Sunday, 3 March 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 03 March 2013  
(फाल्गुन कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०६९, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)

हमारी आवश्यकता

        अपना अध्ययन करने के लिए सबसे प्रथम हमको मानी हुई सत्ता को अस्वीकार करना होगा अथवा माने हुए भाव के अनुरूप स्वधर्म-निष्ठा करनी होगी । मानी हुई सत्ताओं को अस्वीकार करने से अनित्य जीवन निर्जीव हो जाएगा और माने हुए भाव के अनुरूप जीवन होने पर मानी हुई सत्ता से असंगता तथा विरक्ति आ जाएगी अर्थात् मानी हुई सत्ताओं को अस्वीकार करने की शक्ति आ जाएगी; क्योंकि भाव का जीवन क्रिया के जीवन से उपर उठा देता है और भाव का जीवन पूर्ण होने पर ज्ञान का जीवन आरम्भ हो जाता है । क्रिया का जीवन ही पशु-जीवन है, भाव का जीवन ही मानव-जीवन है और ज्ञान का जीवन ही ऋषि-जीवन है ।

        जब हम मानी हुई सत्ताओं को अस्वीकार नहीं कर सकते, तब हमको माने हुए भाव के अनुरूप जीवन धारण करना अनिवार्य हो जाता है, जिससे मानी हुई सत्ताओं को अस्वीकार करने की शक्ति आ जाती है । मानी हुई सत्ताएँ सभी सीमित तथा अनित्य होती हैं । हमारी स्वाभाविक अभिलाषा नित्य जीवन की है । अतः नित्य जीवन के लिए अनित्य जीवन का अन्त करना परम आवश्यक हो जाता है । जिस प्रकार सूर्य के उदय होते ही अन्धकार शेष नहीं रहता अथवा यों कहो कि प्रकाश हो जाता है, उसी प्रकार अनित्य जीवन का अन्त होते ही नित्य जीवन का अनुभव हो जाता है । नित्य जीवन से मानी हुई दूरी और अनित्य जीवन से मानी हुई एकता है । यदि अनित्य जीवन से मानी हुई एकता न होती, तो उससे अरुचि न होती और नित्य जीवन से जातीय एकता और मानी हुई दूरी यदि न होती, तो उससे नित्य-निरन्तर रूचि न होती; क्योंकि नित्यता सर्वदा सभी को प्रिय है । रूचि तथा अरुचि किसी न किसी प्रकार की एकता और किसी न किसी प्रकार की भिन्नता होने पर ही होती है । 

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 21-22) ।