Saturday, 02 March 2013
(फाल्गुन कृष्ण पन्चमी, वि.सं.-२०६९, शनिवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता
हमको जो कुछ करना चाहिए, वह हम कर सकते हैं। यदि न कर सकते होते, तो करने की रूचि न उत्पन्न होती । करने की रूचि स्वयं करने की शक्ति प्रकाशित करती है । यह नियम है कि जबतक कारण रहता है, तबतक कार्य अवश्य रहता है । आवश्यकता कारण है और कर्तव्यपालन कार्य है । आवश्यकता के होते हुए यदि हम यह कहते हैं कि हम कुछ नहीं कर सकते, तो हम स्वयं अपनी दृष्टि में अपने को धोखा देते हैं ।
विश्व हमसे वही आशा करता है और ईश्वर वही आज्ञा देता है, जो हम कर सकते हैं । जो हम नहीं कर सकते, उसके लिए न तो विश्व हमसे आशा कर सकता है और न ईश्वर की ही आज्ञा हो सकती है । अतः हमको अपने में से यह बिल्कुल निकाल देना चाहिए कि हम कुछ नहीं कर सकते । हम जो कुछ कर सकते हैं, उससे ही हमारा अभीष्ट प्राप्त हो सकता है ।
यह निर्विवाद सत्य है कि जो हम कर सकते हैं, उसे न करना, इसके सिवाय अकर्तव्य और कुछ नहीं है। क्योंकि जब हम वह नहीं करते, जो करना चाहिए, तब उसके विपरीत करते हैं । कर्तव्य से विपरीत करना ही अकर्तव्य है। आवश्यकता होते हुए हम कुछ न कुछ अवश्य करते रहेंगे । हाँ, यह अवश्य है कि आवश्यकता शेष न रहने पर करने की शक्ति नहीं रहती, क्योंकि क्रिया भाव में और भाव लक्ष्य में विलीन हो जाता है । करना साधन है, साध्य नहीं । साध्य मिलने पर साधन शेष नहीं रहता, क्योंकि फिर साधन साध्य से अभिन्न हो जाता है ।
अतः हमको जो कुछ करना चाहिए, उसकी शक्ति तथा ज्ञान हममें विद्यमान है । हमको अपने में से ही अपनी छिपी हुई शक्ति को विकसित करना है । वह हम तब कर सकते हैं, जब अपनी योग्यता अनुसार अपना अध्ययन कर लें । जबतक हम अपना अध्ययन नहीं करेंगे, तबतक शास्त्रों का अध्ययन केवल हमारी बुद्धि का व्यायाम होगा और कुछ नहीं । जिस प्रकार रोग का यथार्थ निदान होने पर ही उचित औषधि निर्धारित की जा सकती है, उसी प्रकार शास्त्र, आचार्य आदि हमारे अनुकूल तब हो सकते हैं, जब हम अपना यथार्थ अध्ययन कर लें ।
- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 20-21) ।