्र सत्ता हो सकती है । उस स्वतन्त्र सत्ता को जो स्वीकार कर लेता है, वह बड़ी ही सुगमतापूर्वक वस्तुओं से असंग हो जाता है ।
वस्तुओं से असंग होते ही चित्त स्वतः शुद्ध हो जाता है। वस्तुओं से संग की स्थापना कब हुई थी, इसका ज्ञान सम्भव नहीं है; किन्तु वस्तुओं से असंगता हो सकती है । इससे यह मान ही लेना पड़ता है कि वस्तुओं का संग स्वीकार किया गया है और उसका परिणाम यह हुआ है कि चित्त अशुद्ध हो गया है, जिसके होने से जीवन पराधीनता, जड़ता आदि दोषों में आबद्ध हो गया है, जो किसी को भी स्वभाव से प्रिय नहीं है ।
इसी कारण चित्त-शुद्धि का प्रश्न जीवन का प्रश्न है । उसे वर्तमान में ही हल करना है । वह तभी सम्भव होगा, जब संकल्प की उत्पत्ति और पूर्ति के द्वन्द्वात्मक सुख-दुःख युक्त जीवन से अतीत के जीवन को प्राप्त करें, जो विवेक सिद्ध है ।
- 'चित्त-शुद्धि भाग-1' पुस्तक से, (Page No. 17-18) ।