Wednesday 6 February 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 06 February 2013  
(माघ कृष्ण षट्तिला एकादशी, वि.सं.-२०६९, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)

हमारी आवश्यकता

        गहराई से देखिए, अस्वाभाविक जीवन की ऐसी कोई भी अवस्था नहीं है, जिसके बिना हम नहीं रह सकते अर्थात् हम अनित्य जीवन की सभी अवस्थाओं के बिना रह सकते हैं । हम उसी का त्याग करते हैं, जो हमारी निज की वस्तु नहीं है ।

        जब हम अपनी अनुभूति का निरादर करते हैं, तब निजानन्द से विमुख हो, जाग्रत-स्वप्न-सुषुप्ति आदि अवस्थाओं में फँस जाते हैं । इन सभी अवस्थाओं के बिना हम रह सकते हैं, क्योंकि प्रत्येक अवस्था के अभाव तथा परिवर्तन का हम सर्वदा अनुभव करते हैं । यदि ऐसा न होता, तो न तो हम जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि अवस्थाओं की गणना कर सकते और न अवस्थाओं के परिवर्तन को ही जान पाते । हम गणना उसी की कर सकते हैं, जो हमसे भिन्न हो अर्थात् हम जिसके साक्षी हों। अतः जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि सभी अवस्थाओं के बिना हम सर्वदा स्वतन्त्रतापूर्वक रह सकते हैं । यह अखण्ड नियम है कि भिन्नता से एकता होना सर्वदा असम्भव है । अतः हमको अपने लिए जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति आदि किसी भी अवस्था की लेशमात्र भी आवश्यकता नहीं है । अवस्थाओं से तो केवल हमारी मानी हुई एकता है । परन्तु यह कैसी विचित्र बात है कि ये अवस्थाएँ, जिनकी सत्ता केवल हमारी स्वीकृति के आधार पर जीवित है, हमारी सत्ता से ही सत्ता पाकर हमारे उपर ही शासन करने लगती हैं ! मानी हुई एकता अस्वीकृति होते ही मिट जाती है। अवस्थाओं से सम्बन्ध-विच्छेद होते ही हम सुगमतापूर्वक नित्य-जीवन का अनुभव कर कृतकृत्य हो जाते हैं। 

        अतः निजानन्द के लिए अपनी अनुभूति का आदर हमारे लिए परम अनिवार्य है । ज्यों-ज्यों हम अपनी अनुभूति का आदर करते जाएँगे, त्यों-त्यों अनुभूति स्वयं बढ़ती जाएगी। अनुभूति का आदर करने से मस्तिष्क और हृदय की एकता हो जाएगी ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 17-18) ।