Monday 18 February 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 18 February 2013  
(माघ शुक्ल अष्टमी, वि.सं.-२०६९, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता

        हमारे दुखी होने से केवल हमीं को दुःख नहीं होता, बल्कि हम विश्व में भी दुःख उत्पन्न करते रहते हैं। यदि हम दुखी न रहेंगे, तो हमारे जीवन से किसी को भी दुःख न होगा । अतः हमको अपने दुःख का अन्त करना परम अनिवार्य हो जाता है । विचार से उत्पन्न होने वाला दुःख उन्नति का कारण होता है, क्योंकि वह पूर्ण दुःख होता है और सुख के लालच से उत्पन्न होने वाला दुःख अवनति का कारण होता है, क्योंकि वह अधुरा दुःख होता है । पूर्ण दुःख यथार्थ ज्ञान उत्पन्न करने में समर्थ होता है । पूर्ण दुखी किसी दुसरे को दुःख नहीं देता । इन्द्रिय-लोलुप, सुखासक्त प्राणी ही दूसरों को दुःख देता है । 

        जब हम अपने को अपने प्रेमपात्र को और शरीर विश्व को दे डालेंगे, तो बस, दुःख का अन्त हो जाएगा । विश्व को शरीर की आवश्यकता है, क्योंकि शरीर विश्व की वस्तु है । प्रेमपात्र हमारी प्रतीक्षा करते हैं, क्योंकि हम प्रेमपात्र के हैं । यदि वे हमारी प्रतीक्षा न करते, तो हमको आनन्दघन प्रेमपात्र की स्वाभाविक अभिलाषा न होती । यह नियम है कि हमको स्वतः उसी का स्मरण होता है, जो हमको प्यार करता है । अतः हमारे प्रेमपात्र हमको अपनाने के लिए हमारी प्रतीक्षा करते हैं । यद्यपि वे हमारे बिना भी सब प्रकार से पूर्ण हैं, किन्तु हमें अपनाने के लिए सदा हमारी प्रतीक्षा करते रहना उनकी अहैतुकी कृपामात्र है ।

        भला, क्या हमको यह शोभा देता है कि हम अपने प्रेमपात्र की ओर नहीं देखते, जो हमारी निरन्तर प्रतीक्षा कर रहे हैं ? हम इसीलिए दुखी हैं कि हमारे प्रेमपात्र हमारे बिना दुखी हैं। उनको हमारे बिना और हमको उनके बिना चैन मिल ही नहीं सकता । विश्व की वस्तु जब हम विश्व को दे डालेंगे, तो विश्व भी हमसे प्रसन्न हो जाएगा । दोनों के प्रसन्न होने से हम भी प्रसन्न रहेंगे अर्थात् हम सर्वदा के लिए निश्चिन्त, निर्भय तथा आनन्दित हो जाएँगे । 

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 19-20) ।