Friday 1 February 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 01 February 2013  
(माघ कृष्ण पन्चमी, वि.सं.-२०६९, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता

        केवल प्रमाद के कारण बेचारा प्राणी स्वतन्त्रता से निराश हो जाता है, जो वास्तव में नहीं होना चाहिए, क्योंकि परतन्त्रतायुक्त जीवन मानवता के विरुद्ध पशुता है। वास्तव में तो परतन्त्रता आदि सभी दोष अपने बनाए हुए खिलौने हैं, जिन्हें जब चाहें स्वयं तोड़ सकते हैं । पूर्ण स्वतन्त्र होने के लिए प्राणी स्वेच्छापूर्वक सर्वदा स्वतन्त्र है, क्योंकि परतन्त्रता को सबलता अपनी ही दी हुई है । यदि हम परतन्त्रता स्वीकार न करें, तो बेचारी परतन्त्रता किसी भी प्रकार जीवित नहीं रह सकती - यह सिद्धान्त नितान्त सत्य है अतः हमको सत्य का आदर करना चाहिए ।

        जब हम अपने को किसी न किसी सीमित भाव में बाँध लेते हैं, तब हमारे उस सीमित अहंभाव से अनेक प्रकार की अस्वाभाविक इच्छाएँ उत्पन्न होने लगती हैं और फिर हम उन्हीं इच्छाओं के अनुरूप अपने को वस्तुओं में, अवस्थाओं में एवं परिस्थितियों में बाँध लेते हैं । बस, उसी काल से हमारे हृदय में दीनता तथा अभिमान की अग्नि जलने लगती है। यदि हम शरीर तथा वस्तु आदि में अपने को न बाँध लेते, तो हमको अपने लिए किसी भी वस्तु की आवश्यकता न होती। वस्तुओं के दासत्व ने हमको नित्य-जीवन से विमुख कर अनित्य जीवन में बाँध दिया है ।

        जिस प्रकार परतन्त्रता वास्तव में स्वतन्त्रता की अभिलाषा है, उसी प्रकार अनित्य-जीवन नित्य-जीवन की अभिलाषा है और कुछ नहीं । गहराई से देखिए कि निर्धनता क्या है ? धन की अभिलाषा । वैसे ही अस्वाभाविक अनित्य-जीवन क्या है? स्वाभाविक नित्य-जीवन की अभिलाषा । यदि हम अपने स्वीकार किये हुए सीमित अहंभाव का अन्त कर डालें, तो हम वर्तमान में ही नित्य-जीवन का अनुभव सुगमतापूर्वक कर सकते हैं। भविष्य की आशा तो हमको केवल तब करनी पड़ती है, जब हम अस्वाभाविक परतन्त्रतायुक्त जीवन का भोग करते हैं अथवा यों कहो कि भविष्य की आशा तब करनी पड़ती है, जब हम संगठन से उत्पन्न होनेवाले परिवर्तनशील रस का पान करते हैं। जो नित्य आनन्द केवल 'त्याग' से प्राप्त होता है, उसके लिए भविष्य की आशा करना एकमात्र प्रमाद के अतिरिक्त और कुछ अर्थ नहीं रखता ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 13-14) ।