Thursday 10 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 10 January 2013  
(पौष कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०६९, गुरुवार)

(गत ब्लाग से आगेका)
अशुद्धि क्या है ?

        संकल्प-पूर्ति के सुख की दासता और संकल्प-अपूर्ति का भय मिट जाने पर संकल्प उत्पत्ति-पूर्ति के जीवन से तद्रूपता नहीं रहती है। तद्रूपता के मिटते ही चित्त स्वतः शुद्ध होने लगता है । पर चित्त इतनी गहरी खाई है कि उसके शुद्ध, शान्त तथा स्वस्थ होते समय भुक्त-अभुक्त संकल्पों के प्रभाव से प्रेरित होकर संकल्पों का प्रवाह चलने लगता है । उसे देखकर साधक भयभीत हो जाता है और स्वयं अपने आप अपनी तथा चित्त की निन्दा करने लगता है ।

        यद्यपि चित्त निन्दनीय नहीं है, उसमें जो भुक्त-अभुक्त संकल्पों का प्रवाह अंकित हो गया है वही त्याज्य है, जो चित्त के शुद्ध होते समय मिटने के लिए स्वयं प्रकट होता है । पर साधक भयभीत होकर उसे दबाने का प्रयास करता है अथवा सुखद मनोराज्य का मिथ्या रस लेने लगता है । उसका परिणाम यह होता है कि वह प्रभाव स्थिर हो जाता है, मिट नहीं पाता और साधक चित्त-शुद्धि से निराश होने लगता है । 

        अनेक प्रकार की युक्तियों से, प्रमाणों से इस धारणा को पुष्ट कर लेता है कि भला हमारा चित्त कैसे शुद्ध हो सकता है, जो स्वभाव से ही चंचल है । पर ऐसी बात नहीं है कि चित्त शुद्ध नहीं हो सकता । 

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'चित्त-शुद्धि भाग-1' पुस्तक से, (Page No. 15) ।