Friday 11 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 11 January 2013  
(पौष अमावस्या, वि.सं.-२०६९, शुक्रवार)

(गत ब्लाग से आगेका)
अशुद्धि क्या है ?

         प्राकृतिक नियम के अनुसार चित्त स्वभाव से ही शुद्धि की और गतिशील होता है । इसी कारण चित्त में चंचलता प्रतीत होती है । जब उसे अपना अभीष्ट रस, प्रसन्नता तथा जीवन मिल जाता है, तब वह सदा के लिए शुद्ध, शान्त एवं स्वस्थ हो जाता है । इस दृष्टि से चित्त हमारा हितैषी है, विरोधी नहीं । उसकी निन्दा करना अपने प्रति घोर अन्याय है। 

         चित्त-शुद्धि की जिज्ञासा तथा लालसा उत्तरोत्तर सबल तथा स्थायी रहनी चाहिए । उससे कभी निराश नहीं होना चाहिए; अपितु चित्त-शुद्धि के लिए नित नव उत्कंठा तथा उत्साह बढ़ता रहना चाहिए । यह नियम है कि उत्साह तथा उत्कंठा में एक अपूर्व रस है और रस चित्त को स्वभाव से ही प्रिय है । ज्यों-ज्यों रस की वृद्धि होती जाती है, त्यों-त्यों चित्त का मनोराज्य गलता जाता है, जिसके गलते ही चिरविश्रान्ति स्वतः आ जाती है, जो सभी को अभिष्ट है । 

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'चित्त-शुद्धि भाग-1' पुस्तक से, (Page No. 15-16) ।