Friday 15 February 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 15 February 2013  
(माघ शुक्ल वसन्त पन्चमी, सरस्वतीपूजन महोत्सव, वि.सं.-२०६९, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता

        हम कोई भी बुराई दूसरों के साथ ऐसी नहीं कर सकते, जो प्रथम अपने साथ नहीं कर लेते । अर्थात् कर्ता बुरा होकर बुराई करता है, क्योंकि क्रिया कर्ता का कार्य है । यद्यपि दोष-युक्त प्रवृति से भी कर्ता में दोष आ जाता है, परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से तो यही ज्ञात होता है कि दोष-युक्त अहंता होने पर दोष-युक्त प्रवृति होती है अर्थात् प्रवृति से पूर्व अहंता बदल जाती है । अतः दोष-युक्त व्यक्ति ही विश्व में दोष-युक्त प्रवृति उत्पन्न करते रहते हैं  यद्यपि हमको अहंभाव अत्यंत प्रिय है, परन्तु दोष-युक्त प्रवृति की आसक्ति के कारण हम परम प्रिय अहंभाव को सदोष बना देते हैं अर्थात् हम अपने आप ही अपने पर अत्याचार करते हैं।

        हमको स्वयं अपनी दृष्टि से अपने को देखना चाहिए कि हम स्वयं दुखी होकर दूसरों को दुःख देते हैं । यह नियम है कि जो हम देते हैं, वह कई गुना अधिक होकर फिर प्रतिक्रिया रूप में हमारे पास आ जाता है । अतः ज्यों-ज्यों हम दूसरों को दुःख देते रहते हैं, त्यों-त्यों स्वयं अधिक दुखी होते रहते हैं और ज्यों-ज्यों दुखी होते रहते हैं, त्यों-त्यों समाज को पुनः दुःख देते रहते हैं। जिस प्रकार बीज और वृक्ष का चक्र चलता ही रहता है, उसी प्रकार हमारे दुःख का चक्र भी चलता ही रहता है । हम प्रमादवश सुखासक्ति के कारण दूसरों को दुःख देते हैं । भला, जिस सुख का जन्म किसी के दुःख से होगा, वह अन्त में हमको दुःख के अतिरिक्त और क्या दे सकता है ! क्योंकि यह नियम है कि जो वस्तु जिससे उत्पन्न होती है, अंत में उसमें ही विलीन हो जाती है । अतः किसी के दुःख से उत्पन्न होनेवाला सुख अन्त में दुःख में ही विलीन होगा । इसी कारण विचारशील उस सुख का भोग नहीं करते, जो किसी का दुःख हो, प्रत्युत् उस दुःख को प्रसन्नतापूर्वक अपना लेते हैं, जो किसी का सुख हो ।   

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 18-19) ।