Thursday 17 January 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 17 January 2013  
(पौष शुक्ल षष्ठी, वि.सं.-२०६९, गुरुवार)

(गत ब्लाग से आगेका)
साधन में शिथिलता क्यों आती है ?

       जिस साध्य की उपलब्द्धि संकल्प-पूर्ति पर निर्भर है, उसके लिए प्रवृति अपेक्षित है और जिसके लिए प्रवृति अपेक्षित है, उसके लिए भविष्य की आशा अनिवार्य है, परन्तु जो साध्य संकल्प-निवृति तथा उत्कण्ठा एवं लालसा जाग्रति से प्राप्त होता है, उसके लिए भविष्य की आशा तथा किसी अप्राप्त वस्तु, परिस्थिति आदि की अपेक्षा नहीं है ।

        जिसके लिए किसी वस्तु, अवस्था आदि की अपेक्षा नहीं है, उसके लिए तो उत्तरोत्तर उत्कण्ठा बढ़ते रहना ही स्वभाविक है अथवा यों कहो कि उसके लिए शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि की समस्त शक्तियाँ अपने-अपने स्वभाव का त्याग करके साध्य की लालसा बन जाती हैं अर्थात् अनेक इच्छाएँ एक लालसा में, अनेक सम्बन्ध एक सम्बन्ध में और अनेक विश्वास एक विश्वास में विलीन हो जाते हैं ।

        समस्त जीवन एक विश्वास, एक सम्बन्ध और एक लालसा के रूप में ही शेष रह जाता है अर्थात् साध्य की लालसा के अतिरिक्त और कोई अपना अस्तित्व ही शेष नहीं रहता । फिर वही लालसा जिज्ञासा होकर तत्व-ज्ञान से और प्रेम होकर प्रेमास्पद से अभिन्न हो जाती है । अथवा यों कहो कि जो लालसा अनेक कामनाओं को गलाकर उदय होती है, वह दिव्य तथा चिन्मय हो जाती है, क्योंकि चिन्मय प्रेम ही प्रेमास्पद से अभिन्न हो सकता है । इस दृष्टि से प्रेमी, प्रेम और प्रेमास्पद में एकता हो जाती है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'जीवन-दर्शन भाग-1' पुस्तक से, (Page No. 135-136) ।