Thursday 11 April 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 11 April 2013  
(चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, हिन्दी नववर्ष, नवरात्रारम्भ, वि.सं.-2070, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता

         गहराई से देखिये, अस्वभाविक अनित्य जीवन केवल दो प्रकार की - भोग और अमरत्व की इच्छाओं का समूह है। अनित्य जीवन परिवर्तनशील विषयों की ओर ले जाता है, इसलिए उस जीवन का नाम अनित्य जीवन है । बेचारा अनित्य जीवन विषयों की ओर ले तो जाता है, परन्तु विषयों को प्राप्त नहीं करा पाता, क्योंकि विषयों में प्रवृत होने पर शक्तिहीनता तो होती है, प्राप्त कुछ नहीं होता । हमको शक्तिहीन देखकर विषय हमारा स्वयं त्याग कर देते हैं । हम आसक्तिवश विषयों के तिरस्कार-युक्त व्यवहार को सहन करते रहते हैं ।

        हमारा तिरस्कार वही करता है जो हमारा नहीं है । हमारे तिरस्कार को देख, हमारा प्रेमपात्र, निवृति द्वारा हमें अपना लेता है । उसके अपनाते ही हमको पुनः शक्ति मिल जाती है। हम विषयों के दासत्व के कारण बार-बार विषयों में प्रवृत होते रहते हैं और ठुकराए भी जाते हैं । हमने अपना मूल्य कम कर दिया है और अपने प्रेमपात्र-नित्यजीवन का निरादर किया है, क्योंकि उसके अपना लेने पर भी विषयों की और दौड़ते हैं । इसी महापाप के कारण अपने को स्वयं अपनी द्रष्टि में निन्दनीय पाते हैं । यह बड़े दुःख की बात है ।

        नित्य-जीवन अनित्य जीवन पर शासन नहीं करता, प्रत्युत प्रेम करता है । शासन वह करता है, जो सीमित होता है । नित्य-जीवन असीम है अथवा यों कहो कि शासन वह करता है, जिसकी सत्ता किसी संगठन से उत्पन्न होती है । जो अपने-आप अपनी महिमा में नित्य स्थित है, वह सर्वदा स्वतन्त्र है, पूर्ण है और असीम है । वह किसी पर शासन नहीं करता; प्रेम करता है । यदि नित्य-जीवन प्रेम न करता तो स्वयं निवृति द्वारा अपनाता नहीं और यदि शासन करता, तो हमको हमारी रूचि के अनुसार शक्ति देकर विषयों की ओर न जाने देता ।

        जब हम अपनी दृष्टि से प्रेमपात्र के प्रेम को और विषयों की ओर से होनेवाले तिरस्कार को देख लेते हैं, तब हमको विषयों से अरुचि और प्रेमपात्र की रूचि हो जाती है । बस, उसी काल में प्रेमपात्र हमको अपने से अभिन्न कर लेते हैं ।

- (शेष आगेके ब्लाग में) 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से, (Page No. 22-23) ।