Wednesday, 30 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 30 January 2013  
(माघ कृष्ण तिल-चौथ व्रत, वि.सं.-२०६९, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता

        जब हम विचार करते हैं, तो यही ज्ञात होता है कि हमारी प्रत्येक प्रवृति हमारी स्वीकार की हुई अहंता के अनुरूप ही होती है; क्योंकि बेचारी प्रवृति तो अन्त में केवल स्वीकार की हुई अहंता को ही पुष्ट करती है । अतः अहंता से भिन्न प्रवृति नहीं हो सकती । जबतक हम दोषयुक्त अहंता को स्वीकार करते रहेंगे, तबतक दोषयुक्त प्रवृति होती ही रहेगी अर्थात् मिट नहीं सकती । स्वीकृत की हुई अहंता को अपने से अतिरिक्त और कोई परिवर्तित नहीं कर सकता, अर्थात् अस्वभाविक काल्पनिक सदोष स्वीकृति को हम स्वयं स्वतन्त्रतापूर्व मिटा सकते हैं । दोषयुक्त अहंता के मिट जाने पर दोषयुक्त प्रवृति शेष नहीं रहती; क्योंकि कारण के बिना कार्य किसी भी प्रकार नहीं हो सकता । अतः यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि हम अपने बनाए हुए दोष का स्वयं अन्त कर सकते हैं, अर्थात् किसी और के बनाए हुए दोष को कोई और नहीं मिटा सकता ।

        जब हम अपने बनाए दोष का अन्त कर डालेंगे, तब आनन्दघन भगवान एवं जगत् हमारे साथ अवश्य होंगे, क्योंकि 'निर्दोषता सभी को प्रिय होती है ।' अथवा यों कहो कि इस प्रतीत होने वाले जगत् और उस परमात्मा को, जिसकी खोज जगत् करता है, हम अपने में ही पाएँगे; क्योंकि स्वभाविक अभिलाषा 'है' (अस्ति) की ही होती है । अस्ति-तत्व ही ईश्वर-भक्तों का ईश्वर, जिज्ञासुओं का ज्ञान, तत्व-वेत्ताओं का निज-स्वरूप तथा प्रेमियों का प्रेमपात्र है; क्योंकि 'सच्चाई में कल्पना-भेद भले ही हो, वस्तु-भेद नहीं हो सकता ।' 

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 12) ।