Wednesday 9 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 9 January 2013  
(पौष कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०६९, बुधवार)

(गत ब्लाग से आगेका)
अशुद्धि क्या है ?

संकल्पों की उत्पत्ति-पूर्ति के जीवन में सभी किसी न किसी प्रकार का अभाव अनुभव करते हैं। यही समस्या इस जीवन से अतीत के जीवन की ओर प्रेरित करती है । वह प्रेरणा जिसका प्रकाश है उसकी सत्ता स्वीकार करना और संकल्प उत्पत्ति-पूर्ति के जीवन को केवल राग निवृति का साधन मानना चित्त की अशुद्धि मिटाने में समर्थ है। इस दृष्टि से संकल्प उत्पत्ति-पूर्ति का जीवन अभाव रूप है और उससे अतीत का जीवन भावरूप है । 

अभाव का प्रकाशन भावरूप सत्ता से ही होता है । यदि अभाव की अनुभूति को वास्तविक जीवन की लालसा मान लिया जाय, तो अभाव की अनुभूति भी वास्तविक जीवन की ओर अग्रसर करने में हेतु बन जाती है । इस दृष्टि से संकल्प उत्पत्ति-पूर्ति का जीवन वास्तविक जीवन का साधन मात्र है और कुछ नहीं । अतः संकल्प उत्पत्ति-पूर्ति को ही जीवन स्वीकार करना चित्त को अशुद्ध रखना है । 

यद्यपि इस स्वीकृति में निज-अनुभूति का विरोध है, फिर भी उसका प्रभाव चित्त पर अंकित रहना चित्त की अशुद्धि का स्वरूप है। इस दृष्टि से चित्त की अशुद्धि जो जीवन में दिखाई देती है वह ऐसी वस्तु नहीं है कि मिट न सके । अवश्य मिट सकती है। पर कब ? जब संकल्प-पूर्ति के सुख का महत्व न रहे, अपितु उसमें पराधीनता का दर्शन हो और संकल्प-अपूर्ति का क्षोभ भयभीत न कर सके ।  

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'चित्त-शुद्धि भाग-1' पुस्तक से, (Page No. 14-15) ।