Thursday, 31 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 31 January 2013  
(माघ कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०६९, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता

        अपनी ओर देखने का प्रयत्न क्या है ? अपनी ओर देखने के लिए प्राणी को सबसे प्रथम अपनी स्वभाविक अभिलाषा को स्थायी करना होगा । ज्यों-ज्यों स्वाभाविक अभिलाषा स्थायी होती जाएगी, त्यों-त्यों अस्वभाविक इच्छाएँ उसी प्रकार स्वाभाविक अभिलाषा में गलकर विलीन होती जाएँगी, जिस प्रकार बर्फ गलकर जल हो जाता है । जिस प्रकार बर्फ गलकर नदी हो, स्वयं अपने प्रेमपात्र समुद्र से मिलकर अभिन्न हो जाती है, उसी प्रकार सब अस्वभाविक इच्छाएँ स्वभाविक नित्यानन्द की अभिलाषा में बदल जाती हैं और स्वाभाविक अभिलाषा अपने प्रेमपात्र आनन्द से अभिन्न हो जाती है । उसको अपने प्रेमपात्र तक पहुँचने के लिए अपने से भिन्न किसी और की सहायता की आवश्यकता कदापि नहीं होती अर्थात् वह स्वतन्त्रतापूर्वक परम स्वतन्त्र तत्व से अभिन्न हो जाती है, क्योंकि स्वतन्त्रता प्राप्त करने का साधन कभी परतन्त्र नहीं हो सकता । अर्थात् स्वतन्त्रता प्राप्त करने का साधन भी स्वतन्त्र है, क्योंकि स्वतन्त्रता प्राणी की निज की वस्तु है । वह हमारा त्याग कर ही नहीं सकती ।

        हमारा त्याग वही करता है, जो वास्तव में हमारा नहीं है, अर्थात् जिससे जातीय भिन्नता है । यदि आनन्द से जातीय भिन्नता होती, तो हमको आनन्द की स्वाभाविक अभिलाषा किसी प्रकार नहीं हो सकती थी । और यदि परतन्त्रता अर्थात् दुःख से जातीय भिन्नता न होती, तो हमको उससे अरुचि न होती । आनन्द की स्वाभाविक अभिलाषा आनन्द से जातीय एकता सिद्ध करने में स्वयं समर्थ है । स्वाभाविक अभिलाषा स्वयं अपनी अनुभूति के बिना नहीं होती और अनुभूति जातीय एकता के बिना नहीं होती । अतः आनन्द अर्थात् स्वतन्त्रता से आनन्द के अभिलाषी को जातीय एकता स्वीकार करना परम अनिवार्य है ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 13) ।