Sunday, 03 February 2013
(माघ कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०६९, रविवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता
जब हम मन, इन्द्रिय आदि के संगठन से अपने को असंग कर लेते हैं, तब वे बेचारे अचेष्ट होकर हमारे में ही सम हो जाते हैं और हम अपने परम स्वतन्त्र नित्य-जीवन में विलीन हो, अभेदता का अनुभव करते हैं । यह नियम है कि सर्व वासनाओं का अन्त होने पर सर्व चेष्टाओं का, जो कर्ता-भोक्ता-भाव से उत्पन्न होती हैं, अन्त हो जाता है । सर्व चेष्टाओं का अन्त होने पर सर्व वासनाएँ एक ही स्वाभाविक अभिलाषा में विलीन हो जाती हैं । अभिलाषा की पूर्णता, अर्थात् उसकी पूर्ण जागृति, स्वयं अभिलाषी को उसके लक्ष्य से अभिन्न कर देती है । अतः हम चेष्टाओं के अन्त होते ही प्रेमपात्र का अनुभव कर लेते हैं। जिस प्रकार सूर्य के उदय होते ही अन्धकार समूल नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार स्वाभाविक अभिलाषा की पूर्ण जागृति होते ही परतन्त्रता आदि सर्व दोष निर्मूल हो जाते हैं ।
यद्यपि प्रवृतियों के बदलने से भी अहंता बदल जाती है, परन्तु अहंता के बदलने से प्रवृति समूल बदल जाती है; क्योंकि प्रवृति-परिवर्तन द्वारा अहंता बदलना, अहंता-परिवर्तन द्वारा प्रवृति बदलने की अपेक्षा अधिक कठिन है । प्रवृतियों के निरोध से तो स्वीकृत किया हुआ सीमित अहंभाव स्वाभाविक परम पवित्र स्वतन्त्र निर्विकार नित्य-तत्व में वैसे ही स्थित हो जाता है, जैसे कि बीज अपना स्वभाव जीवित रखते हुए भी गलकर पृथ्वी, जल आदि अभी तत्वों में स्थित हो जाता है । अपने में स्थित हुए बीज को पृथ्वी, जल आदि सभी तत्व उसके स्वभावानुसार सर्वदा सत्ता देकर विकसित करते रहते हैं, उसी प्रकार निर्विकार नित्य-तत्व अपने में स्थित सीमित अहंभाव को सत्ता देकर सर्वदा उसके अस्वाभाविक अनित्य जीवन को उसी के स्वभावानुसार प्रकाशित करता रहता है ।
यदि मानी हुई अहंता को स्वीकार न किया जाय, तो सीमित अहंभाव निर्विकार नित्य-तत्व से उसी प्रकार अभिन्न हो जाता है, जिस प्रकार अग्नि से दग्ध बीज अपने स्वभाव को मिटाकर पृथ्वी इत्यादि तत्वों से अभिन्न हो जाता है । 'अतः हमको लेशमात्र भी नित्य-जीवन से निराश नहीं होना चाहिए। नित्य-जीवन तो हमारी निज की सम्पत्ति है, क्योंकि वही हमारे काम आती है ।'
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 16-17) ।