Monday, 11 February 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 11 February 2013  
(माघ शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०६९, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता

        जब बुद्धि और हृदय एक हो जाते हैं, तब सारा जीवन ही साधन हो जाता है; साधन जीवन का अंगमात्र नहीं रहता। जीवन साधन होने पर क्रिया-भेद होने पर भी लक्ष्य-भेद नहीं होता और न प्रीतिभेद होता है । जैसे, शरीर के सभी अंगों के साथ क्रिया-भेद होने पर भी प्रीति समान ही होती है । शरीर के सभी अंग एक काल में एक ही संकल्प के अनुसार क्रिया करते हैं, अर्थात् दृढ़-संकल्प होने पर इन्द्रियाँ आदि कोई भी अंग संकल्प का विरोध नहीं करते, बल्कि सब मिलकर कर्ता के अनुरूप ही कार्य करते हैं । वैसे ही जब हमारा जीवन ही साधन हो जाएगा तब हमारी सारी चेष्टाएँ हमारे प्रेमास्पद निज-स्वरूप के लिए ही होंगी । यद्यपि कर्ता एक है और उसका लक्ष्य भी एक है, परन्तु जीवन साधन न होने के कारण हमारी सभी क्रियाएँ एक ही लक्ष्य में विलीन नहीं हो पातीं अर्थात् भिन्न-भिन्न अर्थ रखती हैं, जिससे हम अनेक वासनाओं में बँधकर भटकते रहते हैं ।

        हम आरम्भ में ही कह चुके हैं कि हमको अपने से भिन्न की आवश्यकता किसी प्रकार नहीं हो सकती । परन्तु हमने अपने को शरीर से बाँध लिया है और वह शरीर विश्व की वस्तु है; अतः उसे प्रसन्नतापूर्वक विश्व को दे देना चाहिए । हम जब विश्व की वस्तु को किसी काल्पनिक समाज, राष्ट्र एवं सम्प्रदाय को दे देते हैं, तब विश्व में घोर अशान्ति उत्पन्न हो जाती है। इस अशान्ति का मूल कारण यही है कि जो विश्व की वस्तु है, उसे हम विश्व को नहीं देते । हम स्वयं बन्धन में पड़कर विश्व के प्राणियों को भी बन्धन में डालते हैं । यदि हमारे में किसी प्रकार का दासत्व न होता, तो हम किसी को भी परतन्त्र करने का प्रयत्न न करते । जो स्वयं स्वतन्त्र है, वह किसी को परतन्त्र नहीं करता ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 18) ।