Saturday, 2 February 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 02 February 2013  
(माघ कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०६९, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता

        हम पूर्ण स्वतन्त्र होने के लिए परतन्त्र नहीं हैं। हमारे निज-स्वरूप की, जो सर्वकाल में है, यह महिमा है कि बेचारी परतन्त्रता को भी सानिध्यमात्र से सत्ता मिल जाती है । यह नियम है कि जिसकी सत्ता भासित होने लगती, उसमें प्रियता उत्पन्न हो जाती है और प्रियता आते ही अस्वाभाविक परिवर्तनशील जीवन में आसक्ति हो जाती है ।  बस, यही परतन्त्रता की सत्ता है और कुछ नहीं । 'यदि हम स्वयं अपने उपर अपनी कृपा करें, तो निर्जीव परतन्त्रता 'स्वतन्त्रता' में विलीन हो सकती है ।'

        हम सबसे बड़ी भूल यही करते हैं कि जो हमसे भिन्न हैं, उनकी कृपा की प्रतीक्षा करते रहते हैं । भला, जिन बेचारों का जीवन केवल हमारी स्वीकृति के आधार पर जीवित है, उनमें हमारे उपर कृपा करने की शक्ति कहाँ ? हम अपनी की हुई स्वीकृति को स्वयं स्वतन्त्रतापूर्वक मिटा सकते हैं । सभी परिवर्तनशील क्रियाओं का जन्म हमारी अस्वाभाविक काल्पनिक स्वीकृति के आधार पर होता है । अतः मानी हुई अहंता अर्थात् सीमित अहंभाव का अन्त होते ही, सभी चेष्टाओं का अन्त हो जाता है । चेष्टाओं का अन्त होने पर हम अपने में ही अपने प्रेमपात्र का अनुभव कर परम स्वतन्त्र हो जाते हैं। क्योंकि हमारी सभी चेष्टाएँ उसी समय तक जीवित रहती हैं, जबतक हम अपनी पूर्ति के लिए अपने से भिन्न शरीर आदि वस्तुओं की आशा करते हैं और वस्तुओं की आशा तबतक करते हैं, जबतक स्वाभाविक अभिलाषा अस्वाभाविक इच्छाओं को खा नहीं लेती ।

        स्वाभाविक अभिलाषा पूर्णरूप से जाग्रत हो जाने पर अस्वाभाविक इच्छाएँ अर्थात् विषय-वासनाएँ भस्मीभूत हो जाती हैं। वस्तु आदि की वासनाएँ निवृत होने पर इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । क्योंकि इन्द्रिय, मन आदि यंत्रों की आवश्यकता तभी तक रहती है, जबतक हम शरीर आदि वस्तुओं का दासत्व करते रहते हैं । अर्थात् मन, इन्द्रिय आदि वस्तुओं का संगठन हमको हमारे प्रेमपात्र का अनुभव नहीं होने देता, प्रत्युत संसार के दासत्व की ओर ही ले जाता है ।  

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 15) ।