Monday, 31 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 31 October 2011
(कर्तिक शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रभुविश्वासी, प्रभुप्रेमी शरणागत कौन?

        वे तो सदा-सदा ही अपनी महिमा में आप स्थित हैं । अनन्त विशेषण उनके पीछे-पीछे दौड़ते हैं, फिर भी वे सदा निर्विशेष हैं । किन्तु प्रेमियों के प्रेम का पान करने के लिए वे सविशेष हैं, सगुण हैं, साकार हैं वे मिलते हैं, बिछुड़ते हैं और वे स्वयं आकुल-व्याकुल होते हैं और अपने प्रेमियों को आकुल-व्याकुल करते हैं । उनकी लीला का कोई वारापार नहीं है । महानुभाव ! हम सबके जो प्राणधन हैं, जो प्राणेश्वर हैं, निज हैं, आज उनके जन्मोत्सव पर सब कुछ कर डालो । और कुछ करना, जानना या पाना शेष न रह जाय । सोचो भाई, क्या करना है ?  

        मैं सच कहता हूँ कि अगर सम्भव हो सके, तो उनका दिया जो आश्रम है, उनकी दी हुई जो वस्तु है आज उन पर लूटा दो । इस उत्साह में लूटा दो कि आज हमारे प्यारे ने प्रेमियों को रस देने के लिए अपने को प्रकाशित किया है, अपनी महिमा अपने आप बताई है । आप सच मानिए, अगर वे स्वयं न कहते, तो गीतकार की गीता अधूरी रह जाती । उन्होंने कहा कि भैया ! तू सब पचड़े को छोड़ दे । देख, तू मेरा अत्यन्त प्रिय है, तू मेरा अत्यन्त अन्तरंग है, अपना है । अब मैं तुझे अपनी वह बात जो अब तक नहीं बताई है, तुझे बताता हूँ कि मेरे शरण में आ जा, तू मेरी शरण में आ जा ।

        शरणागति प्रभु की अन्तिम गुह्यतम करुणा है, उदारता है, महिमा है । हम सब शरणागत हैं, वे हमारे शरण्य हैं । वे सब कुछ करते हैं और मौज करते हैं हम । हम उनको 'तुम' कहकर पुकारते हैं और वे हमको 'अपना' कहते हैं । आप सोचिए, उन्होंने शरणागतों के मोह का नाश किया है, उन्हींने शरणागतों को अपनी स्मृति दी है और शरणागतों का सब कुछ किया है । वे ही सब कुछ करते हैं । हम शरणागत हैं और उनकी ही दी हुई यह शरणागति है

(शेष आगेके ब्लागमें) - संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)

Sunday, 30 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 30 October 2011
(कर्तिक शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रभुविश्वासी, प्रभुप्रेमी शरणागत कौन ?

        आज इस बात की बड़ी आवश्यकता है कि हम उनके (संसार के रचयिता के) विश्वास को अपनाएँ और उनसे कहें कि तुम स्वयं अपना विश्वास हमें दे दो, तुम अपनी महिमा में अविचल आस्था कर दो । सब कुछ है तो तुम्हारा ही । मैं भी तुम्हारा ही हूँ । तुमने मेरा निर्माण अपने में से ही किया है, और किसी में से नहीं किया। अपने में से जिसका निर्माण किया है, उसे अपनी आत्मीयता दे दो, दे दो प्यारे ! दे दो ! और कुछ नहीं चाहिए । आप ही सोचिए, और है ही क्या ?

        जिसे आप देख रहे थे, जिस पर आप सोच रहे थे, जिस पर आप मनन और निदिध्यासन कर रहे थे, वह तो सचमुच कुछ नहीं था, कुछ नहीं है । वे ही सब कुछ हैं । जब वे ही सब कुछ हैं, तो उनका विश्वास ही उनको मोहित करता है, उनकी आत्मीयता ही उनको द्रवित करती है, आनन्दित करती है । उनकी प्रियता उनको आनन्द-विभोर कर देती है । अगर माँगना है, तो यही माँगना है; पाना है, तो यही पाना है । कुछ कहना है, तो यही कहना है; कुछ सुनना है, तो यही सुनना है । और कुछ नहीं कहना है, कुछ नहीं सुनना है, कुछ नहीं माँगना है, कुछ नहीं पाना है ।

        तुम मेरे हो, तुम मेरे हो - यही कहना है, यही सुनना है, यही पाना है । और कुछ पाने, कहने और सुनने के लिए है ही नहीं । क्या आज इस महोत्सव के अवसर पर हम उस आत्मीय प्रभु को अपनाएँगे ? उन्हीं से अपने जीवन को गुंजारित करेंगे, महसूस करेंगे ? करेंगे, अवश्य करेंगे । वे ही कृपा करके अपने प्रेमियों की इस माँग को पूरा करने के लिए स्वयं किसी के गोद में लाला बनकर बैठते हैं, किसी के साथ सखा बनकर खेलते हैं, किसी के साथ प्रियतम होकर नित्य प्यार का पान करते हैं । उन्होंने अपनी ही कृपा से, अपनी ही महिमा से प्रेरित होकर अपने को प्रकाशित किया है । भला बताओ, वे अपने आपको प्रकाशित न करते, तो कौन उनकी चर्चा कर पाता, कौन उनके अस्तित्व को स्वीकार कर पाता ?  

(शेष आगेके ब्लागमें) - संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)

Saturday, 29 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 29 October 2011
(कर्तिक शुक्ल तृतीया, वि.सं.-२०६८, शनिवार)
 
(गत ब्लागसे आगेका)

प्रभुविश्वासी, प्रभुप्रेमी शरणागत कौन ?

        अनन्त की प्रियता अनन्त है, नित्य की प्रियता नित्य है, चिन्मय की प्रियता चिन्मय है । वह प्रियता जड़ नहीं है, क्रिया नहीं है, अभ्यास नहीं है । यह उनका विश्वास है । उनका विश्वास ही उनकी प्राप्ति का अन्तिम अचूक उपाय है । और कोई उपाय है ही नहीं । उनके विश्वास से ही उनको पाया है, और किसी प्रकार नहीं। महाराज ! विचारकों ने अपने को पाया है, अमरत्व को पाया है, जीवन-मुक्ति को पाया है । पर उनके विश्वासियों ने उनको पाया, उनकी प्रियता को पाया, उनकी आत्मीयता को पाया । प्रभु-विश्वास ही गुरुतत्व है, और कोई गुरुतत्व नहीं है । प्रभु-विश्वास ही प्रेमियों का गुरुतत्व है । उनका विश्वास उनका ही दिया हुआ है, यह अपना उपार्जित नहीं है ।

        उपार्जन के लिए तो उन्होंने सामर्थ्य दी है और ज्ञान का प्रकाश दिया है । उनकी दी हुई सामर्थ्य के सदुपयोग से मानव सेवक कहलाया है, उदार कहलाया है, और न जानें, संसार ने उसको क्या-क्या कहा है । किन्तु उनके विश्वास ने उनकी आत्मीयता प्रदान की है, प्रियता प्रदान की है । उनके विश्वास के बल पर अन्य सभी विश्वासों को मिटा दो, त्याग दो । उनके सम्बन्ध के लिए अन्य सभी सम्बन्धों को अपने भीतर से निकाल दो । अन्य कोई सम्बन्ध नहीं है, कोई विश्वास नहीं है । उनका विश्वास ही विश्वास है, उनका सम्बन्ध ही सम्बन्ध है । उनकी प्रियता ही जीवन है । और कोई जीवन नहीं है ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)

Friday, 28 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 28 October 2011
(कर्तिक शुक्ल द्वितीया, भैयादूज, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रभुविश्वासी, प्रभुप्रेमी शरणागत कौन ?

        उनकी (संसार के रचयिता की) प्रियता उनसे माँगो, उनकी आत्मीयता उनसे माँगो, उनकी महिमा उनसे माँगो । और कुछ माँगने योग्य है ही नहीं । क्यों नहीं है ? आप ही सोचिए कि उन्होंने अविनाशी जीवन की उपलब्धि के लिए ज्ञान का प्रकाश दिया है और विश्व-जीवन में आदर पाने के लिए उदारता का रस तथा करुणा का रस उन्होंने दिया है । अब और क्या चाहिए ? जहाँ आप रहते हैं, वहाँ आदर ही तो चाहते हैं, सम्मान ही तो चाहते हैं । हम क्या बताएँ ? उनकी दी हुई योग्यता का जब मनुष प्रकाशन करता है, तो उसमें अपना नाम लिखता है और यह चाहता है कि लोग यह समझते रहें कि इसका लेखक अमुक है । क्या सचमुच कोई लेखक, लेखक है; कोई वक्ता, वक्ता है; कोई दाता, दाता है ? वे ही लेखक हैं, वे ही वक्ता हैं, वे ही दाता हैं । किन्तु अपने को कितना छिपाते हैं ! क्या कहीं मालूम होता है कि वे बोल रहे हैं ?
 
        लोग सोचते हैं कि शरणानन्द बोल रहा है, बड़ा अच्छा बोलता है, बड़ा ठीक बोलता है, युक्तियुक्त बोलता है । लेकिन सच बात तो यह है कि भला वे वक्ता न हों और कोई वक्ता हो जाए ? वे लेखक न हों, और कोई लेखक हो जाए ? वे कलाकार न हों, और कोई कलाकार हो जाए, वे दार्शनिक न हों, और कोई दार्शनिक हो जाए ? नहीं हो सकता, नहीं हो सकता । सभी के सब-कुछ वे ही हैं ।
 
         आज हम सब उनका उत्सव मना रहे हैं, उत्साहित हो रहे हैं और उनकी करुणा, उनकी उदारता, उनकी आत्मीयता का पान कर रहे हैं । वे धन्य हैं ! वे धन्य हैं !! उनके लिए क्या कहा जाए ! वे अपनी प्रियता की भूख बढ़ाते रहें ! मैं उनके प्रेम की भूख से आकुल रहूँ, व्याकुल रहूँ, पीड़ित रहूँ - यही पुनः-पुनः माँग होती रहे, उनकी प्रियता उत्तरोत्तर बढती रहे ! उनके दिए हुए बल के द्वारा उनकी पूजा होती रहे, उनकी दी हुई आत्मीयता से उनकी स्मृति होती रहे और उत्तरोत्तर उनकी प्रियता बढ़ती रहे !

(शेष आगेके ब्लागमें) - संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)

Thursday, 27 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 27 October 2011
(कर्तिक शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)                                           

प्रभुविश्वासी, प्रभुप्रेमी शरणागत कौन ?
 
        आप जानते हैं, जब कोई प्यारा लगता है, तो प्यारे को तो रस मिलता है, अपने को भी रस मिलता है और इतना रस का प्रवाह बढ़ता है कि प्यारा लगना भी ऐसा ही लगता है कि मानो, प्यार है ही नहीं । प्रेमियों को प्रेम का भास नहीं होता । उन्हें तो प्रेम की भूख रहती है । प्रेमी क्या चाहता है ? वे जहाँ रहें, आनन्द में रहें । उनको भले ही मेरी याद न आए । ऊँचे प्रेमियों की यह दशा होती है कि वे सोचते हैं कि कहीं मेरी याद में उनको पीड़ा हो गई, तो मुझसे सही नहीं जाएगी । उनकी याद में मैं पीड़ित रहूँ, मैं दुखित रहूँ, मैं तड़पता रहूँ, तरसता रहूँ । यदि मेरी याद में उन्हें पीड़ा हुई, तो यह सुनकर मेरा हृदय फट जाएगा ।

        उनकी (संसार के रचयिता की) प्रियता से ही उनकी पूजा करनी है, उनकी महिमा से ही उनकी स्तुति करनी है और उनका होकर ही उनकी उपासना करनी है । उनकी प्रियता ही मेरा जीवन हो जाए । आज उनका जन्मोत्सव है । वे प्रसन्न हैं, वे करुणित हैं, वे बड़े उदार हैं । उनके प्रेमियों ने उन्हें इतना अपनापन दिया है कि वे प्यार को बाँट रहे हैं, बरसा रहे हैं । हम यही कहें कि हे प्यारे ! तुम्हारा प्यार, तुम्हारी आत्मीयता ही मेरा जीवन है, मेरा कोई और जीवन नहीं है, तुम्हीं मेरे अपने हो । यह तुम्हीं ने मुझे अपनी ओर से दी है ।

        आप जानते हैं, मेरे इस कठोर जीवन का मौलिक प्रश्न क्या था ? यह नहीं था कि मैं उनको देखता रहूँ, उनसे मिलता रहूँ । बड़ा छोटा-सा प्रश्न था कि मुझे वह सुख दो, जिसमें दुःख न हो; वह जीवन दो, जिसमें मृत्यु न हो; वह पूर्णता दो, जिसमें अभाव न हो । वे सब कुछ देते हैं । किन्तु मैं सच कहता हूँ कि उनकी प्रियता में जो रस है, वह रस पूर्णता में नहीं है, उस सुख में नहीं है, जो दुःख से रहित है; उस जीवन में नहीं है, जो मृत्यु से रहित है । उनकी प्रियता कितनी रसरूप है ! इस सम्बन्ध में कोई कुछ कह नहीं सका, कह नहीं पाता । जितना महसूस करता है, उतना भी नहीं कह पाता । वह केवल संकेतमात्र है ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)

Wednesday, 26 October 2011


"आप सभी को दीपावली पावन पर्व की ढ़ेरों सारी शुभकामनाएँ !"॥ हरि: शरणम्‌ !॥ ॥ हरि: शरणम्‌ !॥ ॥ हरि: शरणम्‌ !॥ Click on the player below to listen Hari Sharnam Kirtan !
Diwali cards

॥ हे मेरे नाथ! तुम प्यारे लगो, तुम प्यारे लगो! ॥

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 26 October 2011
(कर्तिक अमावस्या, शुभ दीपावली, वि.सं.-२०६८, बुधवार)
 
(गत ब्लागसे आगेका)
प्रभुविश्वासी, प्रभुप्रेमी शरणागत कौन ?

        जो साधक असमर्थता से पीड़ित होते हैं, अशान्ति से पीड़ित होते हैं, पराधीनता से पीड़ित होते हैं, उन्हें वे (संसार के रचयिता) सामर्थ्य प्रदान करते हैं, स्वाधीनता प्रदान करते हैं, अमरत्व प्रदान करते हैं । फिर वे उन्हीं में स्वयं छिपकर रहते हैं । क्यों छिपकर रहते हैं ? कोई स्वाधीन होकर, अमर होकर, शान्त होकर एक बार तो कहे कि हे प्यारे ! यह सब कुछ तुम्हारा दिया हुआ है, सबमें तुम्हीं-तुम हो, और कोई है नहीं; अब तुम प्यारे लग जाओ ! यह माँग उसकी होती है जो शुद्ध है, बुद्ध है, मुक्त है । आप कहेंगे कि शुद्ध-बुद्ध-मुक्त में भी कहीं माँग होती है ? बात तो ठीक है । पर वह काम-रहित है, कि माँग-रहित है ? विचार करो ।
 
        अरे भाई ! मुक्त किसे कहते हैं ? जो काम-रहित है । क्या अनन्त रस की माँग मुक्त में नहीं है ? यदि वह मुक्त में न होती, तो उसे मुक्ति खारी नहीं लगती । मुक्त को मुक्ति भी खारी लगती है । कब ? जब अखण्ड रस की भूख को अनन्त रस की भूख में बदला हुआ पाता है । उनका रस अपार है, अखण्ड है, अनन्त है । अनन्त रस की अभिव्यक्ति उनकी प्रियता में है, उनके बोध में नहीं। उनके बोध में अखण्ड रस है, उनकी प्रियता में अनन्त रस है । वे अपनी ही महिमा से, अपनी करुणा से, अपनी ही उदारता से प्रेरित होकर अपनी प्रियता प्रदान करें - यह भूख साधक की अन्तिम भूख है ।

        वे कैसे हैं, क्या करते हैं, कहाँ हैं - इस पचड़े में न पड़ें । केवल थोड़ी-थोड़ी देर के बाद अगर कोई हूक उठे, अगर कोई पीड़ा उठे, तो यह उठे कि तुम प्यारे लगो, तुम प्यारे लगो ! तुमने सब कुछ दिया है, सभी को दिया है, सदा देते हो; किन्तु तुम प्यारे लगो ! उनका प्यारा लगना उनके लिए रसरूप है और अपने लिए भी रसरूप है । वह रस ऐसा नहीं है कि जिसकी पूर्ति हो । बंधन की निवृति होती है, मुक्ति की पूर्ति होती है अर्थात मुक्ति प्राप्त होती है । किन्तु उनकी प्रियता से अभिव्यक्त जो उनका रस है, उसकी कभी पूर्ति नहीं होती। इसीलिए प्रेमीजन सदैव यही सोचते रहते हैं, उनकी यही पीड़ा रहती है कि हे प्यारे ! तुम प्यार देते हो, तुम सब कुछ देते हो, यह ठीक है; पर तुम मझे तो प्यारे लगो, प्यारे लगो !

(शेष आगेके ब्लागमें) - संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)

Tuesday, 25 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 25 October 2011
(कर्तिक कृष्ण त्रयोदशी, नरक चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रभुविश्वासी, प्रभुप्रेमी शरणागत कौन ?

        महानुभाव ! क्या कहा जाय ? सच बात तो यह है कि कहने और जानने की कोई बात ही नहीं है । क्या जानें, क्या कहें ? वे (संसार के रचयिता) सदैव अपने ही हैं, सब कुछ उन्हीं का है - यह मान लेना ही मानव का परम पुरुषार्थ है, अचूक और अन्तिम उपाय है । यही एक उपाय है । यह उन्होंने स्वयं दिया है । आप सच मानिए, उनके पूजन के लिए उनकी आत्मीयता से भिन्न और कुछ नहीं है । उनकी आत्मीयता से ही उनका पूजन होता है और वे प्रसन्न होते हैं, आनन्दघन होते हुए भी आनन्दित होते हैं और स्वयं सततरूप से देखते रहते हैं । किसको ? जो उनका अपना है उसको । वे उसे देखते रहते है, अपनाते रहते हैं, अपना प्रेम उड़ेलते रहते हैं, अपना सर्वस्व न्यौछावर करते रहते हैं । यह उनका सहज स्वभाव है ।

        हम सब तैयारी के साथ नहीं, सहजभाव से स्वीकार करें कि वे सदैव अपने हैं, अपने में हैं । यह स्वीकार करना कि कोई और नहीं है, कोई गैर नहीं है - यही साधक का जीवन है । जो कुछ सुनने में आया, देखने में आया, समझ में आया, सोंचने में आया - बुद्धि इसे बता कर मौन हो जाती है । तब वे अपना निज-रस प्रदान करते हैं । उनके निज-रस में क्या है ? वह कितना मधुर है, कितना सुन्दर है, कितना प्रिय है ! इसका वर्णन किसी भाषा और भाव से सम्भव नहीं है । उनका निज-स्वभाव ही प्रेमतत्व है अथवा यों कहो निज-स्वभाव तत्व-प्रेम है, उनका निज-स्वरूप तत्व-ज्ञान है और सामर्थ्य उनकी बाह्य महिमा है, अन्तर महिमा नहीं ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)

Monday, 24 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 24 October 2011
(कर्तिक कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)
    
(गत ब्लागसे आगेका)
प्रभुविश्वासी, प्रभुप्रेमी शरणागत कौन ?

        प्रिया भी वे (संसार के रचयिता), प्रीतम भी वे, दास भी वे, स्वामी भी वे, शरणागत भी वे और शरण्य भी वे । हम अपने में देखें कि ऐसे जो हम सबके अपने हैं, उनकी महिमा के अतरिक्त कोई और चीज तो नहीं रह गयी है, अथवा कहीं कोई चीज दिखाई तो नहीं देती, उनकी सत्ता से भिन्न अन्य कोई सत्ता तो नहीं मालूम होती? इस बात को हम अपने में देखें । हम देखें कि हम क्या बला हैं ? हमारा निर्माण उन्हीं ने किया है और अपने में से किया है, यह बात वे तुम्हारी वाणी से सुनना चाहते हैं । तुम्हारी वाणी से मतलब है कि यह वाणी उनकी ही दी हुई है, पर इस ढंग से दी है कि पाने वाले को यही मालूम होता है कि यह वाणी अपनी ही है । इससे अधिक आत्मीय भाव, अपनेपन का भाव और क्या हो सकता है ? उनकी दी हुई है और मालूम होती है कि अपनी है ।

        जब हम अपने को उन्हें इस भाव से देते हैं कि तेरा तुझको देता हूँ, यद्यपि यह तेरा है, लेकिन इस समय मेरा है । अब में तेरा दिया हुआ तुझको देता हूँ । तब वे स्वयं बड़े अधीर होने लगते हैं, आकुल-व्याकुल होने लगते हैं कि मैंने मानव को सब कुछ पहले ही दे दिया, अब मेरे पास क्या रह गया है कि जिससे में इसका बदला चूका सकूँ । मानव ने मेरा दिया हुआ अब मुझे दे दिया है । तब उनसे नहीं रहा जाता और वे कहने लगते हैं - में तेरा हूँ, में तेरा हूँ । जब प्रेमीजनों को उनकी यह आवाज सुनाई देती है, तो प्रेमीजन कहने लगते हैं - तुम्हीं हो, तुम्हीं हो, हर समय तुम्हीं हो, तुम्हीं मेरे जीवन हो, प्राणधन हो, प्राणेश्वर हो, प्राणवल्लभ हो, प्राणप्रिय हो, तुम्हीं हो, तुम्हीं हो । जब वे यह सुनते हैं, तब वे स्वयं कहने लगते हैं - नहीं-नहीं, मैं तेरा हूँ, मैं तेरा हूँ । यहाँ तक कहने लगते हैं कि तुने जो किया है, वह कोई नहीं कर सकता ।

        क्या दिया है तुने ? तुने अपने को मुझ पर न्यौछावर किया है, अपने आपको मेरे लिए खो दिया है । अब तो मैं तेरा ऋणी हूँ । तब प्रेमीजन कहने लगते हैं कि मेरा तो कभी कुछ था नहीं, तुम्हारा ही था और तुम्हीं थे, तुम्हीं हो, जो आकर्षण है वह तुम्हारा ही है, सब कुछ तुम्हीं से हुआ है, सब कुछ तुम्हीं में है । ऐसा जो प्रीति और प्रियतम का नित्य विहार है, यही मानव का निज-जीवन है । आप सच मानिए । उन्होंने क्या नहीं किया ? उन्होंने सभी के लिए सब कुछ किया है । वे स्वयं प्रेमियों से आशा रखते हैं कि कोई मुझे अपना कहता और अपना सर्वस्व मुझ पर उड़ेल देता ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)

Sunday, 23 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 23 October 2011
(कर्तिक कृष्ण रम्भा एकादशी, वि.सं.-२०६८, रविवार)
 
प्रभुविश्वासी, प्रभुप्रेमी शरणागत कौन ?

        प्रभु ने ज्ञान केवल इसलिये दिया है कि मानव स्वाधीन होकर, अजर-अमर होकर सदा-सदा उनको लाड़ लड़ाता रहे, रस देता रहे । उन्हीं का दिया हुआ यह प्रेम है, उससे उनकी नित्य पूजा की जाय, सतत पूजा की जाय और उन्हें रस दिया जाय । वे कैसे हैं ? इसे तो शायद वे भी नहीं जानते । किन्तु उनके सम्बन्ध में जिस किसी ने जो कुछ कहा है, वह कम है । क्यों भाई ? आप स्वयं सोचिए, सब कुछ देकर, सब कुछ लेकर जो अपने आप को न्यौछावर कर सकता है, अपने से अभिन्न कर सकता है, अपने में सदा के लिए स्थान दे सकता है, उसकी महिमा का, उसकी सामर्थ्य का, उसके सौंदर्य का क्या कोई वारापार हो सकता है ? कभी नहीं हो सकता । पर दुःख की बात तो यह है कि फिर भी क्या वे इतने अपने मालूम होते हैं, जितनी कि उनकी दी हुई वस्तु, सामर्थ्य, योग्यता अपनी मालूम होती है ?

        सच बात तो यह है कि जो उन्हें नहीं मानते हैं, उन्हें भी वे अपने समान बना लेते हैं और इतना छिपकर बनाते हैं, कि उन्हें पता भी नहीं लग पाता कि उन्होंने हमे वह बना दिया, जो वे स्वयं थे। वे क्या थे, वे कहाँ थे, वे क्या नहीं थे, वे कब नहीं थे, वे कहाँ नहीं थे ? वे सदैव थे, सदैव हैं और सभी के हैं । सभी के होते हुए भी उनकी एक महिमा है और वह यह महिमा है कि वे सभी से अतीत भी हैं, सभी के नित्य साथी भी हैं, सभी के दोस्त भी हैं, सभी के प्रिय भी हैं, सभी के मालिक भी हैं और सभी के दास भी । आप कहेंगे कि मालिक दास कैसे हो सकता है ? भाई देखो, उनके दास को जो रस मिलता है, उस रस का भी वे ही पान करते हैं और स्वयं प्रिया होकर अपने आप को भी रस देते हैं ।

        प्रिया भी वे, प्रीतम भी वे, दास भी वे, स्वामी भी वे, शरणागत भी वे और शरण्य भी वे ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)

Saturday, 22 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 22 October 2011
(कर्तिक कृष्ण दशमी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

१.        अपने से भिन्न किसी वस्तु को सुख का साधन समझना परम भूल है क्योंकि इसी भूल के होने पर किसी न किसी प्रकार की वासना तथा मलिन अहंकार अर्थात - "मैं शरीर हूँ" इस भाव की उत्पत्ति होती है जो सर्व दुखों का मूल है । - संतपत्रावली-1, (Letter No. 3)

२.       शरीर और संसार दोनों बीज और वृक्ष के समान हैं । शरीर-भाव रूपी बीज होने पर संसार-रूपी वृक्ष की उत्पत्ति होती है और संसार-रूपी वृक्ष में अनन्त शरीर-भाव रूपी बीज दिखाई देते हैं । वास्तव में दोनों एक हैं; ऐसा मेरा अनुभव है । - संतपत्रावली-1, (Letter No. 3)

३.        जो वस्तु स्वरूप से होती है उसका किसी काल में अन्त नहीं होता । परन्तु संसार का अन्त देखने में आता है । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि संसार स्वरूप से कोई वस्तु नहीं है । केवल प्रतीति मात्र है । जिस प्रकार दर्पण में मुख नहीं होते हुए भी उसमें प्रतीत होता है । - संतपत्रावली-1, (Letter No. 3)

४.      प्रसन्नचित्त रहने का स्वभाव बनाओ, जो दूसरों को प्रसन्न रखने से होगा । दूसरों की प्रसन्नता सेवा-भाव से होगी । अपने से बड़ों का सम्मान पूर्वक आज्ञापालन, और बराबर वालों से प्रेमपूर्वक मेल-मिलाप, और अपने से छोटों पर दया के भाव रखना ही सच्चा सेवा-भाव है । - संतपत्रावली-1,(Letter No. 4)

५.        दुःख का चिन्तन कभी मत करो । ऐसा करना परम भूल है। दुःख का चिन्तन दूसरों को दुःख देने से होता है । - संतपत्रावली-1, (Letter No. 4)

६.       देखिये, कोई भी मनुष्य जब तक अपने को दुखी नहीं बनाता तब तक दूसरे को दुखी नहीं कर सकता । यानि दूसरों के प्रति दुःख का भाव पैदा होने पर अपने को दुःख होता है - ऐसा मेरा अनुभव है । जिस प्रकार क्रोध आने पर पहले अपने को दुःख होता है, फिर उसको होता है जिस पर क्रोध किया जाता है । - संतपत्रावली-1, (Letter No. 4)

Friday, 21 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 21 October 2011
(कर्तिक कृष्ण नवमी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)


संतपत्रावली-1
(Letter No. 1)

१.        जो प्राणी स्वयं हार स्वीकार नहीं करता वह कभी न कभी विजय अवश्य पाता है । अतः दुर्बलताओं के होते हुए भी उनके न मिटने का दुःख तथा अच्छाई का चिन्तन लगातार करते रहना चाहिए । यह अखण्ड नियम है कि चिन्तन के अनुसार कर्ता का स्वरूप बन जाता है ।

२.        जीवन का स्वरूप क्या है, यह भली प्रकार यथार्थ जान लेने पर जीवन से अरुचि अपने आप हो जाती है ।

३.       विचार दृष्टि से देखिये कि दुःख का जन्म कब होता है ? जब प्राणी अपने से किसी विशेष व्यक्ति को सुखी देखता है, तब उसके हृदय में दुःख का जन्म होता है । क्योंकि निर्धनों को यदि कोई धनी दिखाई न दे तो निर्धनता का दुःख कुछ नहीं होता । अतः सुखी जीवन ने दुःख को जन्म दिया ।

४.        पूर्ण दुखी, अधूरा दुखी नहीं, अपनी उन्नति तथा दूसरों को सुख प्रदान करने में सर्वथा समर्थ है क्योंकि दुखियों के बिना सुखियों की सत्ता कुछ नहीं रहती । इस दृष्टि से प्यारा दुखी पूजन करने के योग्य है ।

५.        विचार दृष्टि से देखो, सुखी जीवन से दूसरों को दुःख, दुखी जीवन से दूसरों को दुःख और मृत्यु से भी दूसरों को दुःख, इस दृष्टि से जीवन का स्वरूप क्या है ? केवल दुःख । इस प्रकार जीवन का स्वरूप जान लेने पर जीवन से अरुचि अवश्य हो जाती है । अरुचि होने पर शरीर तथा संसार से असंगता होती है जो उन्नति का मूल है।  

६.         दुखी का दुःख उसी समय तक जीवित है जब तक अभागा दुखी सुख की आशा में सुखियों की ओर देखता है । सुख तथा सुखियों से असंग होते ही दुःख का सदा के लिए अन्त हो जाता है । इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है ।

Thursday, 20 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 20 October 2011
(कर्तिक कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
रोग - अभिशाप है या वरदान?

१३.         यह तो बताओ कि जन्म होते ही, मृत्यु आरम्भ नहीं हो जाती ? प्रत्येक वस्तु निरन्तर काल रूप अग्नि में जल रही है । विवेक की दृष्टि में तो केवल मृत्यु का ज्ञान और अमरत्व की माँग है । अर्थात मृत्यु से अमरत्व की ओर जाना ही प्राणी का परम पुरुषार्थ है । - संतपत्रावली-३, पत्र सं॰ ५० (Letter No. 50)

१४.         आजकल गृह अस्पताल बन गया है । तुम्हारा पवित्र शरीर भी पलंग पर पड़ा है । रोग भगवान भोग तथा शरीर की वास्तविकता का ज्ञान कराने के लिए आते हैं । अतः आये हुए रोग का अभिवादन करो और अपने को शरीर से असंग कर लो । - संतपत्रावली-३, पत्र सं॰ ५८ (Letter No. 58)

१५.         प्राप्त का अनादर और अप्राप्त का चिन्तन, अप्राप्त की रूचि और प्राप्त से अरुचि - यही मानसिक रोग है । - (साधन त्रिवेणी)

१६.         शारीरिक बल का आश्रय तोड़ने के लिए रोग आया है । कुछ रोग अभिमान बढ़ जाने पर भी होते हैं । किसी साधक को ऐसा छिपा हुआ अभिमान होता है कि जिसकी निवृति कराने के लिए रोग आता है । उनके सिखाने के अनेक ढंग हैं । भय से भी रोग हो जाते हैं । भय और अभिमान का अन्त हो जाने पर कुछ रोग स्वतः नाश हो जाते हैं । निश्चिन्तता तथा निर्भयता आने से प्राणशक्ति सबल होती है जो रोग मिटाने में समर्थ है । उसके लिए हरि-आश्रय तथा विश्राम ही अचूक उपाय है । - (पाथेय)

१७.         जो साधन-सामग्री है, उसके द्वारा साधक किसी प्रकार का सुख-सम्पादन न कर सके, इसी कारण वे रोग के स्वरूप में प्रकट होते हैं । पर साधक यह रहस्य नहीं जान पाता कि मेरे ही प्यारे रोग के वेष में आए हैं । रोग-भोग के राग का अन्त कर अपने-आप चला जाएगा ।  (पाथेय)

१८.         शरीर का पूर्ण स्वस्थ होना शरीर के स्वभाव के विपरीत है; क्योंकि जिस प्रकार दीन और रात दोनों से ही काल की सुन्दरता होती है, उसी प्रकार रोग और आरोग्य दोनों से ही वास्तविकता प्रकाशित होती है ।  - (संत समागम-१)

१९.         कभी-कभी जब प्राणी प्रमादवश विश्वनाथ की वस्तु को अपनी समझने लगता है, तब उसकी आसक्ति मिटाने के लिए 'रोग भगवान' आते हैं । शरीर विश्व की वस्तु है और विश्व विश्वनाथ का है, उसको अपना मत समझो । रोग से 'अशुभ कर्म के फल' का और तप से 'अशुभ कर्म' का अन्त होता है । (संत समागम-२) (Please read separate chapter on 'Roag' in 'Krantikari Santvani' book )

Wednesday, 19 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 19 October 2011
(कर्तिक कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
रोग - अभिशाप है या वरदान ?

६.        रोग की चिन्ता रोग से भी अधिक रोग है । अतः रोग की चिन्ता न करना परम औषधि है । रोग शरीर की वास्तविकता समझाने के लिए आता है। साधारण प्राणी शरीर की सुन्दरता में आसक्त होकर रोग से डरते हैं । वास्तव में रोग आरोग्य की अपेक्षा जीवन की अधिक आवश्यक वस्तु है । क्योंकि आरोग्य से प्रमाद तथा रोग से जागृति होती है । विचारशील को रोग से न डरकर उसका सदुपयोग करना चाहिए । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १०४ (Letter No. 104)

७.        रोग का वास्तविक हेतु केवल राग है क्योंकि राग से व्यर्थ-चिन्तन तथा असंयम होना स्वाभाविक है और व्यर्थ-चिन्तन तथा असंयम से प्राण-शक्ति का क्षीण होना अनिवार्य है । प्राण-शक्ति के दुर्बल होने पर अनेकों रोग स्वतः आ जाते हैं । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १६५ (Letter No. 165)

८.        कुछ रोग अदृश्य की मलिनता अर्थात् पूर्व कर्म के फल स्वरूप होते हैं । उनकी निवृति तप, त्याग तथा पुण्यकर्म से अथवा भोगने से ही होती है । असंयम द्वारा उत्पन्न रोग यथेष्ट पथ्य अर्थात् आहार-विहार के ठीक होने से मिट जाते हैं और वीतराग होने पर राग से उत्पन्न होनेवाले रोग भी मिट जाते हैं । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १६५ (Letter No. 165)

९.         मेरे विश्वास के अनुसार रोग राग का परिणाम है । राग का अन्त करने के लिए ही रोग उत्पन्न हुआ है । राग का अन्त कर रोग स्वतः नाश हो जाएगा और फिर बुलाने पर भी न आयेगा । - संतपत्रावली-२, पत्र सं॰ १२१ (Letter No. 121)

१०.         शरणागत साधक प्रत्येक घटना में अपने परम प्रेमास्पद, परम सुह्रदय की अनुपम लीला का दर्शन करते हैं । रोग के रूप में कोई और नहीं है, वे ही देहाभिमान गलाने के लिए आये हैं । तुम किसी भी काल में शरीर नहीं हो । सदैव सर्वत्र अपने शरणागतवत्सल प्यारे प्रभु को देखो । - संतपत्रावली-२, पत्र सं॰ १४२ (Letter No. 142)

११.         सच तो यह है कि शरीर के रहते हुए ही विचारपूर्वक शरीर से असंग होना अनिवार्य है और यही वास्तविक आरोग्य है । शरीर से किसी काल में जातीय सम्बन्ध नहीं है, केवल सेवा-कार्य के लिए काल्पनिक सम्बन्ध है । - संतपत्रावली-२, पत्र सं॰ १५९ (Letter No. 159)

१२.         जिस प्रकार मछलियों के उछलने से समुद्र को खेद नहीं होता, उसी प्रकार शरीर के बनने-बिगड़ने से विचारशील को क्षोभ नहीं होता । - संतपत्रावली-२, पत्र सं॰ ४१ (Letter No. 41) (Please read separate chapter on 'Roag' in 'Krantikari Santvani' book )

(शेष आगेके ब्लाग में)

Tuesday, 18 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 18 October 2011
(कर्तिक कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

रोग - अभिशाप है या वरदान ?

१.        रोग वास्तव में तप है, क्योंकि यदि रोग न हो तो इंद्रियों के रस से विरक्ति नहीं हो सकती, और न शरीर का यथार्थ ज्ञान होता और न सेवा करनेवालों को अवसर मिलता । सेवा करने से हृदय पवित्र होता है । देखिये, रोग भगवान की  कृपा से रोगी का तथा और लोगों का कितना लाभ हुआ ! - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १०९ (Letter No. 109)

२.        रोग शरीर का राग मिटाने के लिए, अथवा दूसरों का पुण्य-कर्म बढ़ाने के लिए आता है अथवा आरोग्य शरीरों को सुख प्रदान करने के लिए आता है । रोगावस्था में शरीर के साथ मजाक करनेका अवसर मिलता है । रोग होने पर निज-स्वरूप में निष्ठा हो जानी चाहिए, क्योंकि दुःख से असंगता स्वाभाविक होती है । जैसे टूटे मकान में सूर्य का प्रकाश और वायु अपने आप आते हैं उसी प्रकार रोग आ जाने पर वैराग्यरूपी वायु और ज्ञानरूपी प्रकाश स्वयं होता है । शरीर तथा संसार की अनुकूलता की आशा मत करो । शरीर की सत्यता तथा सुन्दरता मिट जाने पर काम का अन्त हो जाता है । काम का अन्त होते ही राम अपने आप आ जाते है । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ ९५ (Letter No. 95)

३.         प्राकृतिक विधान के अनुसार रोग वास्तव में तप है । किन्तु साधारण प्राणी उससे भयभीत होकर वास्तविक लाभ नहीं उठा पाते । रोग से शरीर की वास्तविकता का ज्ञान होता है तथा इन्द्रिय-लोलुपता मिट जाती है । भयंकर रोग छोटे-छोटे रोगों को मिटाकर आरोग्य तथा विकास प्रदान करता है । भोग-वासनाओं का अन्त कर देने पर मन में स्थिरता स्वतः आ जाती है । ज्यों-ज्यों स्थिरता स्थायी होती जाती है त्यों-त्यों रोग मिटाने की शक्ति अपने आप उत्पन्न होती जाती है । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १४७ (Letter No. 147)

४.        शारीरिक दशा कहने में नहीं आती, क्योंकि कथन उसका हो सकता है, जो एक सा रहे । इस सराय में रोग-रूपी मुसाफिर तो ठहरते ही रहते हैं । वास्तव में तो जीवन की आशा ही परम रोग और निराशा ही आरोग्यता है । देह-भाव का त्याग ही सच्ची औषधि है । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ ३३ (Letter No. 33)

५.        जब प्राणी तप नहीं करता तब उसको रोग के स्वरूप में तप करना पड़ता है । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १३२ (Letter No. 132)

(शेष आगेके ब्लाग में)

Monday, 17 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 17 October 2011
(कर्तिक कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)


प्रश्नोत्तरी

प्रश्न - आसक्ति-रहित होकर कार्य करने से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर - जिस कार्य को करने में अपना सुख निहित नहीं होता, जो सर्वहितकारी दृष्टि से किया जाता है, वह आसक्ति-रहित कार्य कहलाता है ।

प्रश्न - हम दूसरों के दोष क्यों देखते हैं ?
उत्तर - क्योंकि हम अपने दोषों को नहीं देखते ।

प्रश्न - पूजा का क्या अर्थ है ?
उत्तर - संसार को भगवान् का मानकर उन्हीं की प्रसन्नतार्थ संसार से मिली हुई वस्तुओं को संसार की सेवा में लगा देना ही पूजा है ।

प्रश्न - स्तुति, उपासना तथा प्रार्थना का क्या अर्थ है ?
उत्तर - प्रभु के अस्तित्व एवं महत्व को स्वीकार करना ही स्तुति है । प्रभु से अपनत्व का सम्बन्ध स्वीकार करना उपासना है और प्रभु-प्रेम की आवश्यकता अनुभव करना प्रार्थना है ।

प्रश्न - भगवत्प्राप्ति में विघ्न क्या है ?
उत्तर  - संसार को पसन्द करना ही सबसे बड़ा विघ्न है ।

प्रश्न - दुःख क्यों होता है ?
उत्तर - सुख-भोग से ही दुःख रूप वृक्ष उत्पन्न होता है । ऐसा कोई भी दुःख नहीं है, जिसका जन्म सुख-भोग से न हुआ हो ।

प्रश्न - दुःख और सुख का परिणाम क्या है ?
उत्तर - जो सुख किसी का दुःख बनकर मिलता है वह मिट कर कभी न कभी बहुत बड़ा दुःख हो जाता है और जो दुःख किसी का सुख बन कर मिलता है वह मिट कर कभी न कभी आनन्द प्रदान करता है । प्राणी सुख से बँधता और दुःख से छूट जाता है । सुख से दुःख और दुःख से आनन्द मिलता है ।

प्रश्न - त्याग क्या है ?
उत्तर - संसार की अनुकूलता व प्रतिकूलता पर विश्वास का अत्यन्त अभाव ही सच्चा त्याग है । क्योंकि अनुकूलता से राग और प्रतिकूलता से द्वेष का जन्म होता है । राग-द्वेष का अभाव हो जाना ही त्याग है। जिस प्रकार लड़की पिता के घर कन्या, ससुराल में बहू और पुत्रवती होने पर माता कहलाती है, उसी प्रकार त्याग ही प्रेम और प्रेम ही ज्ञान कहलाता है । त्याग होने पर आस्तिकता आ जाती है, तब त्याग प्रेम में बदल जाता है और आस्तिकता का यथार्थ अनुभव होने पर प्रेम ही ज्ञान में बदल जाता है । 

-'प्रश्नोत्तरी' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ ११-१२ (Page No. 11-12) ।

Sunday, 16 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 16 October 2011
(कर्तिक कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रश्नोत्तरी

प्रश्न - सच्चा सुख मानव को कब और कैसे मिल सकता है ?
उत्तर - वास्तव में मानव जीवन की यही सबसे बड़ी समस्या है । इसके हल करने में प्राणी सदा स्वतन्त्र है । इस प्रश्न पर गम्भीरतापूर्वक विचार न करना बड़ी भारी भूल है ।
        मानवता प्राप्त होने पर मनुष्य को वह सुख मिल जाता है जिसमें दुःख नहीं होता अर्थात् सच्चा सुख मिल जाता है ।
         सहज भाव से मूक भाषा में प्रेम-पात्र से प्रार्थना करो - "हे नाथ ! इस हृदय को अपनी प्रीति से भर दो । इस शरीर को दुखियों की सेवा में लगा दो । बुद्धि को विवेकवती बना दो । इस जगत् रूपी  वाटिका में मुझे एक सुन्दर पुष्प बना दो । मैं सदा आपकी कृपा की प्रतीक्षा में रहूँ।" ऐसी प्रार्थना करने से प्रेम-पात्र तुम्हें अपनी सेवा करने के योग्य अवश्य बना लेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है ।

प्रश्न - शारीरिक कष्टों को कैसे भूला जाय ?
उत्तर - भूला नहीं जाय, सहा जाय - चिंता एवं विलाप से रहित होकर । यह तप है । तप से शक्ति बढ़ती है । भूलने से तो जड़ता आवेगी । शरीर से तितिक्षा होनी चाहिए । तितिक्षा का अर्थ है, हर्षपूर्वक कष्ट को सहन करना ।

प्रश्न - मानव-सेवा-संघ की पहली प्रार्थना में यह कहा जाता है कि दुखियों के हृदय में त्याग का बल प्रदान करें । दुःखी बेचारा क्या त्याग करेगा ?
उत्तर - जब मनुष्य कुछ चाहता है और उसका चाहा नहीं होता है, तो वह दुःख का अनुभव करता है । इससे सिद्ध हुआ कि दुःख का कारण 'चाह' है । अतः अगर दुःखी दुःख से छुट्टी पाना चाहता है, तो उसे चाह का त्याग कर देना चाहिए । चाह का त्याग करने में मानव-मात्र स्वाधीन है ।

(शेष आगेके ब्लागमें)
-'प्रश्नोत्तरी' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ १० (Page No. 10) ।

Saturday, 15 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 15 October 2011
(कर्तिक कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रश्नोत्तरी

प्रश्न - दुःखी होना और करुणित होना एक बात है क्या?
उत्तर - नहीं, दुःख में जड़ता आती है । करुणा में चेतनता आती है, संसार से सम्बन्ध टूटता है ।

प्रश्न - शारीरिक रोग आने पर दुःख क्यों होता है ?
उत्तर - 'मैं शरीर हूँ' या 'शरीर मेरा है' - ऐसा समझने से दुःख होता है ।

प्रश्न - रोगी को दुःख न सताए, इसके लिए क्या करना चाहिए ?
उत्तर - रोग प्राकृतिक तप है, ऐसा मानकर उसे हर्षपूर्वक सहन कर लेना चाहिए ।

प्रश्न - रोगी व्यक्ति को रोगावस्था में क्या करना चाहिए ?
उत्तर - प्रत्येक अवस्था में प्रभु की अहैतुकी कृपा का अनुभव होता रहे और हृदय उनकी प्रीति से भरा रहे । शरीर के रहने, न रहने से साधकों को कोई लाभ-हानि नहीं होती । शरीर को बनाये रखने की कामना का त्याग आवश्यक है ।

प्रश्न - दुःख क्यों भोगना पड़ता है ?
उत्तर - सुख के भोगी को दुःख भोगना ही पड़ता है, ऐसा नियम ही है । सुख-भोग की रूचि के नाश के लिए रोग आता है ।

प्रश्न - बीमारी से क्यों डर लगता है ?
उत्तर - रोग शारीरिक बल का आश्रय तोड़ने के लिए आता है । उससे साधकों को डरना नहीं चाहिए, अपितु उसका सदुपयोग करना चाहिए ।

प्रश्न - रोग का सदुपयोग क्या है ?
उत्तर - दुःख का प्रभाव होना चाहिए । रोग देह की वास्तविकता का अनुभव करा देता है । शरीर से व्यक्ति को असंग करने में रोग सहायता देता है |

प्रश्न - रोग का निदान या दवा क्या है ?
उत्तर - शरीर के राग से निवृत होना ही साधक का लक्ष्य होना चाहिए। शारीरिक स्वास्थ्य का यथा-शक्ति ध्यान रख कर, शरीर की सेवा करनी चाहिए - ऐसा करने से शरीर के रोग का अन्त हो जाता है । शरीर सेवा-सामग्री है । साधक की प्रार्थना होनी चाहिए - "हे प्रभु ! यह शरीर विश्व के काम आ जाय, अहम् अभिमान-शून्य हो जाय एवं हृदय प्रेम से भर जाय ।"

(शेष आगेके ब्लागमें)
-'प्रश्नोत्तरी' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ ८-९ (Page No. 8-9) ।

Friday, 14 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 14 October 2011
(कर्तिक कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)


प्रश्नोत्तरी

प्रश्न - महाराज जी ! धर्मात्मा कौन होता है ?
उत्तर - जिसकी समाज को आवश्यकता हो जाय ।

प्रश्न - व्यर्थ-चिन्तन से कैसे बचा जाय ?
उत्तर - व्यर्थ-चिन्तन भुक्त-अभुक्त का प्रभाव है । आप उससे असहयोग करें । न उसे दबाएं, न उससे सुख लें, न भयभीत हों और न तादात्म्य रखें । तो व्यर्थ-चिन्तन प्रकट होकर नाश हो जाएगा ।

प्रश्न - स्वामी जी ! हम क्या करें ?
उत्तर - सेवा, त्याग और आस्था । सेवा का अर्थ है उदारता, सुखियों को देखकर प्रसन्न होना और दुखियों को देखकर करुणित होना । त्याग का अर्थ है कि मिला हुआ अपना नहीं है | जिससे जातीय तथा स्वरूप की एकता नहीं है, उसकी कामना का त्याग । प्राप्त में ममता नहीं और अप्राप्त की कामना नहीं । प्रभु में आस्था और विश्वास करो ।

प्रश्न - स्वामी जी ! आज तक तो मेरी आँखें बिल्कुल ठीक रही हैं । परन्तु अब 75 वर्ष के बाद रोशनी कम होने पर अभाव खटकने लगता है ।
उत्तर - आँख तो भैया पहले भी अपनी नहीं थी । परन्तु इसका पता अभी चला है । गहरी नींद में हर रोज आँखों के रहते हुए भी अन्धे हो जाते हैं । इस पर विचार ही नहीं किया ।

प्रश्न - क्या संकल्प-पूर्ति का कोई स्थान जीवन में है ?
उत्तर - दूसरों की संकल्प-पूर्ति का है, अपनी संकल्प-पूर्ति का नहीं ।

प्रश्न - भक्ति कैसे हो ?
उत्तर - संसार को अपने लिए अस्वीकार करने और केवल भगवान् को ही अपना मानने से भक्ति-भाव की अभिव्यक्ति होती है ।

प्रश्न - स्वप्न का क्या कोई अस्तित्व है ?
उत्तर - स्वप्न तो एक अवस्था है । अवस्था का कोई अस्तित्व नहीं होता ।

प्रश्न - दुःख विधान का फल है क्या ?
उत्तर - दुःख तो सुख की दासता मिटाने के लिए विधान से आता है । दुःख हमारी भूल का परिणाम है ।

(शेष आगेके ब्लागमें)
-'प्रश्नोत्तरी' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ ७-८ (Page No. 7-8) ।

Thursday, 13 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 13 October 2011
(कर्तिक कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)
 
(गत ब्लागसे आगेका)
 हम कैसे जी रहें हैं, कैसे जीना चाहिये :

        ज्ञान की अन्तिम परिणति है - निज-स्वरूप से अभिन्न हो जाना । जिसने अपने को जाना, उसने सब कुछ जान लिया । जिसने मरकर जीना सीख लिया, वह अमर हो गया । उसका लोक-परलोक सब कुछ उसी में समा गया । स्वामी रामतीर्थ ने मस्त होकर कहा था - "राम मुझ में, मैं राम में हूँ" । यह उनकी स्वानुभूति है ।

        वह आज भी जन-जीवन में गूंज रही है । युग:युगान्त तक गूंजती रहेगी । यह जीवन का सत्य है । यह अमरत्व है । इससे अभिन्न होने की कला जीवन की कला है । उससे भिन्न प्रकार का जीना जिन्दगी नहीं, मौत का ही रूपान्तर है । मानव-सेवा-संघ ने मानव-मात्र को अमरपद का जन्मजात अधिकारी माना है ।
 
         जो सत्य और शाश्वत है, उसका एक अविभाज्य पहलू है - मधुर। जो सत्य है, वह शाश्वत है, वही मधुर भी है । हम सबकी रचना इन्हीं मूलतत्वों से हुई है । इसलिये हममें जहाँ सत्य की जिज्ञासा है, वहाँ प्रियता की लालसा भी है । लेखिका को स्वयं ही अपने निजी जीवन में ऐसे दीन-हीन क्षणों का अनुभव हुआ है कि जिनमें हृदय के अंतर्तम से यही करुण-कराह उठती थी :-

        'हे मेरे रचयिता ! लम्बी नीरस और शुष्क अवधि के बदले मुझे क्षणभर का रसपूर्ण जीवन दे दो । ज्ञान के प्रकाश में प्रेम का अनन्त सागर लहराता रहे !'

        रसमय जीवन ही सत्य और शाश्वत जीवन है । यही जीवन है । इसकी उपलब्धि की कला ही जीवन की सर्वोतम कला है ।

-'पथ प्रदीप' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ ५-६ (Page No. 5-6) ।

Wednesday, 12 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 12 October 2011
(आश्विन पूर्णिमा, वि.सं.-२०६८, बुधवार)
 
(गत ब्लागसे आगेका)
हम कैसे जी रहें हैं, कैसे जीना चाहिये :

        अपने को कैसे जानें ? श्रम-रहित होकर । मैं देह नहीं हूँ, देह मेरी नहीं है, मुझे कुछ नहीं चाहिये, मुझे कुछ नहीं करना है - विवेक के प्रकाश में विवेचन के आधार पर ऐसा अनुभव किया जाय और उसी के अनुरूप निर्णय लिया जाय तो विश्राम मिलेगा । शरीरों से असंगता प्राप्त होगी । असंगता की शान्ति में जीवनी-शक्ति स्वतः अपने अविनाशी उद्गम की ओर प्रवाहित हो जाती है । अविनाशी से अविनाशी योग हो जाता है । तत्व-बोध हो जाता है । अभाव का पूर्ण अभाव हो जाता है ।

        सन्त-वाणी में मैंने सुना है कि इसे निजानन्द कहते हैं । बड़ा भारी आनन्द होता है । हम जिस स्तर पर खड़े हैं, वहाँ से उस आनन्द का अनुमान नहीं कर सकते । महर्षि रमण जी को असंगता का आनन्द प्राप्त हुआ था, तो वे कई महीने उसी मस्ती में पड़े रहे । महात्मा बुद्ध को निर्वाण का आनन्द प्राप्त हुआ था, तो वे भी बहुत दिनों तक उसी मस्ती में जंगलों में घूमते ही रहे । जन्म-जन्मान्तर का बंधा हुआ, थका हुआ, तापित, पीड़ित मानव जब विश्राम पाता है, तो उसके आनन्द का क्या कहना !

          अज्ञान का घना अंधकार यकायक जब ज्ञान के प्रकाश से सदा के लिए नष्ट होता है और साधक का सीमित अहं गल कर निज-स्वरूप में समाहित हो जाता है, तो केवल आनन्द-ही-आनन्द रह जाता है । जिसको सम्भाल न सकने पर साधक स्वयं आनन्द-स्वरूप हो जाता है।

(शेष आगेके ब्लागमें)
-'पथ प्रदीप' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ ४-५ (Page No. 4-5) ।

Tuesday, 11 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 11 October 2011
(आश्विन शरद् पूर्णिमा, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
हम कैसे जी रहें हैं, कैसे जीना चाहिये :
        हमने भूगोल और खगोल का बड़ा अध्ययन किया, परन्तु अपने को ही नहीं जाना, इसलिये निःसन्देह नहीं हो सके, क्योंकि जब हम अपने से भिन्न किसी को जानने का प्रयास करते हैं, तो हमें शरीरों का सहारा लेना पड़ता है; इन्द्रिय-दृष्टि एवं बुद्धि-दृष्टि से ही देखना पड़ता है । ये स्वयं ही सीमित हैं, अनेक प्रतिबन्धों से परिच्छिन्न किये हुये हैं । इनकी पृष्ठभूमि पक्षपातपूर्ण है । इनका निर्णय सत्य नहीं हो सकता ।

        अतः इनके आधार पर प्राप्त की हुई जानकारी निःसन्देह नहीं हो सकती । अब तक यही होता रहा है । जिन्होंने 'स्व' में प्रतिष्ठित होकर अपने को जान लिया, वे निःसन्देह हो गए । उन्होंने सारी सृष्टि का रहस्य पा लिया । परन्तु हम इन्द्रिय-दृष्टि एवं बुद्धि-दृष्टि को सत्य मानकर बार-बार धोखा खाते रहते हैं । असत्य के माध्यम से सत्य नहीं जाना जा सकता । इनके माध्यम से जो जानने में आता है, उसका उपयोग-मात्र हम कर सकते हैं । प्यास और जल दिखाई दे तो जल ले, प्यास बुझा लें । बस, इतना ही कर सकते हैं ।

        इन दृष्टियों से जो सत्य और सुन्दर भासित होता है, उसके पीछे दौड़ते रहे, परन्तु श्रम, शक्तिहीनता एवं मृत्यु के सिवा हाथ कुछ न लगा । अतः हम जानना ही चाहते हैं, तो अपने को जानें । यह सम्भव है, यही आवश्यक है । केवल यही जाना जा सकता है और यही जानना पूर्ण जानना है । इतना जान लेने के बाद फिर और कुछ जानना शेष नहीं रहता ।

(शेष आगेके ब्लागमें)
-'पथ प्रदीप' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ ३-४ (Page No. 3-4) ।

Monday, 10 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 10 October 2011
(आश्विन शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

(गत ब्लाँगसे आगेका)
हम कैसे जी रहें हैं, कैसे जीना चाहिये :

         शरीर विज्ञान और मनोविज्ञान के अनुसार स्थूल और सूक्ष्म शरीरों की रचना ही इस प्रकार की है कि उन्हें बनाये रखने के लिए समय-समय पर अनेक प्रकार के प्रेरक (Motive) उत्पन्न होते रहते हैं और उनकी पूर्ति भी अनिवार्य होती है । परन्तु यह हमारी भूल है कि हम उसी क्रम को जीवन स्वीकार कर लेते हैं । इस भूल को मिटाना है ।

        शरीरों का पोषण केवल इनकी सुरक्षा की दृष्टि से करें तो हमारा आहार-विहार अपने आप संयमित हो जायेगा । शरीर जीवन नहीं है, जीवन प्राप्ति के लिए साधन-सामग्री है । अतः इसको आवश्यक वस्तुओं के द्वारा पोषित कर इसे परिवार और समाज की सेवा में लगा दें । शरीरों की आसक्ति से रहित हो जाने पर आवश्यक वस्तुओं का अभाव नहीं रह जाता ।

        तन, धन, कुल, परिवार आदि पर से अपने ममत्व का भार हटा लेने पर सबका स्वतः प्राकृतिक विकास होता है । यह लोक को सुन्दर बनाने की उत्तम कला है । आज तन में, मन में, परिवार में और समाज में जो कुरूपता दिखाई देती है, वह हमारे ममत्व का ही दुष्परिणाम है । हम जगत के साथ रहने की कला सिखलें, तो हमारा इनका सम्पर्क सार्थक हो जाय, अर्थात् आसक्ति-रहित व्यक्तियों की सेवा पाकर जगत आनन्द से फूले-फले और जगत की सेवा करके उससे मुक्त होकर व्यक्ति सत्य एवं मधुर से मिल कर कृत्-कृत्य हो जाय ।

        उपर्युक्त रीति से सही प्रवृति के बाद सहज निवृति का नम्बर आता है । सेवा की परिणति शान्ति में होती है । इच्छाओं की चहल-पहल से मुक्त होने पर श्रम-रहित होकर हम 'स्व' में प्रतिष्ठित होते हैं । मैं क्या हूँ ? जीवन क्या है ? जगत क्या है ? आदि-आदि प्रश्नों का सही उत्तर पाकर निःसन्देह होना साधनयुक्त जीवन का फल है ।

(शेष आगेके ब्लाँग्में)
-'पथ प्रदीप' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ २-३ (Page No. 2-3) ।

Sunday, 9 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 09 October 2011
(आश्विन शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं. २०६८, रविवार)
हम कैसे जी रहे हैं, कैसे जीना चाहिये :
        अब तक हमने बहुत कुछ किया, पर करने का अन्त नहीं हुआ बहुत कुछ जाना, पर निःसन्देह नहीं हुए बहुतों को अपना माना, पर हृदय की भूख नहीं मिटी कभी वस्तुओं का अभाव, कभी पराधीनता का दुःख, कभी नीरसता की पीड़ा, कभी लोक की और कभी परलोक की चिन्ता सताती ही रहती है अतः हमें जीना नहीं आया
    
        इस दशा में यदि हम जीवन का मूल्यांकन बदल डालें तो हमें जीने की कला आ जायेगी । शरीरों (स्थूल, सूक्ष्म और कारण) का पोषण-मात्र जीवन नहीं है यह तो सृष्टि का एक स्थूल भाग है । जो कुछ सत्य और मधुर है, उसकी उपलब्धि में ही जीवन है अतः शरीरों के पोषण की क्रिया में-से अपना संवेगात्मक सम्बन्ध हटा लें प्रेरकों (Motives) की उत्पत्ति से उत्पन्न तनाव (Tension) और पूर्ति से प्राप्त आराम (Relief) के परिणाम स्वरूप भासित होने वाले सुख में से महत्व बुद्धि निकाल दें
   
        सत्य, शाश्वत और मधुर से मिलने के लिए यह पहला कदम है । यह कठिन बात नहीं है और यदि इसे कठिन मानेंगे तो दूसरा उपाय भी नहीं है जीवन चाहिये, तो इतना करना ही होगा और हम सभी कर सकते हैं हम जीते तो हैं, पर मृत्यु की राह पर अब इस ढंग से जियें कि जिन्दगी के राह पर जायें
   
(शेष आगेके ब्लाँगमें) -(पथ प्रदीप) पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ १-२ (Page No. 1-2)।

Saturday, 8 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 8 October 2011
(आश्विन शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)
सन्त-समागम, भाग-
(गत ब्लाँगसे आगेका)
राग मिटने पर वैराग्य कैसे मिट जाता है

वैराग्य अग्नि के समान है जो रागरूपी लकड़ी को जलाता है जिस प्रकार लकड़ी का अभाव होते ही अग्नि अपने आप शान्त हो जाती है, उसी प्रकार राग का भाव होते ही वैराग्य, और अविचार का अभाव होते ही विचार, तथा अज्ञान का अभाव होते ही योग, स्वतः मिट जाता है अर्थात् सभी गुण दोष के आधार पर जीवित हैं, अतः दोषों का अभाव होने पर गुण अपने आप मिट जाते हैं वास्तव में तो जिस प्रकार प्रकाश की कमी ही अँधेरा है, उसी प्रकार गुणों की कमी ही दोष है । 


राग क्यों होता है

सुख से राग का जन्म होता है, क्योंकि यदि विषयों में सुख मालूम पड़े तो राग नहीं हो सकता विषयों में सुख-भाव अविचार से होता है, अविचार ज्ञान की कमी से होता है और ज्ञान की कमी अपने को शरीर समझने पर होती है इन सब कारणों से ही राग का जन्म होता है । 
दुःख क्यों होता है

सुख रूप बीज से ही दुःखरूप वृक्ष हरा-भरा होता है, क्योंकि ऐसा कोई दुःख नहीं है जिसका जन्म सुख से हुआ हो। 


दुःख और सुख का परिणाम

जो सुख किसी का दुःख बन कर मिलता है, वह मिट कर कभी कभी बड़ा दुःख हो जाता है, क्योंकि उसका जन्म दुःख से हुआ था और जो दुःख किसी का सुख बन कर मिला है वह मिटकर कभी कभी आनन्द में बदल जायेगा, क्योंकि प्राणी सुख से बँधता है और दुःख से छुट जाता है अर्थात् सुख से दुःख और दुःख से आनन्द मिलता है


त्याग का स्वरूप क्या है ? 

संसार की अनुकूलता तथा प्रतिकूलता पर विश्वास का अत्यन्त अभाव ही सच्चा त्याग है क्योंकि अनुकूलता से राग और प्रतिकूलता से द्वेष होता है राग-द्वेष का अभाव हो जाना ही त्याग है
जिस प्रकार लड़की पिता के घर कन्या और ससुराल में बहू तथा पुत्रवती होने पर माता कहलाती है, उसी प्रकार त्याग ही प्रेम और प्रेम ही ज्ञान कहलाता है
त्याग होने पर आस्तिकता जाने से त्याग प्रेम में, और आस्तिकता का यथार्थ अनुभव होने पर प्रेम ज्ञान में बदल जाता है | 
 
-'सन्त-समागम, भाग-१' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ ११-१२ (Page No. 11-12) ।